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मंगलवार, 15 मई 2012

कुछ पोस्टों के कतरे ……आपके लिए लाए हैं खबरी बाबू

 

 

 

सबसे पहले एक समाचार आपके लिए । इस मंच पर सबसे ज्यादा सक्रिय और हमारे परम मित्र , सखा , अनुज़ , ब्लॉगर भाई शिवम मिश्रा जी का आज जन्मदिवस है । सो हमारी आपकी और इस पूरे ब्लॉग परिवार की तरफ़ से उनको अनेकानेक बधाई और शुभकामनाएं ।

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जय हो ...हमरे हर दिल अज़ीज़ और परम मित्र , अनुज मिसर जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं हो । मिसर जी देखिए ई भी कमाले न संयोग है कि जन्मदिन के हिसाब से आज हमारा छठिहार है आ आपका जन्मदिन ..जय हो ..हम ओईसे ही आपके बडके भईया थोडी हैं जी ।बहुत बहुत भेरी भेरी हैप्पी टू यू जी आपको ..आइए जश्न मनाते हैं

 

आइए अब आपको कुछ नई ताज़ी पोस्टों के कतरे दिखाते हैं , कतरे इसलिए ताकि आप उन्हें सूत्र बना कर उन खूबसूरत पोस्टों तक पहुंच सकें ।

 

जब खरीदें धूप का चश्मा...

गर्मियां शुरू होते ही अधिकांश व्यक्तियों को धूप के चश्मे की जरूरत महसूस होने लगती है। चिलचिलाती धूप में आंखों पर बिना चश्मा चढ़ाये बाहर जाने पर आंखों में जलने, पानी गिरना, सिर चकराना, जी मिचलाना जैसी शिकायतें होने लगती हैं। धूप का चश्मा खरीदते समय कुछ बातों का ख्याल रखना बेहद जरूरी है। कभी भी सस्ते व घटिया किस्म के लैंसों वाले चश्मे न खरीदें। सस्ते चश्मों में लैंस के स्थान पर वही शीशे लगा दिये जाते हैं जो खिड़कियों आदि में इस्तेमाल किये जाते हैं। यही नहीं, ऐसे चश्मों में शीशे के अलावा प्लास्टिक का भी प्रयोग होता है और वह भी बहुत घटिया किस्म का होता है। इस तरह के घटिया शीशे या प्लास्टिक के लैंस सूर्य की किरणों के साथ आने वाली पराबैंगनी किरणों का शोषण नहीं कर पाते और लैंस के माध्यम से आरपार होकर आंखों को नुकसान पहुंचाते हैं।

 

 

घाव

घाव
राहें-राहें आग बिछी हैं
झुलसी-झुलसी हैं
सब छायाएं
हर चौराहा धुआँ-धुआँ हैं ,
घर तक हम कैसे जाएं
कब तक खाली-खाली सी
अपनी इस बेज़ार  ,जिंदगी को देखूं ?

 

 

Random Thoughts Continued

नहीं देखीं कई दिनों से तितलियाँ,

पर सुना है अंधे भी प्रेम कर सकते हैं.

अपने होने पर शर्म तो कभी महसूस नहीं हुई,

क्यूंकि प्रकृति ने ही चुना था मेरे होने को.

सृष्टि ने ही मुहर लगायी थी वर्तमान की मुझमें.

किन्तु फिर भी...

क्षमा प्रार्थी हूँ सारी सृष्टि से,

अपने किये के लिए....

 

माँ

मानव का पहला समबोधन "माँ" है!

पीडा का हर  उदबोधन    "माँ है !!

जिस पर नत मस्तक पराक्रमी सब,

उस अबला का अवलम्बन  "माँ"है!!

