कवि मैं तुमको जीना चाहती हूँ . तुम हो यहीं ... मधुशाला , मधुबाला , ..... अपने एकांत संगीत में . कभी तेज , कभी शेष , कभी आशा , कभी गुमशुदा राहों की तरह . अपनी कलम में तुम्हें मढना चाहती हूँ - तुम्हें लूँ तो कैसे ? स्व की तरह लेना सही होगा , क्योंकि जो तुम हो , वही तो मैं हूँ . क्या लिखते समय तुम्हारे अन्दर वह अल्हड़ लड़की नहीं थी , जो कभी गई बात में थी , कभी दीपशिखा के स्वप्निल आँखों में ...कवि तुम्हारा परिचय यूँ है -" मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकरमैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भातामैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;जग भ्ाव-सागर तरने को नाव बनाए,मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,उन्मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ! "और मेरा परिचय -" शब्दों की गुफाओं मेंएक मौन तपस्याकब दिन हुआकब रात हुई .... सब मौन रहा ....बादल गरजे , बिजली कड़कीबूंद बूंद पानी बरसाबूंद बूंद के भावों सेशब्दों का परिधान बनाआकृति जो साकार हुईमेरा सपना साकार हुआ -कुछ देर रुकोऔर गौर करो -मैं हूँ शब्दांशमैं हूँ भावार्थमैं ही हूँ गुंजित प्रतिध्वनिमैं मौन भी हूँमैं स्वर भी हूँमैं विस्मित अनकही बातें हूँयह नाम तो बस एक माया हैसच भावों की एक छाया हैअपने मौन और शब्द में तुम कहते हो -मेरा परिचय यही पहले थामेरा यही परिचय आज भी है "
"एक दिन मैंनेमौन में शब्द को धँसाया थाऔर एक गहरी पीड़ा,एक गहरे आनंद में,सन्निपात-ग्रस्त सा,विवश कुछ बोला था;सुना, मेरा वह बोलनादुनियाँ में काव्य कहलाया था।आज शब्द में मौन को धँसाता हूँ,अब न पीड़ा है न आनंद हैविस्मरण के सिन्धु मेंडूबता सा जाता हूँ,देखूँ,तह तकपहुँचने तक,यदि पहुँचता भी हूँ,क्या पाता हूँ। "और मैं अपने भीतर के सन्नाटे में चीखती हूँ - अरे कोई है ? मौन से परे एक तलाश -" सन्नाटा अन्दर हावी है ,घड़ी की टिक - टिक.......दिमाग के अन्दर चल रही है ।आँखें देख रही हैं ,...साँसें चल रही हैं...खाना बनाया ,खाया...महज एक रोबोट की तरह !मोबाइल बजता है ...,उठाती भी हूँ -"हेलो ,...हाँ ,हाँ , बिलकुल ठीक हूँ ......"हँसती भी हूँ ,प्रश्न भी करती हूँ ...सबकुछ इक्षा के विपरीत !...................अपने - पराये की पहचान गडमड हो गई है ,रिश्तों की गरिमा !" स्व " के अहम् में विलीन हो गई है......... मैं सन्नाटे में हूँ !समझ नहीं पा रही ,जाते वर्ष से गला अवरुद्ध हैया नए वर्ष पर दया आ रही है !........आह !एक अंतराल के बाद -किसी का आना ,या उसकी चिट्ठी का आना.......एक उल्लसित आवाज़ ,और बाहर की ओर दौड़ना ......,सब खामोश हो गए हैं !अब किसी के आने पर कोई उठता नहीं ,देखता है ,आनेवाला उसकी ओर मुखातिब है या नहीं !चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ?-मोबाइल युग है !खैर ,चिट्ठी जब आती थीया भेजी जाती थी ,तो सुन्दर पन्ने की तलाश होती थी ,और शब्द मन को छूकर आँखों से छलक जाते थेनशा था - शब्दों को पिरोने का !अब सबके हाथ में मोबाइल हैपर लोग औपचारिक हो चले हैं !मेसेज करते नहीं ,मेसेज पढ़ने में दिल नहीं लगता ,या टाइम नहीं होता !