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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

ख़ुशी की कविता या कुछ और?

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |

"मन था उदास... बड़ी हसरतों से निगाहें दरवाजे पर थीं... सहसा कुछ खटका सा हुआ।
उल्लसित मन से मैं दरवाजे की ओर बढ़ी कि लेकिन यह क्या।
वह मन का भ्रम था; दिल बैठने सा लगा, बुझे मन से लौट ही रही थी... कि सहसा एक आवाज आई... 

"भाभी"!

मन की वीणा झंकृत हो उठी।
मन मयूर नाच उठा।
यह कोई स्वप्न नहीं तुम साक्षात पधार चुकी थीं।

धन्य हो भगवन धन्य अब मन नहीं था उदास, माहौल हो गया था ख़ुशगवार, मन मृदंग के बज रहे थे तार, वह आ चुकी थी। सचमुच वो आ चुकी थी ... "

यह कविता नहीं... कामवाली बाई के चार दिन की छुट्टी के बाद काम पर आने की ख़ुशी में एक गृहिणी के हृदय से निकले उदगार हैं। चाहें तो फिर से पढ़ लें।

सादर आपका
शिवम् मिश्रा
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उदासी का रंग


एक था सरवन


आजकल (ग़ज़ल)



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अब आज्ञा दीजिये ...

जय हिन्द !!!

8 टिप्‍पणियां:

  1. धन्य हुई
    आभार आपका
    बहुत पसंद रहा हमेशा यहां की लिखी भूमिका

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  2. बहुत- बहुत आभार सभी स्तंभ अच्छे लगे। सादर।

    जवाब देंहटाएं
  3. शुभ प्रभात
    मन की वीणा झंकृत हो उठी।
    मन मयूर नाच उठा।
    यह कोई स्वप्न नहीं तुम साक्षात पधार चुकी थीं।
    बेहतरीन पोस्ट
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  5. उम्दा लिंक्स...हार्दिक आभार

    जवाब देंहटाएं
  6. आभार शिवम् जी, हलकी-फुलकी सुंदर भूमिका .

    जवाब देंहटाएं

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