साँसों में सूरज लेकर चलती हूँ
बंजारन हूँ न
कब कहाँ रात हो
कहाँ बसेरा बनाना हो
कौन जाने !
ज़िन्दगी को गुलाब बनाते हुए
नुकीले काँटों का काजल लगाती हूँ
कब कहाँ शस्त्र की ज़रूरत हो
कौन जाने !
आँचल में
लोरी और दुआओं की
सौगात रखती हूँ
कब कहाँ सपनों की सीढ़ियाँ बनानी हो
कौन जाने !
एक सुन्दर प्रस्तुति हमेशा की तरह।
जवाब देंहटाएंलाजवाब संकलन ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सूत्र संयोजन हमेशा की तरह
जवाब देंहटाएंमुझे सम्मलित करने का आभार
सादर