 

बंदिनी से बंदूक धारिणी

बिमल रॉय की फिल्म ‘बंदिनी’ में कल्याणी (नूतन), विकास कुमार ( अशोक कुमार) से बेहद प्यार करती है, लेकिन विकास उसे धोखा देता है. इसके बावजूद फिल्म के अंत में वह जाकर विकास के ही चरणों में गिर जाती है. मेरा पति परमेश्‍वर की तर्ज पर वह विकास कुमार के साथ आगे का सफर पूरा करती है. वह उस देवेन को भी भूल जाती है, जो उस वक्त उसके सहारा बनते हैं, जब उसके पास कोई नहीं होता. इसके बावजूद विकास के तमाम बेवफाई के वह विकास का ही साथ चुनती है. बिमल रॉय की यह फिल्म 1963 में रिलीज हुई थी. यानी आज से 49 वर्ष पूर्व. उस दौर में भारतीय समाज का परिवेश उसका ढांचा बिल्कुल अलग था. उस वक्त महिलाएं शायद उसी सोच के साथ आगे बढ.ती थीं, जिनके लिए उनके पति में ही उनकी दुनिया बसती है. उसी के मद्देनजर फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाएं गढ.ी जाती थीं. इन 49 सालों में इस सोच में बड़ी तब्दील आ चुकी है. अब प्यार की परिभाषा भी बदल चुकी है

 

 

 

आमसूत्र कहता है; मिलन उतना ही मीठा होता है

 Kulwant Happy "Unique Man"

आमसूत्र कहता है कि लालच को जितना पकने दो, मिलन उतना ही मीठा होता है। सबर करो सबर करो, और बरसने दो अम्‍बर को। गहरे पर सुनहरे रंग तैरने दो, बहक यह महकने दो, क्‍यूंकि सबर का फल मीठा होता है, मीठे रसीले आमों से बना मैंगो स्‍लाइस, आपसे मिलने को बेसबर है। आम का मौसम है। बात आम की न होगी तो किसकी होगी। मगर अफसोस के आम की बात नहीं होती। संसद में भी बात होती है तो खास की। आम आदमी की बात कौन करता है। अब जब उंगलियां 22 साल पुरानी इमानदारी पर उठ रही हैं तो लाजमी है कि खास जज्‍बाती तो होगा ही, क्‍यूंकि आखिर वह भी तो आदमी है, भले ही आम नहीं। जी हां, पी चिदंबरम। जो कह रहे हैं शक मत करो, खंजर खोप दो। वो कहते हैं बार बार मत बहस करो। कसाब को गोली मार दो। आखिर इतने चिढ़चिढ़े कैसे हो गए चिदंबरम। चिदंबरम ऐसे बर्ताव कर रहे हैं, जैसे निरंतर काम पर जाने के बाद आम आदमी करने लगता है। वो ही घसीटी पिट राहें। वो ही गलियां। वो ही चेहरे। वो ही रूम। वो ही कानों में गूंजती आवाजें। लगता है चिदंबरम को हॉलीडे पैकेज देने का वक्‍त आ गया।

 

 

अगले आम चुनाव का मुद़दा - बोरियॉं

//व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्‍बट//

देश में आए दिन किसी न किसी चीज़ का अभाव हो जाता है, आजकल बोरियों का अभाव चल रहा है। किसानों को बोरियाँ नहीं मिल पा रही है नतीजतन गेहूँ का बफर स्टॉक अपनी जन्मभूमि पर पड़ा पानी से सड़ने की कगार में है। बोरी इस समय किसान के मौलिक अधिकार के रूप में उभर कर सामने आई है जिसे पाने के लिए किसान जान हथेली पर लेकर संघर्षरत है सोच रहा है, शायद इस रास्ते से उसे सचमुच बोरी मिल ही जाएगी! हम देख रहे है कि उसे बोरियों की जगह ‘गोलियाँ’ मिल रही हैं।

 

नमक कानून तोड़ते हुए महात्मा गांधी (प्रसिद्ध तस्वीर)

