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रविवार, 3 दिसंबर 2017

2017 का अवलोकन 19




प्राकृतिक, कृत्रिम
हास्य, रुदन 
जीवन - मृत्यु  ... इन सबके बीच अंदर का मौसम होता है, जिसे जीते हुए इंसान कलम उठाने पर विवश हो जाता है  ... 
आइये शिवनाथ कुमार के इस आंतरिक मौसम से गुजरें 
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जाग उठा अंदर का मौसम, अब तक था जो अँखियाँ मूंदे



लगा सुनाने बारिश का पानी
भीत छुपी थी कोई कहानी
बहने लगा है संग संग जिसके
यादें जो हो चुकी पुरानी
छप्पक छईं पानी में उतरा कोई  
लौट आई फिर अल्हड़ जवानी 
रूठे पिया को चला मनाने, भीग रहा मन मीत वही ढूंढें 
जाग उठा अंदर का मौसम, अब तक था जो अँखियाँ मूंदे 

धमक धमक बादल हैं गरजे
चमक चमक बिजली है चमके
काली चादर ओढ़े अम्बर
खोल रहीं हैं मन की परतें 
सिली सिली सी दिल की अंगराई
चेहरे पर इक मुस्कान है लाई
पिया के होने का अहसास, धरती अम्बर इक डोर में गूंदे   
जाग उठा अंदर का मौसम, अब तक था जो अँखियाँ मूंदे 

डाली डाली, पत्ता पत्ता 
वसुधा का अंग अंग है भीगा
काली कजरारी आँखों में
प्रेम का सुन्दर रंग है दिखा
सुर्ख भीगे अधरों पर 
नाम प्रीत का आकर टिका
अम्बर सा विस्तार पिया, साकार होती दिल की उम्मीदें  
जाग उठा अंदर का मौसम, अब तक था जो अँखियाँ मूंदे 

5 टिप्‍पणियां:

  1. अन्दर का मौसम ....
    वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब...

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  2. आदरणीय/आदरणीया आपको अवगत कराते हुए अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि हिंदी ब्लॉग जगत के 'सशक्त रचनाकार' विशेषांक एवं 'पाठकों की पसंद' हेतु 'पांच लिंकों का आनंद' में सोमवार ०४ दिसंबर २०१७ की प्रस्तुति में आप सभी आमंत्रित हैं । अतः आपसे अनुरोध है ब्लॉग पर अवश्य पधारें। .................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"


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  3. अवलोकन में स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार !!
    सादर !!

    जवाब देंहटाएं

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