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गुरुवार, 31 अगस्त 2017

रसीदी टिकट सी ज़िन्दगी और ब्लॉग बुलेटिन

नमस्कार मित्रो,
यदि प्रेम में डूबी हुई कविताओं, रसीदी टिकट, साहिर और इमरोज की बात की जाये तो स्वतः ही एक नाम सामने आता है, अमृता प्रीतम का. उनका जन्म आज, 31 अगस्त 1929 को गुंजरावाला पंजाब (अब पाकिस्तान में) में हुआ था. बंटवारे के बाद उनका परिवार हिन्दुस्तान आ गया. ग्यारह वर्ष की उम्र में उनकी मां का देहांत हो गया. देश छोड़ने के दर्द और माँ के देहांत ने उनको तन्हाई में पहुंचा दिया. वे कागज-कलम के सहारे अपनी तन्हाई दूर करने लगीं. सन 1936 उनका पहला कविता संग्रह अमृत लहरें प्रकाशित हुआ. इसी वर्ष उनका विवाह प्रीतम सिंह से हो गया और वे अमृता कौर से अमृता प्रीतम हो गईं. कालांतर में इस रिश्ते में दरारें आती रही और अंततः सन 1960 में उनका तलाक हो गया. उन्हें पंजाबी की पहली और सर्वश्रेष्ठ कवयित्री माना जाता है. अमृता जी ने पंजाबी के साथ-साथ हिन्दी में भी लेखन किया. उनकी किताबों का प्रकाशन पंजाबी, हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, स्पेनिश, रशियन, इटालियन आदि भाषाओं में हो चुका है. उन्होंने लगभग 100 पुस्तकें लिखीं. अपनी बात को बेबाकी से, बिना डरे कह देना उनकी खासियत थी. उनकी चर्चित आत्मकथा रसीदी टिकट में उन्होंने साहिर के साथ अपनी मोहब्बत के किस्से बिना किसी झिझक के कहे हैं. एक उपन्यासकार के रूप में उनकी पहचान पिंजर नामक उपन्यास से बनी. उन्होंने छः उपन्यास, छः कहानी संग्रह, दो संस्मरण, अनेक कविता संग्रह तथा अक्षरों के साये और रसीदी टिकट नामक दो आत्मकथायें लिखीं. वे पहली महिला साहित्यकार थीं जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया.


अमृता प्रीतम को उनकी रचनाओं के साथ-साथ उनके प्रेम-संबंधों के लिए भी जाना जाता है. जब भी उनका नाम लिया जाता है तो साहिर लुधियानवी और इमरोज का नाम स्वतः साथ में जुड़ जाता है. अमृता और साहिर एकदूसरे से बेपनाह मोहब्बत करते थे मगर कभी इस रिश्ते को आगे नहीं बढ़ा पाए. बाद में साहिर के मुंबई आने और अमृता के दिल्ली आ बसने के कारण दोनों में दूरी आ गई.  साहिर के बाद अमृता इमरोज के संपर्क में आईं और दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगे. दोनों एक ही छत के नीचे वर्षों तक साथ रहे. उन्होंने कभी एक-दूसरे से नहीं कहा कि वो प्यार करते हैं. अमृता के आखिरी समय में उनकी तकलीफों में इमरोज उनके साथ रहे. बाथरूम में गिर जाने की वजह से अमृता जी की हड्डी टूट गई थी जो कभी ठीक नहीं हुई. इस दर्द ने उनका दामन कभी नहीं छोड़ा और न ही इमरोज़ ने उनका साथ छोड़ा. उन्होंने अमृता के इस दर्द को भी अपने प्यार से खूबसूरत बना दिया था. 31 अक्टूबर 2005 में अमृता जी ने आख़िरी सांस ली और अपनी रचनाएँ, अपना प्रेम, अपनी बेबाकी इस दुनिया को याद करने के लिए छोड़ गईं.

ब्लॉग बुलेटिन परिवार की ओर से अमृता प्रीतम जी को विनम्र श्रद्धांजलि सहित आज की बुलेटिन आपके लिए...