ललित कुमार द्वारा Tuesday, May 15th, 2012 को प्रकाशित

यह तस्वीर 6 अप्रैल 1930 को सुबह साढ़े छह बजे ली गई थी

Writely Expressed पर मेरा मूल अंग्रेज़ी लेख

नमक एक अति महत्तवपूर्ण चीज़ है। इसकी अधिकता स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकती है लेकिन हम इंसानों के लिए इस खनिज का पर्याप्त मात्रा में सेवन महत्तवपूर्ण है। जब मानव जाति शिकार पर निर्भर करती थी; उस समय तो हमें नमक कच्चें मांस से मिल जाता था लेकिन कृषि की शुरुआत के बाद से हमारे भोजन का अधिकांश हिस्सा पौधों से आने लगा। परिणामस्वरूप हमारा नमक सेवन कम हो गया और हम नमक के लिए अन्य साधनों पर निर्भर होते चले गए। प्राचीन काल से ही सरकारों ने नमक पर कई कारणो से कर भी लगाया:

1) नमक ऐसी चीज़ रही है जिसका प्रयोग हर कोई करता है –इसलिए नमक पर कर लगाने से सरकारों को लगी-बंधी आमदनी होती थी।

2) क्योंकि नमक इतनी महत्तवपूर्ण चीज़ थी –इसलिए नमक पर कर लगा कर सरकारें अपनी ताकत और अधिकारों का प्रदर्शन भी किया करती थीं।

 

 

कामरेड फिदेल और मेरा परिवार..

मिरोस्‍लाव क्रलेज़ा (1893-1981)

कक्षा की घंटी लगते ही पहला काम हुआ कि गिलेर्मो, हेरनान, अमादो, चिकिता, मारिसा सबने हंसते-हंसते डेस्‍क पर अपना गृहकार्य निकालकर बाहर किया, सौहार्दपूर्ण चुहल में अटकते-दौड़ते, मास्‍टर की मेज़ तक अपना खाता पहुंचाकर आपस की आनंदी फुसफुसाहटों में मझे-बझे रहे. जबकि मेरी घिग्घी बंधी थी. मरी मुर्गी की तरह मुर्दा पड़ी अपने खाली खाते पर हाथ बांधे मैं अपनी मौत की घड़ि‍यां गिन रहा था. वैसे मेरा खाता पूरी तरह खाली नहीं था. गृहकार्य के निबंध का शीर्षक ‘मेरा देश’ की सुघड़ लिखाई (रंगीन खड़ि‍या और पेंसिल से जिसे मैंने लिखा था) के नीचे चूल्‍हे की जली लकड़ी के काले से बड़ा अंडा खिंचा हुआ था (यह गंदी पुताई मेरे पिता की 'करतूत' थी). गलती मेरी ही है. मुझे मदद मांगने पिता के पास जाना ही नहीं चाहिए था. मां भी जब मांगना होता है, गांव के दूसरे दरवाज़े खटखटाती है, पिता से कभी कहां मांगती है. पिता खुद भी अपने से कुछ नहीं मांगते. लेकिन खाली पृष्‍ठ के ऊपरी हिस्‍से में काफी मेहनत और तल्‍लीनता से शीर्षक लिखने का काम खत्‍म करने के बाद ‘मेरा देश’ जैसे विषय की अमूर्त भव्‍यता की सोचते हुए मेरे कमज़ोर माथे के हाथ-पैर फूलने लगे थे, शायद इसीलिए मैं घबराया हुआ पिता के पास गया था.

 

 

अंतर्जाल पर निजता बचाए रखना असंभव है!

