कोशिशों का सफ़र है ... होश नहीं रहता इस ब्लॉग के सफ़र में , कोई रह जाए तो विनम्र अनुरोध है कि सख्ती से मुझे याद दिलाएं - किसी को भूलना शब्दों की सेहत के लिए सही नहीं होगा . शब्दों की इस अनिर्वचनिये यात्रा में ना कहू से बैर - बस दोस्ती ही दोस्ती !
वीथी: स्त्री होकर सवाल करती है!
"आज खोजती हूँ खुद को
पूछती हूँ खुद से
कौन थे तुम
जो आए अचानक
लील गए सपने मेरे
बो दिए सपने अपने
भीतर मेरे-बहुत गहरे
पूछती हूं पा एकांत खुद से
कर पाईं क्या न्याय स्वयं से तुम
मेरे भीतर उठते इन सवालों से
सचमुच बहुत डरती हूं "
" अजीब खरी- खरी
पथरीली सी जिन्दगी
हम अपना काव्यांश
ढूँढते रह गए..
जाने कब शुरू कब
ख़त्म हुई कहानी
हम मध्यांश
ढूँढते रह गए..
ओह...
कितने सलीके से पूछ गए
कैसा रहा सफ़र
और हम अपना सारांश
ढूँढते रह गए. "
" कमबख़्त यह ख्वाइशों का काफिला भी बड़ा अजीब होता है
गुज़रता भी वहीं से हैं जहां रास्ते नहीं होते"
इंसान एक मगर उसकी ख्वाइशें अनेक वो भी ऐसी-ऐसी की हर इंसान बस यही कहता नज़र आता है।
हज़ार ख्वाइशें ऐसी की हर ख्वाइश पर दम निकले,
जितने भी निकले मेरे अरमान बहुत कम ही निकले....
हर इंसान के साथ आख़िर ऐसा क्यूँ होता है। किसी के पास सब कुछ है, तो भी उसे और भी बहुत कुछ पाने की चाह है और जिसके पास कुछ भी नहीं उसे तो किसी न किसी चीज़ की चाह होना लाज़मी है ही, क्यूँ कभी कोई इंसान संतुष्ट नहीं होता ? शायद इसलिए, कि जिस दिन इंसान अपने आपसे संतुष्ट हो गया उस दिन उसकी आगे बढ़ने की चाह ख़त्म हो जायेगी और यदि ऐसा हुआ तो उसका विकास रुक जायेगा। इसलिए शायद किसी ने ठीक ही कहा है।
"इंसान की ख्वाइश की कोई इंतहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए दो गज़ कफन के बाद"
अनुभूतियों का आकाश: मेरा नाम
" कभी कभी
अन्दर से निकल कर
जब मैं
बाहर आ जाता हूँ
तो स्वयं को पहचान ही नहीं पाता हूँ
खो जाती है मेरी पहचान
वो जो
कभी तुमने
कभी औरों ने दी
मैं तो बस इसके उसके
मुह को ताकता हूँ
और गुजारिश करता हूँ
मुझे देदो कोई नाम
जो सिर्फ मेरा अपना हो
और मैं
कभी स्कूल बस के पीछे भागता हूँ
कभी मोहल्ले की उस
कोने वाली लडकी के पीछे
और चांटे खाकर
थका हारा
किसी और के पीछे भागता हूँ
कालांतर में
आटा दाल के पीछे
और उसके बाद
भावनाओं के समुन्दर में
बच्चो की दया के पीछे
पत्नी भी घिसटती है साथ साथ
मै नाम पूछता हूँ
वो विद्रूप हंशी हंसती है
मगर मेरा नाम नहीं बताती
जानते हुए भी
मन ही मन
कई बार बुदबुदाती है
और अन्दर ही अन्दर कई बार बोलती है
खपच्चियों में कसा
एक नर कंकाल
जिसके सैकड़ों नाम है
मगर असल में कोई नहीं
नर कंकाल भी नहीं . "
"वक़्त की हर उत्तंग लहर
लेकर आती है
एक नयी लहर
आशा की,
लेकिन लौटते हुए
बहाकर ले जाती है
कुछ और रेत
पैरों के नीचे से,
और महसूस होता है
मेरे वज़ूद का एक और हिस्सा
बह गया है
उस रेत के साथ."
" अब प्रतिमान बदलने होंगे, दांव हमें भी लड़ने होंगे,
कुलीन नपुसकों के छल-बल अब निष्फल करने होंगे.
कुशल नीति के बाण भेद, पर्याय बदलने होंगे,
शोभा,मान, सुयश पाने को, विषम प्रयास तो करने होंगे."
Main hoon...: आत्म ज्ञान
" अब मेरा एक अनुरोध आप सब ज्ञानियों से है -
आज आप कुछ भी सोचें, बोलें, करें - जरा उन सब पर नज़र रखें-
अपने बारे में हम कितना कम जानते हैं - समझ जायेंगे.
आज भर, केवल आज भर,
बेफिजूल की बड़ी - बड़ी बातें ना करके,
दूसरों की ज़िन्दगी सुधारने का ठेका ना ले कर,
मात्र दृष्टा बनकर,
अपना ' सूक्षम ' निरीक्षण करें ?
आत्म - ज्ञान हो जायेगा !!!!!!!!!!!!!!!!"
अगली यात्रा के लिए लेते हैं एक विराम ........
सुंदर संकलन.... बढ़िया बुलेटिन...
जवाब देंहटाएंसादर आभार.
बहुत बढ़िया संकलन,सुंदर प्रस्तुति,
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चल रही है यह ब्लॉग यात्रा ... बधाइयाँ और शुभकामनाएं दीदी !
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह उत्तम चयन -- लिंकों का।
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया सैर रही.... मजेदार अनुभव.... :-) जै हो..
जवाब देंहटाएंशब्दों की इस अनवरत यात्रा में ना काहू से दोस्ती , ना काहू से बैर !
जवाब देंहटाएंइस सोच के साथ ही ब्लॉगिंग बेहतर होगी !
संतुलित चयन !
सुंदर संकलन!
जवाब देंहटाएंअत्यन्त पठनीय बुलेटिन..
जवाब देंहटाएंबढिया लिंक संयोजन्।
जवाब देंहटाएंपहली बार आपके ब्लॉग देख रही हूं.. बहुत ही व्यवस्थित और जानकारीप्रद ब्लॉग हैं आपके। बेमतलब के ब्लॉगों से कहीं हटकर। बधाई
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह ... लाजवाब करती यात्रा ...और पड़ाव ..आभार
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