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बुधवार, 30 अगस्त 2017

ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…. - शैलेन्द्र और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर्स को सादर नमस्कार।
शैलेन्द्र
शंकरदास केसरीलाल 'शैलेन्द्र' (जन्म: 30 अगस्त, 1923 रावलपिंडी, (पाकिस्तान); मृत्यु: 14 दिसंबर, 1966 मुंबई) हिन्दी फ़िल्मों के एक प्रसिद्ध गीतकार थे। ‘होठों पर सच्चाई रहती है, दिल में सफाई रहती है', 'मेरा जूता है जापानी,' ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ जैसे दर्जनों यादगार फ़िल्मी गीतों के जनक शैलेंद्र ने महान् अभिनेता और फ़िल्म निर्माता राज कपूर के साथ बहुत काम किया

अगस्त सन् 1947 में श्री राज कपूर एक कवि सम्मेलन में शैलेन्द्र जी को पढ़ते देखकर प्रभावित हुए। और फ़िल्म 'आग' में लिखने के लिए कहा किन्तु शैलेन्द्र जी को फ़िल्मी लोगों से घृणा थी। सन् 1948 में शादी के बाद कम आमदनी से घर चलाना मुश्किल हो गया।[1] इसलिए श्री राज कपूर के पास गये। उन दिनों राजकपूर बरसात फ़िल्म की तैयारी में जुटे थे। तय वक्त पर शैलेन्द्र राजकपूर से मिलने घर से निकले तो घनघोर बारिश होने लगी। क़दम बढ़ाते और भीगते शैलेन्द्र के होंठों पर ‘बरसात में तुम से मिले हम सनम’ गीत ने अनायास ही जन्म ले लिया। अपने दस गीत सौंपने से पहले शैलेन्द्र ने इस नए गीत को राजकपूर को सुनाया। राजकपूर ने शैलेन्द्र को सीने से लगा लिया। दसों गीतों का पचास हज़ार रुपये पारिश्रमिक उन्होंने शैलेन्द्र को दिया। नया गीत बरसात का टाइटिल गीत बना[2]। गीत चले, फिर क्या था, उसके बाद शैलेन्द्र जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

कम लोग ये जानते होंगे कि शैलेंद्र ने राजकपूर अभिनीत 'तीसरी कसम' फ़िल्म का निर्माण किया था। दरअसल, शैलेन्द्र को फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफाम' बहुत पसंद आई। उन्होंने गीतकार के साथ निर्माता बनने की ठानी। राजकपूर और वहीदा रहमान को लेकर 'तीसरी कसम' बना डाली। खुद की सारी दौलत और मित्रों से उधार की भारी रकम फ़िल्म पर झोंक दी। फ़िल्म डूब गई। कर्ज़ से लद गए शैलेन्द्र बीमार हो गए। यह 1966 की बात है। अस्पताल में भरती हुए। तब वे ‘जाने कहां गए वो दिन, कहते थे तेरी याद में, नजरों को हम बिछायेंगे’ गीत की रचना में लगे थे। शैलेन्द्र ने राजकपूर से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की। वे बीमारी में भी आर. के. स्टूडियो की ओर चले। रास्ते में उन्होंने दम तोड़ दिया। यह दिन 14 दिसंबर 1966 का था। मौके की बात है कि इसी दिन राजकपूर का जन्म हुआ था। शैलेन्द्र को नहीं मालूम था कि मौत के बाद उनकी फ़िल्म हिट होगी और उसे पुरस्कार मिलेगा।

14 दिसंबर, 1966 को बीमार शैलेन्द्र राजकपूर से मिलने आर.के. स्टूडियो की ओर जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने दम तोड़ दिया। काल के गाल में एक दिन जाना तो सभी को होता है पर शैलेन्द्र जैसे गीतकार के चले जाने से भारतीय सिनेमा में आया ख़ालीपन कभी भी न भर पायेगा। ये जानते हुये भी कि उनके लिखे इन शब्दों का सच होना असंभव है, चलिये एक बार दुहरा लेते हैं उनके उन असंभव शब्दों को -

“ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…..”



