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रविवार, 29 अक्टूबर 2017

कौन जाने !




साँसों में सूरज लेकर चलती हूँ
बंजारन हूँ न 
कब कहाँ रात हो 
कहाँ बसेरा बनाना हो 
कौन जाने !
ज़िन्दगी को गुलाब बनाते हुए
नुकीले काँटों का काजल लगाती हूँ 
कब कहाँ शस्त्र की ज़रूरत हो
कौन जाने !
आँचल में 
लोरी और दुआओं की 
सौगात रखती हूँ 
कब कहाँ सपनों की सीढ़ियाँ बनानी हो 
कौन जाने !



कागज में लिखा चाँद - उम्मीद तो हरी है - blogger


 

3 टिप्‍पणियां:

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