भारत में तो नहीं, अमेरिका में मानव अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता ने प्रत्येक व्यक्ति के सार्वजनिक जीवन में भी निजता के प्रति सम्मान का पूरा ध्यान रखा है .कुछ दिनों पहले महिला पत्रकारों ने भारत में सुरक्षा कारणों से पुलिस की तलाशी के तरीकों पर कड़ी आपत्ति जतायी थी ..उनके साथ कथित तौर पर जांच और तलाशी के नाम पर निजता का उल्लंघन किया गया था और बदसलूकी की गयी थी ...न्यूयार्क शहर में आज से ही नहीं सन १०४९ से ही भीड़ में और सड़क पर चहलकदमी करते लोगों को भी 'निजता का उपहार' प्रदत्त था ...यद्यपि वहां भी सुरक्षा कारणों को लेकर नित नयी मुसीबतें अब शुरू हो गयी हैं .

 

 

ना, प्लीज़, लिजलिजी भावुकता तो रहने ही दो!.............................घुघूती बासूती

जब हम स्त्रियों, बच्चियों, बेटियों, लड़कियों की बात करते हैं तो वैसे नहीं करते जैसे किसी सामान्य मानव की करते हैं जिसके अधिकार हैं, दुख हैं, सुख हैं, इच्छाएँ हैं, आकांक्षाएँ हैं, जो सही भी हैं, गलत भी, बुरी भी, भली भी। हम उन्हें या तो सारी समस्याओं की जड़ मान जन्म ही नहीं देना चाहते या फिर एक तो चलेगी या यदि बहुत ही भले हुए तो दो तो चलेंगी किन्तु उससे अधिक नहीं, ना, ना बाबा, क्या लड़कियों की लाइन लगानी है, जैसी बातें करते हैं, उनके दहेज की चिन्ता में दुबले हुए जाते हैं, उन्हें 'पराया धन', 'चिड़िया', 'मेहमान', 'पराई अमानत' कहते हैं या फिर 'बेटियों से ही घर की रौनक होती है', या उन्हें 'लक्ष्मी' कहते हैं, उन्हें 'पूजनीय' बनाने की चेष्टा करते हैं, उसे 'माँ' मानते हैं, उससे पैर नहीं छुआते, उसके पैर पूजते हैं। अर्थात वह सबकुछ करते हैं जो उसे सामान्य सहज न होने दे, उसे चेताता रहे कि वह अलग है, परिवार की सदस्य होते हुए भी या तो परिवार पर बोझ है या उसमें विशेष स्थान रखने वाली 'मेहमान' है जिसे जहाँ वह है वहाँ सदा नहीं रहना, जिसका घर परिवार दूर कहीं और है।

 

ये बेटियाँ वरदान हैं

प्रकृति का पुरुष को

ये सबसे बड़ा दान हैं ,

स्नेह की प्रतिमूर्ति हैं

ये लाज हैं सम्मान हैं ,

धैर्य की गंगा हैं

ये कुलों का अभिमान हैं ,

प्रेम का प्रकाश हैं

ये कोमल अरमान हैं ,

जननी मातृशक्ति हैं

ये हैं तो खानदान हैं ,

 

एक ही रंग दिखाता है सात रंग भी

सच बता निक्की, वो जानबूझ कर ऐसा करता होगा ना?

आखिर कितने दिन तुम किसी को अनदेखा कर सकती हो ? कभी, कभी तो, किसी भी पल, एक बार भी, थोड़ा सा भी, एक्को पैसा, एकदम रत्ती भर भी, कभी तो उसको लगता होगा कि हम उसके लिए मरे जा रहे हैं, क्या बार भी वो आंख भर के देख नहीं सकता है, और सबको तो देखता है, गली में शाम ढ़ले लाइन कटने पर बगल वाले बाउंड्री पर बैठ सबके साथ अंतराक्षरी खेलने का टाइम निकाल लेता है पर मेरे लिए समय नहीं है ! ऐसा कैसे हो सकता है यार?

 

 

निब तोड़ देनी है आज...