आज महान गीतकार शैलेन्द्र जी के 94वें जन्मदिवस पर हम सब उन्हें शत शत नमन करते हैं।  सादर।।


~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~ 





मंगलवार, 29 अगस्त 2017

खेल दिवस पर हॉकी के जादूगर की ब्लॉग बुलेटिन

नमस्कार दोस्तों,
आज पूरा देश राष्ट्रीय खेल दिवस मना रहा है. आज का दिन हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद जी के जन्मदिन पर उनके सम्मान में मनाया जाता है. उनका जन्म 29 अगस्त सन्‌ 1905 ई. को इलाहाबाद में हुआ था. उनको हॉकी का खेल विरासत में नहीं मिला था बल्कि अपनी सतत साधना, अभ्यास, लगन, संघर्ष और संकल्प के सहारे उन्होंने यह प्रतिष्ठा अर्जित की थी. आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे महज 16 वर्ष की अवस्था में दिल्ली में प्रथम ब्राह्मण रेजीमेंट में सेना में एक साधारण सिपाही की हैसियत से भरती हो गए. उनको हॉकी के लिए प्रेरित करने का श्रेय रेजीमेंट के एक सूबेदार मेजर तिवारी को है, जिनकी देख-रेख में ध्यानचंद हॉकी खेलने लगे और एक दिन दुनिया के एक महान खिलाड़ी बन गए. हॉकी में उत्कृष्ट खेल के कारण सेना में उनकी पदोन्नति होती गई. सिपाही से भर्ती होने वाले ध्यानचंद लांस नायक, नायक, सूबेदार, लेफ्टिनेंट, सूबेदार बनते हुए अंत में मेजर बने. यहाँ एक रोचक बात ये है कि उनका मूल नाम ध्यानसिंह था किन्तु उनके रात में चाँद की रौशनी में हॉकी का अभ्यास करने के कारण उनके मित्र उनको चाँद उपनाम से पुकारने लगे. यहीं से उनका नाम ध्यानचंद पड़ गया. इसके साथ-साथ लोग प्यार से उनको दद्दा कहकर भी बुलाते थे.

उनका हॉकी स्टिक और गेंद पर इस कदर नियंत्रण था कि अकसर प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को आशंका होती कि वह जादुई स्टिक से खेल रहे हैं. हॉलैंड में तो चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़ कर देखी भी गई थी. हॉकी खेलने की उनकी कलाकारी से मोहित होकर जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने उन्हें जर्मनी के लिए खेलने की पेशकश भी की थी किन्तु ध्यानचंद ने हमेशा भारत के लिए खेलना ही अपना गौरव समझा. मेजर ध्यानचंद ने अंतर्राष्ट्रीय मैचों सहित अन्य मैचों को मिलाकर 1000 से अधिक गोल किए. उनकी बेहतरीन हॉकी कला के कारण भारतीय टीम ने तीन ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीते. सन 1928 में एम्सटर्डम ओलम्पिक खेलों में पहली बार भारतीय टीम ने भाग लिया. यहाँ भारतीय टीम सभी मुकाबले जीत हॉकी की चैंपियन बनी. सन 1932 में लास एंजिल्स में हुई ओलम्पिक प्रतियोगिताओं में ध्यानचंद ने 262 में से 101 गोल किए. निर्णायक मैच में भारत ने अमेरिका को 24-1 से हरा कर स्वर्ण जीता. इसके बाद सन 1936 के बर्लिन ओलम्पिक में मेजर ध्यानचंद भारतीय टीम के कप्तान बने. फाइनल में भारतीय टीम ने जर्मन टीम को 8-1 से हरा कर स्वर्ण जीता. द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद उन्होंने अप्रैल 1949 ई. को हॉकी से संन्यास ले लिया था. इसके बाद उन्होंने नवयुवकों को गुरु-मंत्र सिखाने शुरू कर दिए और लम्बे समय तक राष्ट्रीय खेलकूद संस्थान (पटियाला) में भारतीय टीमों को प्रशिक्षित करते रहे.


