ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -
अवलोकन २०१३ ...
कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का १७ वाँ भाग ...
जितनी आसानी से कोई कहानी कही जाती है
उतने आसान न रास्ते होते हैं
न मन की स्थिति ...
अंत एक दर्शन है
जीवन की साँसों का
रिश्तों का
विश्वास का, प्यार का ...........
एक अद्भुत रहस्य अंत से आरम्भ होता है
अद्वैत के प्रस्फुटित मंत्रोचार में
जो सूर्योदय की प्रत्येक किरण की परिक्रमा में है
और ख़त्म नहीं होती …
ख्याबो को बना कर मंजिल ...बातो से सफर तय करती हूँ ..अपनों में खुद को ढूंढती हूँ ....
खुद की तलाश करती हूँ ... .. बहुत सफर तय किया ...अभी मंजिल तक जाना हैं बाकि...
जब वो मिल जाएगी तो ...विराम की सोचेंगे
(अंजु (अनु ) चौधरी)
कब और कैसे,
एक लम्बा सा मौन
पसर चुका है हम दोनों के बीच
ये मौन बहुत शोर करता है
और कर देता है बेचैन इस मन को
तुम्हारी सोच की संकरी गली से
गुज़रने के बाद
मैं देर तक खुद के अन्धकार में
भटकती हूँ
और सोचती हूँ,ये मौन कहाँ से आता है ?
कब और कैसे,
कभी ना खत्म होने वाला
तेरे और मेरे बीच
बातों और विवादों का ऐसा मकड जाल
जो अब टकराव की सीमा तक
आ कर थम गया है,
और मैं ये भी जानती हूँ
जिस दिन ये टकराव हुआ
उस दिन हम दोनों की दिशाएँ
बदल जाएँगी
तुम दूर चले जाओगे और बसा लोगे
अपनी एक नयी दुनिया
क्यों कि मैं जानती हूँ कि
खुद के जीवन में
पथराए आँचल से,
पर्वतों के शिखर तक मौन उड़ते है
जिस से इस जीवन में
उग आती हैं वीरानियाँ इतनी
जिसे जितना काटो, वो ओर
फैलने लगती है,नागफणी सी
क्योंकि
ये जिंदगी की धूप भी
अजीब होती है, नहीं चाहिए तभी
करीब होती है और
रात की चांदनी में जब भी
सोना चाहो
वो तब ओर भी कोसो दूर
महसूस होती है
इस लिए तो,
कब और कैसे,
मैं,खुद को धकेल कर अलग करती हूँ,
और देर तक खुद के अन्धकार में
भटकती हूँ
और सोचती हूँ,
कब और कैसे,
ये मौन कहाँ से आता है ?
--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
(समीर लाल की उड़न तश्तरी... जबलपुर से कनाडा तक...सरर्रर्रर्र...)
एक अंगारा उठाया था कर्तव्यों का
जलती हुई जिन्दगी की आग से,
हथेली में रख फोड़ा उसे
फिर बिखेर दिया जमीन पर...
अपनी ही राह में, जिस पर चलना था मुझे
टुकड़े टुकड़े दहकती साँसों के साथ और
जल उठी पूरी धरा इन पैरों के तले...
चलता रहा मैं जुनूनी आवाज़ लगाता
या हुसैन या अली की!!!
ज्यूँ कि उठाया हो ताजिया मर्यादाओं का
पीटता मैं अपनी छाती मगर
तलवे अहसासते उस जलन में गुदगुदी
तेरी नियामतों की,
आँख मुस्कराने के लिए बहा देती
दो बूँद आँसूं..
ले लो तुम उन्हें
चरणामृत समझ
अँजुरी में अपनी
और उतार लो कंठ से
कह उठूँ मैं तुम्हें
हे नीलकंठ मेरे!!
-सोच है इस बार
कि अब ये प्रीत अमर हो जाये मेरी!!
आम आदमी होने का सुख
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जीवन के कंटीले जंगलों से तिनका तिनका सुख
बटोरने में ना जाने कितनी बार उंगलियों से खून
रिसा है,संघर्ष से तलाशे गये इन सुखों को जी भर
के देख भी नहीं पाये थे कि अपनेपन को जीवित
रखने के लिये इन सुखों को अपनों में बांटना पड़ा
आदमी के भीतर पल रहे पारदर्शी आदमी का यही
सच है,और आम आदमी होने का सुख भी--------
दौर पतझर का सही---उम्मीद तो हरी है-----------
(ज्योति खरे)
माँ
जब तुम याद करती हो
मुझे हिचकी आती है
पीठ पर लदा
जीत का सामान
हिल जाता है----
विजय पथ पर
चलने में
तकलीफ होती है----
माँ
मैं बहुत जल्दी आऊंगा
तब खिलाना
दूध भात
पहना देना गेंदे की माला
पर रोना नहीं
क्योंकि
तुम बहुत रोती हो
सुख में भी
दुःख में भी-------
उम्दा भाव अभिव्यक्तिया सभी की
जवाब देंहटाएंSundar parichay!!
जवाब देंहटाएंshandar prastuti
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसादर
हमेशा कि तरह उत्कृष्ट ...!!!
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह ... बेहद उम्दा तरीके से सब को सँजोया है आपने |
जवाब देंहटाएंachchaa sanklan
जवाब देंहटाएंHum apne blog ko yahan kaise add karwaiye, kripya hamein bataiye
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की पूरी टीम को दिल से आभार
जवाब देंहटाएंबेहद शानदार प्रस्तुति - जय हो मंगलमय हो | हर हर महादेव |
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