क्यूँ लिखा जाए कि एक एक शब्द बायस होता है एक बनते हुए ज़ख्म का...शब्दबीज होते हैं...खून में घुल जाने के लिए...आंसुओं में चुभ जाने के लिए...हर शब्द एक बड़े से ज़ख्म के पेड़ का नन्हा सा बीज होता है. हर शब्द जो मैं लिखती हूँ हर शब्द जो तुम पढ़ते हो.
मैं वाकई बैरागी सी हो गई हूँ...एकदम विरक्त...मन किसी शब्द पर नहीं ठहरता...मन किसी चेहरे पर नहीं ठहरता...मन कहीं नहीं ठहरता. मुझे विदा कहना नहीं आता वरना कब की चली जाती...किसी ऐसी जगह पर जहाँ से वाकई कहीं और जाने की जरूरत न पड़े.
लिखना कम कर दिया है...बेहद कम और मन में जो हाहाकार मचा रहता था वो भी कम हो गया है...अब एक निर्वात बन रहा है...जहाँ कुछ नहीं होता...जहाँ मैं नहीं होती जहाँ तुम नहीं होते...जहाँ कोई भी नहीं होता. मैंने सुबह से दो किताबें पढ़ने की कोशिश कीं...नहीं पढ़ पायी, दोनों किताबें बकवास लगीं, हो ये सकता है कि किताबें सच में वाहियात हों.

 

बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण – ४

(पिछली किस्त से आगे)

हर साहित्यकार गप्पी होता है.... अहदी भी होता है और दांभिक भी. यह अहदीपन और दंभ उसे ऊँचा उठाते हैं. ढेर-की-ढेर कपास ओटना मोटा काम हुआ. महीन सूतों का लच्छा अगर छटांक-भर की अपनी तकली से आपने निकाल लिया तो ‘पद्मभूषण’ के लिए इतना ही पर्याप्त है, बंधु !
आईने के अंदर जो नागाजी झाँक रहा था, अभी-अभी उसने भभाकर हँस दिया... बाहरवाला नागाजी इस पर डाँट रहा है-- मैं तेरा गला घोंट दूँगा. पाजी कहीं का ! भिलाई या राऊरकेला या दुर्गापुर, कहीं किसी ठेकेदार का मुंशी ही हो जाता भला ! वह धंधा भी बेहतर था, बच्चू !
आईनेवाली आकृति के होंठ हिल रहे हैं . मुद्रा से लगता है, कुछ गुनगुना रहा है...समझे ? कह रहा है... क़लम ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के !
अब आगे मैं तुझे अपने कंधों पर नहीं ढोऊँगा, अदना-सी कोई नौकरी कर लूँगा. बिलकुल असाहित्यिक!

 

Teaching the Ultimate – सर्वोच्च सत्य

बहुत पुरानी बात है. जापान में लोग बांस की खपच्चियों और कागज़ से बनी लालटेन इस्तेमाल करते थे जिसके भीतर जलता हुआ दिया रखा जाता था.

एक शाम एक अँधा व्यक्ति अपने एक मित्र से मिलने उसके घर गया. रात को वापस लौटते समय उसके मित्र ने उसे साथ में लालटेन ले जाने के लिए कहा.

“मुझे लालटेन की ज़रुरत नहीं है”, अंधे व्यक्ति ने कहा, “उजाला हो या अँधेरा, दोनों मेरे लिए एक ही हैं”.

“मैं जानता हूँ कि तुम्हें राह जानने के लिए लालटेन की ज़रुरत नहीं है”, उसके मित्र ने कहा, “लेकिन तुम लालटेन साथ लेकर चलोगे तो कोई राह चलता तुमसे नहीं टकराएगा. इसलिए तुम इसे ले जाओ”.