हॉकी के जादूगर और सबके लोकप्रिय दद्दा को सन 1956 में भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया. सन 1980 में मरणोपरांत उनके सम्मान में भारत सरकार ने डाक टिकट का प्रकाशन करवाया. 3 दिसंबर 1979 को दिल्ली में उनका निधन हो गया. उनका अंतिम संस्कार झाँसी में किसी घाट पर न होकर उस मैदान पर किया गया जहाँ वो हॉकी खेला करते थे.

राष्ट्रीय खेल दिवस की शुभकामनाओं और मेजर ध्यानचंद जी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए आज की बुलेटिन आपके समक्ष प्रस्तुत है....

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सोमवार, 28 अगस्त 2017

राजेन्द्र यादव और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा सादर नमस्कार।
राजेंद्र यादव
राजेंद्र यादव (अंग्रेज़ी:Rajendra Yadav, जन्म: 28 अगस्त 1929 - मृत्यु: 28 अक्टूबर 2013) हिन्दी साहित्य की सुप्रसिद्ध पत्रिका हंस के सम्पादक और लोकप्रिय उपन्यासकार थे। राजेंद्र यादव ने 1951 ई. में आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी) की परीक्षा प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण की। जिस दौर में हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाएं अकाल मौत का शिकार हो रही थीं, उस दौर में भी हंस का लगातार प्रकाशन राजेंद्र यादव की वजह से ही संभव हो पाया। उपन्यास, कहानी, कविता और आलोचना सहित साहित्य की तमाम विधाओं पर उनकी समान पकड़ थी।

हिंदी पत्रिका ‘हंस‘ के 25 साल और हिन्दी साहित्य के ‘द ग्रेट शो मैन‘ राजेंद्र यादव यदि भारत में आज हिन्दी साहित्य जगत् की लब्धप्रतिष्ठित पत्रिकाओं का नाम लिया जाये तो उनमें शीर्ष पर है-हंस और यदि मूर्धन्य विद्वानों का नाम लिया जाय तो सर्वप्रथम राजेंद्र यादव का नाम सामने आता है। साहित्य सम्राट प्रेमचंद की विरासत व मूल्यों को जब लोग भुला रहे थे, तब राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद द्वारा 1930 में प्रकाशित पत्रिका ‘हंस’ का पुर्नप्रकाशन आरम्भ करके साहित्यिक मूल्यों को एक नई दिशा दी। अपने 25 साल पूरे कर चुकी यह पत्रिका अपने अन्दर कहानी, कविता, लेख, संस्मरण, समीक्षा, लघुकथा, ग़ज़ल इत्यादि सभी विधाओं को उत्कृष्टता के साथ समेटे हुए है। ‘‘मेरी-तेरी उसकी बात‘‘ के तहत प्रस्तुत राजेंद्र यादव की सम्पादकीय सदैव एक नये विमर्श को खड़ा करती नज़र आती है। यह अकेली ऐसी पत्रिका है जिसके सम्पादकीय पर तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाएं किसी न किसी रूप में बहस करती नजर आती हैं। समकालीन सृजन संदर्भ के अन्तर्गत भारत भारद्वाज द्वारा तमाम चर्चित पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं पर चर्चा, मुख्तसर के अन्तर्गत साहित्य-समाचार तो बात बोलेगी के अन्तर्गत कार्यकारी संपादक संजीव के शब्द पत्रिका को धार देते हैं। साहित्य में अनामंत्रित एवं जिन्होंने मुझे बिगाड़ा जैसे स्तम्भ पत्रिका को और भी लोकप्रियता प्रदान करते है। कविता से लेखन की शुरूआत करने वाले हंस के सम्पादक राजेंद्र यादव ने बड़ी बेबाकी से सामन्ती मूल्यों पर प्रहार किया और दलित व नारी विमर्श को हिन्दी साहित्य जगत् में चर्चा का मुख्य विषय बनाने का श्रेय भी उनके खाते में है। निश्चिततः यह तत्व हंस पत्रिका में भी उभरकर सामने आता है। आज भी ‘हंस’ पत्रिका में छपना बड़े-बड़े साहित्यकारों की दिली तमन्ना रहती है। न जाने कितनी प्रतिभाओं को इस पत्रिका ने पहचाना, तराशा और सितारा बना दिया, तभी तो इसके संपादक राजेंद्र यादव को हिन्दी साहित्य का ‘द ग्रेट शो मैन‘ कहा जाता है। निश्चिततः साहित्यिक क्षेत्र में हंस एवं इसके विलक्षण संपादक राजेंद्र यादव का योगदान अप्रतिम है।




