मन पाखी ना थकते हैं ना डरते हैं - डॉ शिल्पी झा की कलम में उतर आते हैं।
इतवार की दोपहर मेरे पास चार घंटे खाली हैं जिन्हें मॉल में गुज़ारना है. फिलवक्त कोई छूटा काम भी नहीं है जिसे पूरी करने की चिंता घर वापस ले जाए क्योंकि इस मोहलत के बाद बच्चों को इसी मॉल से वापस ले जाना है, बर्थडे पार्टी के बाद. इसके पहले मैं उन्हें बायनुमा कुछ बोलूं दोनों ने घूमकर मुझसे ही कह दिया, ‘आप बाहर जाकर एन्जॉय करिएगा प्लीज़’.
संभावना से भरी दोपहर है, पार्लर, शॉपिंग, मूवी, कुछ भी हो सकता है. लेकिन बाहर निकलते ही मेरे क़दम खो से गए हैं. छोटे बच्चों को मां-बाप, बहनों के पास छोड़कर भागते हुए मॉल-मूवी जाने में जो एक किस्म की बेफिक्री होती थी वो उनके बड़े होते जाते ही जाने कहां खो सी गई है. मल्टीप्लेक्स के गेट के बाहर तीन-चार चक्कर लगाने के बाद गेटकीपर के निगाहों से बचने के लिए मैं एक फ्लोर नीचे उतरकर चक्कर काटने लगती हूं.
हर दुकान के बाहर सेल का बोर्ड लगा है, इत्तेफाक ये कि इतवार और सेल की ख़बर पूरे शहर को है. सामने पहली दुकान में कदम रखते ही भागने का मन किया. एक फॉर्मल शर्ट लेनी तो थी, सामने रखी शेल्फ से एक उठाया, ट्रायल रूम के बाहर लंबी कतार देख पैर बिलिंग काउन्टर पर मुड़ चले. ट्राई करें भी तो पसंद की मुहर किससे लगवाएं. सेल लिखा ही सही अब एक शॉपिंग बैग हाथ में है, मॉल के अंदर भटकना जस्टीफाई किया जा सकता है.
मुझे लगता है किसी भी वीकएंड मॉल जाने के फैसला हमें जिंदगी के कई अधर में लटके वक्ती फैसलों पर सोचने की ज़हमत से बचा लेता है.
किसी और दुकान के अंदर जाने का मन नहीं हुआ, बस साइड में लगी कुर्सी पर बैठा जा सका.
अंकल मेरे ठीक सामने से निकले हैं, फिर पीछे मुड़कर पूछा, ‘एही है रे यहां का सबसे बड़ा मॉल’
बेटा थोड़ा पीछे मां के साथ है, ऊंची आवाज़ में पूछे सवाल से सिकुड़ा सा, ‘हां यही है, आप बताइए लंच क्या करेंगे.’
‘कुच्छो कर लेगें, पहले बैइठने का इंतजाम करा दो, टांग टटा रहा है’
मेरे बगल की सीट पर जिन हजरत का बैग रखा है वो फोन में मस्त हैं, मैं उठने को होती हूं लेकिन बेटा मां-बाप को लेकर आगे निकल गया. आंटी की साड़ी पीछे से बित्ता भर मुड़ गई है, इतनी की पेटीकोट पर लगी मिट्टी भी नज़र आ रही है. मेरा मन किया आगे बढ़कर ठीक कर दूं, “अच्छा नहीं लग रहा आंटी, लाख छोह दिखा लें बेटे, ये बारीकियां कहां समझ पाते हैं.” तबतक एस्केलेटर के सामने ठिठकी आंटी बेटे के कान में कुछ कहकर लिफ्ट की ओर निकल चलीं.
मेरी बगल की सीट अब खाली है, पचासेक साला महिला वहां अकेली आकर बैठी, हाथ में मैकडॉनल्ड की सॉफ्टी लिए, हम दोनों ने मुस्कुराहट भरी नज़रें मिलाईं. उन्हें अकेला एन्जॉय करते देख हौसला और भूख दोनों जगे. फूड कोर्ट में, खुद से फैसला लेना है किसी की मर्ज़ी नहीं जाननी, एक राय बनाने पर कोई बहस नही, फिर भी एक-एक काउन्टर के बाहर रुकते रहे. ऑर्डर आखिरी काउन्टर पर दिया गया.
एयरपोर्ट के रास्ते से पति का फोन आया, मेरी आवाज़ मेले में खोकर मिल गई बच्ची सी चिहुंकने लगी. शिकायत सुनते ही दूसरे छोर पर हंसी तैर जाती है, “अब समझी तुम ट्रिप पर जाना घर से पीछा छुड़ाना नहीं होता.” मैं आपस में किया महीनों पहले का वादा याद दिलाना चाहती हूं, हम एक दूसरे के लिए शापिंग करने साथ निकलेंगे. लेकिन बदली सी आवाज़ कानों में आती है,
‘आप उठेंगीं ना?’
उनकी आवाज़ में सौम्यता है, लेकिन आंखों में हड़बड़ी. मैनें आखिरी निवाला मुंह में ठेलते हुए प्लेट उठा ली. घड़ी देखी, 2 घंटे 40 मिनट और बाकी हैं, फोन ने सूचित किया अबतक 5000 कदमों की घिसाई हो चुकी है.
ऐसे में एक ही जगह पनाह ली जा सकती है. यूं बुक स्टोर में भी सेल है, भीड़ भी, लेकिन मेरे पंसदीदा कोने में कोई हलचल नहीं. किताबें हाथ में उठाकर खिड़की के बगल की कुर्सी पकड़ ली.
बेचैनी फिर भी मिज़ाज पर तारी है. कुछ समय पहले बिटिया से फिर से घिसा-पिटा सवाल पूछ लिया कि बड़ी होकर क्या बनना चाहती है, इस समय की सारी संभावनाएं क्रमबद्ध गिनाने के बाद उसने पलट सवाल किया, आप बड़ी होकर क्या बनेंगी?
उसकी आंखों की शरारत देखकर मुंह से बेसाख्ता निकला “दादी और नानी बनूंगी और क्या”,. उसने मुझे जिन नज़रों से देखा उसे उसकी जेनरेशन ‘गो गेट अ लाइफ’ कहती है
मातृत्व एकतरफा पगडंडी है, चलते जाना होता है, रुकने का मन भी करे तो भी. मैं किताबों के पन्ने पलटने लगती हूं, अब समय सरपट दौड़ेगा.
“कुछ शॉपिंग भी की या बुक स्टोर ही गए”, बच्चे देखते ही पूछते हैं.
मैं चोरी पकड़ी जाने वाली नज़र से उन्हें देखती हूं. साथ-साथ ही तो चल रहे थे इनके, फिर भी बराबर रास्ता कहां तय पाए? ये तो बड़े भी हो गए..और मां?
आप का बहुत बहुत आभार रश्मि दीदी ... एक और उम्दा चिट्ठे को अवलोकन 2018 में शामिल करने के लिए |
जवाब देंहटाएंवाह अच्छे चिट्ठों की कमी नहीं है। सुन्दर अवलोकन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर..
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