फ़ोन करने में पैसे !उठाने में कुफ्ती !जितनी सुविधाएं उतनी दूरियांवक़्त था ........धूल से सने हाथ,पाँव,माँ की आवाज़ ....."हाथ धो लो , पाँव धो लो "और , उसे अनसुना करके भागना ,गुदगुदाता था मन को .....अब तो !माँ के सिरहाने से ,पत्नी की हिदायत पर ,माँ का मोजा नीचे फ़ेंक देता है बेटा !क्षणांश को भी नहीं सोचता" माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ......".......सोचने का वक़्त भी कहाँ ?रिश्ते तोहम दो ,हमारे दो या एक ,या निल पर सिमट चले हैं ......लाखों के घर के इर्द - गिर्द-जानलेवा बम लगे हैं !बम को फटना है हर हाल में ,परखचे किसके होंगे-कौन जाने !ओह !गला सूख रहा है .............भय से या - पानी का स्रोत सूख चला है ?सन्नाटा है रात का ?या सारे रिश्ते भीड़ में गुम हो चले हैं ?कौन देगा जवाब ?कोई है ?अरे कोई है ???...सहयात्री बनो तुम या मैं ...पर शब्दों के इस रिश्ते में तुम तुम हो और मैं मात्र एक अकिंचन शब्द -तुम विस्तार -" नीड़ का निर्माण फिर-फिर,नेह का आह्णान फिर-फिर!वह उठी आँधी कि नभ मेंछा गया सहसा अँधेरा,धूलि धूसर बादलों नेभूमि को इस भाँति घेरा,रात-सा दिन हो गया, फिररात आई और काली,लग रहा था अब न होगाइस निशा का फिर सवेरा,रात के उत्पात-भय सेभीत जन-जन, भीत कण-कणकिंतु प्राची से उषा कीमोहिनी मुस्कान फिर-फिर!नीड़ का निर्माण फिर-फिर,नेह का आह्णान फिर-फिर!वह चले झोंके कि काँपेभीम कायावान भूधर,जड़ समेत उखड़-पुखड़करगिर पड़े, टूटे विटप वर,हाय, तिनकों से विनिर्मितघोंसलो पर क्या न बीती,डगमगाए जबकि कंकड़,ईंट, पत्थर के महल-घर;बोल आशा के विहंगम,किस जगह पर तू छिपा था,जो गगन पर चढ़ उठातागर्व से निज तान फिर-फिर!नीड़ का निर्माण फिर-फिर,नेह का आह्णान फिर-फिर!क्रुद्ध नभ के वज्र दंतोंमें उषा है मुसकराती,घोर गर्जनमय गगन केकंठ में खग पंक्ति गाती;एक चिड़िया चोंच में तिनकालिए जो जा रही है,वह सहज में ही पवनउंचास को नीचा दिखाती!नाश के दुख से कभीदबता नहीं निर्माण का सुखप्रलय की निस्तब्धता सेसृष्टि का नव गान फिर-फिर!नीड़ का निर्माण फिर-फिर,नेह का आह्णान फिर-फिर!..."मैं आरम्भ का एक तिनका -" एक खिलखिलाती हँसी मेरे पास रुकी है ,एक गुनगुनाती नदी मेरे पास गा रही है,सूरज -नए विचार , नया तेज , नई दृढ़ताकिरण कवच में लेकर आया है .....बड़ों का आशीर्वाद,बच्चों की मासूमियतहवाओं में झूम रही है.........आओ ,हम इन्हे मिलकर बाँट लेंऔर एक नई शुरुआत करें !".... तुम संबल बनते हो -"वृक्ष हों भले खड़े,हों घने हों बड़े,एक पत्र छांह भी,मांग मत, मांग मत, मांग मत,अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथतू न थकेगा कभी,तू न रुकेगा कभी,तू न मुड़ेगा कभी,कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथयह महान दृश्य है,चल रहा मनुष्य है,अश्रु श्वेत रक्त से,लथपथ लथपथ लथपथ,अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ "मैं जिजीविषा की नन्हीं सी किरण -" कभी दिल ना लगे,कोई बात ना मिले,दसों दिशाएँ स्तब्ध हों,सूर्य क्षितिज में डूबता लगे,मन में अंधेरों की बारिश सी हो-..............अनजानी दिशा में आवाज़ देना खुद को,प्रतिध्वनि बन वह तुम्हारे पास आएगीहमसफ़र बन सूरज के रथ का स्वागत करेगीदसों दिशाओं में मंगलाचार बन प्रकाश का आह्वान करेगी.........विश्वास ना हो तो आजमा लोतुम्हारा 'स्व' कितना शक्तिशाली है "हे कालजई कवि , तुमको भावों का तर्पण अर्पण करती हूँ .... पढ़ पढ़ करके मधुशाला ....ये रहे भावों के कुछ अलौकिक विम्ब -