आज राजेन्द्र यादव जी के 88वें जन्मदिवस पर हम सब उनका स्मरण करते हुए उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। सादर ... अभिनन्दन।।


~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~















आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे। तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर .... अभिनन्दन।। 

रविवार, 27 अगस्त 2017

ऋषिकेश मुखर्जी और मुकेश - ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर्स को मेरा सादर नमस्कार।
ऋषिकेश मुखर्जी

मुकेश
आज हिंदी फिल्म जगत के दो महान कलाकारों की पुण्यतिथि है एक हैं महान फिल्म निर्माता- निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी और दूसरे हैं महान गायक मुकेश। हिंदी फिल्म जगत में इन दोनों ही महान शख्सियतों ने अपना अतुलनीय और सराहनीय योगदान दिया। ऋषिकेश मुखर्जी और मुकेश ने एक साथ केवल दो फिल्मों में काम किया है और वो फिल्म है अनाड़ी (1959) और आनंद(1971)। इन दोनों ही फिल्म के गाने उस दौर में काफी प्रसिद्ध हुए थे। अनाड़ी (1959) फिल्म का गीत "सब कुछ सीखा हमने" और आनंद(1971) फिल्म के दो गीत "मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने, सपने सुरीले सपने" तथा "कहीं दूर जब दिन ढल जाएँ"। अनाड़ी (1959) फिल्म के गीत "सब कुछ सीखा हमने" के लिए मुकेश जी को 1959 के सर्वश्रेष्ठ गायक का फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी मिला था। जबकि ऋषिकेश मुखर्जी जी को फिल्म आनंद(1971) के लिए सर्वश्रेष्ट कहानी और बेस्ट एडिटिंग का फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला था। इन दोनों ने ही हिंदी फिल्म जगत को असीम ऊँचाइयों तक पहुँचाया।


आज इनकी पुण्यतिथि पर पूरा हिंदी ब्लॉग जगत और हमारी ब्लॉग बुलेटिन टीम इन्हें नमन करती है और हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करती है।


~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~















आज की बुलेटिन में सिर्फ इतना ही। कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर  … अभिनन्दन।।

शनिवार, 26 अगस्त 2017

महिला समानता दिवस और ब्लॉग बुलेटिन

हिन्दी ब्लॉगर्स को मेरा सादर नमस्कार।
महिला समानता दिवस

महिला समानता दिवस (अंग्रेज़ी: Women's Equality Day, प्रत्येक वर्ष '26 अगस्त' को मनाया जाता है। न्यूजीलैंड विश्व का पहला देश है, जिसने 1893 में महिला समानता की शुरुआत की। भारत में आज़ादी के बाद से ही महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त तो था, लेकिन पंचायतों तथा नगर निकायों में चुनाव लड़ने का क़ानूनी अधिकार 73वे संविधान संशोधन के माध्यम से स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के प्रयास से मिला। इसी का परिणाम है कि आज भारत की पंचायतों में महिलाओं की 50 प्रतिशत से अधिक भागीदारी है।



~ आज कि बुलेटिन कड़ियाँ ~  















आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर ... अभिनन्दन।। 

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

गणेश चतुर्थी और ब्लॉग बुलेटिन

नमस्कार दोस्तो,
आप सभी को गणेश चतुर्थी की शुभकामनायें.

गणेश चतुर्थी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है. वैसे तो यह सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है किन्तु महाराष्ट्र में इसे बडी़ धूमधाम से मनाया जाता है. पुराणों के अनुसार इसी दिन आदिदेव  श्री गणेश जी का जन्म हुआ था. इस अवसर पर हिन्दू लोग भगवान गणेश की पूजा करते हैं. भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी भी कहते हैं. इसी दिन से नगर-नगर प्रमुख स्थानों पर भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित की जाती है. हिन्दू पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास की चतुर्थी से चतुर्दशी तक दस दिनों तक चलता है. दस दिनों तक चलने वाले इस महोत्सव को गणेशोत्सव भी कहा जाता है. दस दिन तक चलने वाले धार्मिक अनुष्ठान के पश्चात् गाजे-बाजे के साथ श्री गणेश की प्रतिमा को जल में विसर्जित किया जाता है. 