 

 

ब्लॉगिंग का फ़ैलता मकड़जाल

कुछ पुराने ब्लॉगर्स और हम रंजना दी के साथ-- २००७ में हमने ब्लॉगिंग शुरू की थी


एक शिशु जो आज वयस्क हो चुका है, जिसने अपने प्रकाश से समस्त विश्व में क्रांति की लहर उत्पन्न कर दी है, और जो आज हमारे सामने अपनी बेमिसाल क्षमता के साथ एक चुनौती बन कर खड़ा हुआ है। जी हाँ! हम बात कर रहे हैं इंटरनेट की दुनियां की , जिसने सम्पूर्ण विश्व को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया है। पंद्रह वर्ष पहले की ही तो बात है, अप्रैल सन १९९७ मे जब पहला अंग्रेजी ब्लॉग बना था, किसी ने सोचा भी नही था कि आने वाले समय में छोटा सा यह उपकरण सम्पूर्ण विश्व पर प्रभुता कायम कर लेगा। सर्वप्रथम पीटरमी.कॉम के पीटर मर्होल्ज ने लोगो को अपने विचार ब्लॉग पर व्यक्त करने के लिये प्रेरित किया, और लोगो को स्वयं को अभिव्यक्त करने का यह तरीका बहुत अच्छा भी लगा और तभी से नेट सर्फ़िंग का तूफ़ान सा आ गया है।

 

 

सिर या पूंछ ..भाई की ऊँची मूंछ !

सिर या पूंछ  ..भाई की ऊँची  मूंछ  !

[google se sabhar ]

भाई   ने  देखा 

बहन  खिड़की  पर  खड़ी थी  ;

गरजते  हुए  बोला  -

''शर्म  नहीं आती ?''

चलो हटो  यहाँ  से  ...

ये  अच्छी  लड़कियों 

का चाल -चलन  नहीं होता ''.

 

गूगल ला रहा है Digital Wallet

 


इस तकनीकी दुनिया में अब आपका बटुआ भी नया रूप लेना वाला है , मोबाइल से पैसों के लेनदेन वाली तकनीकी से आप एयरटेल मनी की वजह से थोडा परिचित तो होंगे ही ऐसी ही एक और नयी तकनीक Google Wallet लेकर आया है गूगल, जो आपकी जेब से बटुआ हटाकर सिर्फ फ़ोन से ही लेनदेन करने की सुविधा देगा ।

वैसे तो ये तकनीक अपने प्रारंभिक चरण में है पर google, paypal और visa जैसे दिग्गज इस नयी परियोजना पर मिलकर काम कर रहें है इस वजह से ये थोड़ी महत्वपूर्ण तो हो ही जाती है ।

 

उम्मीद पर......

 

 

बाबू

यह बाबू आफीस का

दुर्बल दीन-हीन

भाग्‍य-नोट

लिखा विधाता ने

जिसका फीकी स्‍याही से

अस्‍पष्‍ट-सा

पढ-लिखकर कर

जब से होश संभाला

इसने जीवन बेच दिया है,

इसका जीवन सरकारी है,

दस बजे से पांच बजाता है,

 

लूट के महाभोज में सबने छक कर अपना पेट भरा

अप्रैल २०१२ अंक

बोलने और सुनने में बड़ा प्यारा लगता है कि ‘‘शिक्षा वही, जो सच्चा इंसान बनाए’’, लेकिन क्या ऐसा कभी संभव है? समाज और राज के चरित्रा में दिनों-दिन क्षरण जारी है। उनका नैतिक क्षरण बहुत तेजी से हो रहा है। जिन पर कानून बनाने की जिम्मेदारी है, वही घोड़े की तरह बिक रहे हैं। इस खरीद-फरोख्त के रेस में वे गर्व से शामिल होते हैं। तनिक लज्जा नहीं कि मनुष्य होकर भी जानवरों की तरह बिकते हैं। ये कैसी विडंबना है?