ब्लॉग जगत में लिखी पढी जा रही पोस्टों , उनमें दर्ज़ की जा रही टिप्पणियां ,बहस ,विमर्श ..सबको समेट कर तैयार है बुलेटिन ... ब्लॉग बुलेटिन ...
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शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012
कवि बच्चन के साथ कुछ दूर
14 टिप्पणियां:
बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!
वाह ....सुंदर लिंक्स संकलन....
जवाब देंहटाएंवाह , सहेजने योग्य बुलेटिन .... आभार
जवाब देंहटाएंआज के बुलेटिन की रचनाएं बहुत ही खूबसूरत हैं ! बच्चन जी को पढ़ना सदैव सुखद होता है ! आभार आपका !
जवाब देंहटाएंबच्चन जी के नाम से मुझे पटना का अपना बुक-शेल्फ स्मरण हो आता है.. एक ओर त्रिभंगिमा, चार खेमे चौंसठ खूंटे, मिलन यामिनी.. दूसरी ओर बसेरे से दूर, नीड़ का निर्माण फिर.. और साथ ही ओथेलो!! एक कवि, एक लेखक, एक प्रोफ़ेसर...
जवाब देंहटाएंदीदी, इस बुलेटिन ने बस मन मोह लिया!! संग्रहणीय!!
वाह .. बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं"तू न थकेगा कभी,
जवाब देंहटाएंतू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,"
ली शपथ ... ली शपथ ... बहुत बहुत आभार दीदी !
तू न थकेगा कभी,
जवाब देंहटाएंतू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,"
मन मोह लिया|
उत्कृष्ट कविताओं को पढ़वाने का बहुत आभार..
जवाब देंहटाएंएक बहती नदिया सा प्रवाह …………आभार पढवाने के लिये ॥
जवाब देंहटाएंबच्चन जी का परिचय फिर अपना परिचय ... उनकी कविता के बाद आपके भाव .... सब कितना सुखद लगा .... इस प्रस्तुति के लिए आभार
जवाब देंहटाएंमैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
जवाब देंहटाएंसुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
उन्मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
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बूंद बूंद के भावों से
शब्दों का परिधान बना
आकृति जो साकार हुई
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रिश्तों की गरिमा !
" स्व " के अहम् में विलीन हो गई है
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क्षणांश को भी नहीं सोचता
" माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ......"
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" नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!
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समझ में नहीं आया कहाँ से शुरू करूँ .... !
वो सब उठा ली ,जो मेरे दिल को छू आश्चर्यचकित किया .... !!
bahut khub
जवाब देंहटाएंpadhaane ke liye dhanyawad
जवाब देंहटाएंइस संकलन को पढ़ने पुनः आना पड़ेगा। श्रेष्ठ रचनायें...प्रस्तुतीकरण और भी लाज़वाब ...
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