 शुभकामनाओं सहित आज की बुलेटिन आपके समक्ष प्रस्तुत है... 

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गुरुवार, 24 अगस्त 2017

क्रांतिकारी महिला बीना दास जी को नमन - ब्लॉग बुलेटिन

नमस्कार साथियो,
आज, 24 अगस्त को भारतीय महिला क्रांतिकारी बीना दास जी का जन्मदिन है. उनका जन्म आज के दिन सन 1911 ई. को कृष्णानगर, बंगाल में हुआ था. उनके पिता बेनी माधव दास प्रसिद्ध अध्यापक थे. नेताजी सुभाषचन्द्र बोस उनके छात्रों में से थे. बीना दास जी की माता सरला दास निराश्रित महिलाओं के लिए पुण्याश्रम नामक संस्था बनाकर काम करती थीं. ब्रह्मसमाज का अनुयायी यह परिवार शुरू से ही देशभक्ति से ओत-प्रोत था. इसका प्रभाव बीना दास और उनकी बड़ी बहन कल्याणी दास पर भी पड़ा.

सन 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के समय बीना ने कक्षा की कुछ अन्य छात्राओं के साथ अपने कॉलेज गेट पर धरना दिया. इसके बाद वे युगांतर दल के क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आईं. फ़रवरी 1932 को विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बीना दास को बी.ए. की अपनी डिग्री लेनी थी. उन्होंने अपने साथियों से परामर्श करके तय किया कि डिग्री लेते समय वे दीक्षांत भाषण देने वाले बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन को अपनी गोली का निशाना बनाएंगी. दीक्षांत समारोह में जैसे ही गवर्नर ने भाषण देना आरम्भ किया बीना दास ने तेजी से गवर्नर के सामने जाकर रिवाल्वर से गोली चला दी. गवर्नर के हिलने-बचने के कारण निशाना चूक गया और वह बच गया. बीना दास को वहीं पर पकड़ लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया. मुक़दमे की कार्यवाई एक ही दिन में पूरी करके उनको नौ वर्ष की कड़ी क़ैद की सज़ा दी गई. पुलिस द्वारा बहुत सताए जाने के बाद भी उन्होंने अपने साथियों के नाम नहीं बताये. सन 1937 में जब कई प्रान्तों में कांग्रेस सरकार बनी तो अन्य राजबंदियों के साथ उनको भी जेल से रिहा किया गया. इसके बाद उनको पुनः भारत छोड़ो आन्दोलन के समय तीन वर्ष के लिये नज़रबन्द कर लिया गया. वे सन 1946 से सन 1951 तक बंगाल विधानसभा की सदस्य भी रहीं.

देश को आज़ादी दिलाने वाली और वीर क्रांतिकारियों में गिनी जाने वाली बीना दास जी का निधन 26 दिसम्बर 1986 ई. को ऋषिकेश में हुआ. 

बीना दास जी के साथ-साथ आज भारतीय स्वातंत्र्य इतिहास के एक और अमर सेनानी राजगुरु जी का भी जन्मदिन है. शिवराम हरि राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को पुणे महाराष्ट्र में हुआ था. वे सरदार भगत सिंह और सुखदेव के घनिष्ठ मित्र थे. इस मित्रता को राजगुरु ने मृत्युपर्यंत निभाया. आज़ादी की लड़ाई में राजगुरु को भगत सिंह और सुखदेव के साथ ही 23 मार्च 1931 को लाहौर में फांसी दी गई थी. इन तीनों मित्रों की शहादत आज भी भारत के युवकों को प्रेरणा देती है.

दोनों वीर-वीरांगना की जन्मतिथि पर बुलेटिन परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि सहित आज की बुलेटिन आपके समक्ष.... 

