प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |
फिल्म इस्माइल पिंकी ने पिंकी को भले ही शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया फिर पिंकी की सहायता करने वालों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो गई बावजूद इसके आज पिंकी का क्या हुआ वह क्या कर रही है, यह अब शायद ही कोई जानता हो ।
आज भी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में पिंकी जैसी अनेकों बालक बालिकाएं हैं जिन्हे बचपन में ही स्कूल जाने की बजाय काम पर लगा दिया जाता है जबकि एक तरफ सरकार जहां बच्चों को कुपोषण से बचाने, उन्हे साक्षर करने के दावे कर रही है यहीं नहीं उसने बाल श्रम पर भी रोक लगाई है, बावजूद इसके बाल श्रम बदस्तूर जारी है।
हमारे आस पास ही देख लीजिये आपको ऐसी न जाने कितनी पिंकी और छोटू मिल जाएंगे ! गली के नुक्कड़ की चाय की दुकान हो या हाइवे का ढ़ाबा यह छोटू आप को हर जगह मिल जाता है आप चाहे या न चाहे ... और तो और कभी कभी तो आपके घर तक आ जाता है जैन साहब की दुकान से आप के महीने के राशन की 'फ्री होम डिलिवरी' करने ... कैसे बचेंगे आप और हम इस से ... कभी सोचा है !!??
प्रणाम |
वर्ष २००८ में एक डॉक्यूमेंट्री चलचित्र (फिल्म) आई थी इस्माइल पिंकी के नाम से जो सच्ची कहानी पर आधारित थी| इस वृतचित्र को अमरीका की मेगान मायलन ने बनाया था। उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर की पिंकी के असली जीवन पर बनाई गई स्माइल पिंकी को छोटे विषय पर वृत्तचित्र वर्ग में सर्वश्रेष्ठ ऑस्कर (२००९) मिला था।
पिंकी भारत के उन कई हज़ार बच्चों में से है जिनके होंठ कटे होने के कारण उन्हें सामाजिक तिरस्कार का सामना करना पड़ा| पिंकी का एक स्वयंसेवी संगठन ने इलाज करवाया और उसकी जिंदगी बदल गई। क़रीब 39 मिनट के इस वृतचित्र में दिखाने की कोशिश की गई कि किस तरह एक छोटी सी समस्या से किसी बच्चे पर क्या असर पड़ता है और ऑपरेशन के बाद ठीक हो जाने पर बच्चे की मनोदशा कितनी बेहतरीन हो जाती है पिंकी की सर्जरी डॉक्टर सुबोध कुमार सिंह ने की थी। डॉक्टरसुबोध कुमार सिंह स्माइल ट्रेन नाम की अंतरराष्ट्रीय संस्था के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में काम करते हैं। पिंकी के घर के लोग बताते हैं कि होंठ कटा होने के कारण वो बाक़ी बच्चों से अलग दिखती थी और उससे बुरा बर्ताव किया जाता था।
फिल्म इस्माइल पिंकी ने पिंकी को भले ही शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया फिर पिंकी की सहायता करने वालों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो गई बावजूद इसके आज पिंकी का क्या हुआ वह क्या कर रही है, यह अब शायद ही कोई जानता हो ।
आज भी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में पिंकी जैसी अनेकों बालक बालिकाएं हैं जिन्हे बचपन में ही स्कूल जाने की बजाय काम पर लगा दिया जाता है जबकि एक तरफ सरकार जहां बच्चों को कुपोषण से बचाने, उन्हे साक्षर करने के दावे कर रही है यहीं नहीं उसने बाल श्रम पर भी रोक लगाई है, बावजूद इसके बाल श्रम बदस्तूर जारी है।
हमारे आस पास ही देख लीजिये आपको ऐसी न जाने कितनी पिंकी और छोटू मिल जाएंगे ! गली के नुक्कड़ की चाय की दुकान हो या हाइवे का ढ़ाबा यह छोटू आप को हर जगह मिल जाता है आप चाहे या न चाहे ... और तो और कभी कभी तो आपके घर तक आ जाता है जैन साहब की दुकान से आप के महीने के राशन की 'फ्री होम डिलिवरी' करने ... कैसे बचेंगे आप और हम इस से ... कभी सोचा है !!??
मजदूर दिवस पर क्या कभी इन बाल मजदूरों के हक़ की भी बात होती है !? क्यूँ ऐसा कुछ नहीं होता दिखता कि भारत से ये बाल मजदूरी का अभिशाप हमेशा के लिए समाप्त हो जाए !?
सादर आपका
शिवम् मिश्रा
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अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस : मेहनत को पहचान मिले
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अब आज्ञा दीजिये ...
जय हिन्द !!!
अब आज्ञा दीजिये ...
जय हिन्द !!!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। आज की बुलेटिन में मजदूर दिवस पर उठाया गया एक सटीक मुद्दा। 'उलूक' के चूहे बिल्लियों के खेल को भी जगह देने के लिये आभार शिवम जी।
जवाब देंहटाएंश्रमिक दिवस की आप सभीको हार्दिक शुभकामनाएं ! आज के बुलेटिन में मेरी रचना 'नभ के चन्दा' को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार शिवम् जी !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात |आज मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंमेरी रचना 'बदल जाते हैं' को शामिल करने के लिये हार्दिक धन्यवाद आपका
धन्यवाद शिवम मिश्रा जी,मेरी ब्लॉगपोस्ट को यहां शामिल करने के लिए
जवाब देंहटाएंआप सब का बहुत बहुत आभार।
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