पिछले माह पूरे देश के जनमानस में निर्मल बाबा द्वारा की गयी ठगी की चर्चा छायी रही, तो राँची में संजीवनी बिल्डकॉन की। गौर करने वाली बात यह है कि दोनों के मूल में, ठगी में साथ देने वाले कारपोरेट मीडिया ही रही। कहा जाता है और लोगों का अनुमान है कि झारखंड में 50 करोड़ रुपए की ठगी संजीवनी द्वारा की गयी। इतनी बड़ी रकम को डकारना अकेले संजीवनी के वश की बात नहीं थी। इस रकम में 20 प्रतिशत हिस्सेदारी यहाँ की कारपोरेट मीडिया, 10 प्रतिशत गुण्डा, 10 प्रतिशत पुलिस और 15 प्रतिशत दलाल एवं दबंग समाजसेवी, राजनीतिक पार्टियांे की रही। लूट के इस महाभोज में सबसे ज्यादा किसी का पेट भरा तो वह था मीडिया। एक मीडियावाले ‘न्यूज 11’ ने तो उसे अपना पार्टनर ही बना डाला, तो प्रभातखबर मेला लगवाकर लूट की पूरी छूट ही दे डाली। दैनिक भास्कर ने भी कई प्रोग्राम में मीडिया पार्टनर ही बना डाला।

 

 

 

तो चलिए आज के लिए इतना ही , अब अपने इस खबरी बाबू को दीजीए इज़ाज़त , मिलते हैं फ़िर कल नई और खूबसूरत पोस्टों के कतरों , लिंकों और सूत्रों के साथ । राम राम जी

18 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ अलग से लिंक्स भी मिले .आभार.

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  2. आभार बंधु,सारे लिंक्स हम तक पहुंचाने के लिए। शिवम जी को भी लख-लख बधाइयां।

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  3. शिवम भईया को ढेरों बधाईयां....
    बहुत ही उम्दा बुलेटिन बांचे अजय भईया.....

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  4. जन्मदिन मुबारक हो शिवम जी

    बहुत सुंदर लिक्स

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  5. अजय बाबू को छठी का अऊर सिवम बाबू को जलमदिन का बधाई.. ई ओकील साहब जब आते हैं बुलेटिन पर त एकदम छा जाते हैं.. एतना बिबिध बिसय पर लिंक देखिये के लगता है कि पूरा दिन का हिसाब-किताब फिट कर दिए हैं!!

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  6. वाआआआआआआआआअह यूँ ही ये सफ़र चलता रहे

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  7. हम त छठिया र के अ जन्म क भोज क वा ट जो ह .... आँखी त पथियिया ....
    लिनिक्स्वा क्येसे देखीं .....

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  8. आप सब का बहुत बहुत आभार ... बस ऐसे ही अपना स्नेह बनाए रखें !

    अजय भैया खूब बढ़िया गिफ्ट दिये है आज आप इस बुलेटिन के रूप मे ... जय हो महाराज आपकी !

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  9. शिवम जी को हमारी ओर से ढेरों शुभकामनाएँ.................
    मुस्कुराता आज और खिलखिलाता कल हो..........

    बधाई हो बधाई.....जन्मदिन की तुमको...जनमदिन तुम्हारा, मिलेंगे लड्डू हमको????
    :-)

    अनु

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  10. शिवम जी को हमारी ओर से ढेरों शुभकामनाएँ...सुन्दर लिंक संयोजन

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  11. व्यापक फलक लिए उम्दा पोस्ट .बधाई .आना जाना लगा रहेगा अब तो .

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  12. झा जी को चथियर के ......सॉरी छठियार के औरु मिशिर जी के जनम दिन के बहुते बधाई !
    झा जी ! आज तो ऐसन लिंक्स दिए है, के दू दीन के व्यवस्था हो गईल !
    आभार !
    :-)

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  13. आखिर असली जरुरतमंद कौन है
    भगवन जो खा नही सकते या वो जिनके पास खाने को नही है
    एक नज़र हमारे ब्लॉग पर भी
    http://blondmedia.blogspot.in/2012/05/blog-post_16.html

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  14. शिवम जी को हमारी ओर से ढेरों शुभकामनाएँ

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बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!