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बुधवार, 23 अगस्त 2017

बलराम जाखड़ और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा सादर नमस्कार।
बलराम जाखड़
बलराम जाखड़ (अंग्रेज़ी: Balram Jakhar, जन्म: 23 अगस्त, 1923; मृत्यु- 3 फ़रवरी, 2016) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष हैं। वे मध्य प्रदेश राज्य के राज्यपाल भी रहे हैं। डॉ. बलराम जाखड़ ने सातवीं लोक सभा के लिए अपने सर्वप्रथम निर्वाचन के तुरन्त बाद अध्यक्ष पद प्राप्त करके अपने संसदीय जीवन की शुरूआत करने का गौरव प्राप्त किया। उन्हें लगातार दो बार लोक सभा में पूर्ण अवधि के लिए सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने जाने का अनूठा सम्मान भी प्राप्त हुआ। कृषक से राजनीतिज्ञ बने बलराम जाखड़ ने लोकसभा अध्यक्ष पद की चुनौतियों का पूरी जीवंतता से मुकाबला किया और पूर्ण गरिमा, शालीनता और निष्पक्षता से सभा की कार्यवाही का संचालन किया। उन्होंने अपने दल में सक्रिय भूमिका निभाने तथा इसके जरिए देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में सक्रिय बने रहने के लिए वर्ष 1989 में अध्यक्ष पद का त्याग कर दिया।



आज बलराम जाखड़ जी की 96वीं जयंती पर हम सब उन्हें शत शत नमन करते हैं।


~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~ 













आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर ... अभिनन्दन।। 

मंगलवार, 22 अगस्त 2017

झूठमूठ के आदर्श हताश कर जाते हैं !




हताशा भरी बातें शायद हौसला दे भी जाए
झूठमूठ के आदर्श हताश कर जाते हैं !
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शिशुपाल वध , माघ और मैं...... - डायरी के पन्ने - blogger

जानेमन क्या कमाल करती हो
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चूल्हे से सिलवट पर जाओ
चौखट पर दाने डाले हैं बीन के लाओ
जाओ चमका दो कलछुल का काला हिस्सा
घिसो पीसो बारीक काम का हो तुम किस्सा
आटे में मोयन डालो
बक्से में नीम डाल दो
धूप धूप गेहूं सुखवाओ
छांव छांव परिवार बचाओ
हाँ बचने से याद आ गया
तुम बचना मत
खप जाना पूरी की पूरी
घर आँगन की तुम हो धुरी
बैठो मत परदे झूले से लटक रहे हैं
तान दो उसको
दूध भगोना खुरच खुरच कर बांटो सबको
जावन के जीतनी तुम बचना
उतने से सब बच जायेंगे
घर परिवार तुम्हारा
तुम घर की महारानी
मिटटी के गगरे में जैसे ठंढा पानी
वैसे ही भर जाओ तुम भी
रात आखिरी बत्ती के बुझ जाते
तुम जल जाती हो
माला फेरो छाती से साडी खिस्काओ
सांस सांस सिसकी रोको या फूट पड़ो तुम
दीवारो पर लिखी इबारत ऐतिहासिक है
बदल नही पाओगी कुछ भी
सोचो फिर चावल में कितना पानी होगा
आटे में तुम नमक बनो
बेटा ही जनना
तुम देवी रानी महारानी कल्याणी हो
औरत हो औरत ही रहना
कभी नही इंसा तुम बनना
जाओ चूल्हे सिलबट्टे पर अपनी किस्मत लिखो
जलो मरो या तुम खप जाओ
चिठ्ठी भी बेरंग तुम्हारी
कोई नही छुड़ाने वाला
अपने हिस्से के पिंजरे में दाना छीटों
जाओ चौखट तक जाओ
चिड़िया के दाने से सपने पड़े हुए हैं
चुन कर ले आओ
आओ चूल्हे पर खौलो खेलो पक जाओ ..
औरत हो सपनों के सूखे कण्डे से आग जलाओ
कथा कहानी कविता में लिखी जाओगी ......

कैसे लूँ विदा - रेल हादसा - Sudhinama - blogger


सोमवार, 21 अगस्त 2017

उस्ताद बिस्मिला खां और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा सादर नमस्कार।
उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ (जन्म: 21 मार्च, 1916 - मृत्यु: 21 अगस्त, 2006) हिन्दुस्तान के प्रख्यात शहनाई वादक थे। उनका जन्म डुमराँव, बिहार में हुआ था। सन् 2001 में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। वे तीसरे भारतीय संगीतकार थे जिन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया है।

बिस्मिल्ला खाँ साहब का जन्म बिहारी मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खाँ और मिट्ठन बाई के यहाँ बिहार के डुमराँव के ठठेरी बाजार के एक किराए के मकान में हुआ था। उनके बचपन का नाम क़मरुद्दीन था। वे अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे।: चूँकि उनके बड़े भाई का नाम शमशुद्दीन था अत: उनके दादा रसूल बख्श ने कहा-"बिस्मिल्लाह!" जिसका मतलब था "अच्छी शुरुआत! या श्रीगणेश" अत: घर वालों ने यही नाम रख दिया। और आगे चलकर वे "बिस्मिल्ला खाँ" के नाम से मशहूर हुए। पूरा लेख यहाँ पढ़े .......


आज उस्ताद बिस्मिल्ला खां साहब जी की 11वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम सब उन्हें शत शत नमन करते हैं। 


~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~
















आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर  ..... अभिनन्दन।।

रविवार, 20 अगस्त 2017

गुरुदेव ऊप्स गुरुदानव - ब्लॉग बुलेटिन विशेष

हर साल सिच्छक दिबस पर हमलोग अपना प्रिय सिच्छक को इयाद करते हैं अऊर उनको नमन करते हैं. ओइसहीं जब कभी आपके सामने अपना पहिला इस्कूल का नाम आता है, त आप उस समय के इयाद में खो जाते हैं अऊर बहुत सा लोग के मुँह से त अनायास निकल जाता होगा कि कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन! लेकिन एगो अदमी अइसा भी है, जिसके मन में अपना एगो सिच्छक के लिये कोई भी श्रद्धा नहीं है अऊर उसके लिये सिच्छक दिबस का कोई मतलब नहीं. ओइसहीं इस्कूल का मतलब उसके लिये कुछ भी इयाद करने जैसा नहीं. हाँ, ऊ अपने बेटा का सिच्छक अऊर बेटा का इस्कूल को लेकर बहुत इमोसनल हो जाता है, लेकिन अपना तो सपना में भी नहीं.

एगो औरत जो अपना पाँच बच्चा लोग को बहुत मिहनत से पढाती है, ताकि उसके कम पढ़े-लिखे होने का उलाहना कोई भी उसके बच्चों को नहीं दे सके. हर महीना, बच्चा लोग के इस्कूल में फीस जमा करने जाती है, इसलिए नहीं कि बच्चा सब फीस के पैसा से सिनेमा देख जाएगा, बल्कि इसलिए कि इस्कूल के टीचर से मिलकर बच्चा लोग का सही प्रोग्रेस पता चलता रहेगा अऊर बच्चा लोग के मन में माँ का डर भी बना रहेगा. ओही औरत एक रोज साम को जब बच्चा रोता हुआ लौटा तो पागल हो गई. कारण पूछी त बच्चा अपना कमीज उतारकर देखा दिया. पीठ पर बेल्ट से मारे जाने का निसान था.

ऊ औरत बच्चा को लेकर इस्कूल गई अऊर हेडमास्टर से सिकायत करते हुए पुलिस में सिकायत करने का धमकी दी. टीचर को बुलाया गया, ऊ सबके सामने माफी माँगा. लेकिन ऊ बच्चा के मन में सिच्छक अऊर इस्कूल के प्रति मंदिर अऊर भगवान वाला भ्रम टूट गया. आपको ई बात हो सकता है कहानी जइसा लगे, बाकी घटना सोलहो आने सच है. ऊ बच्चा है हमारा छोटा भाई, जिसके मन से सिच्छक-छात्र चाहे गुरु-सिस्य वाला रिस्ता का मतलबे खतम हो गया.


कल अचानक व्हाट्स-ऐप्प पर एगो वीडियो दिन भर में तीन चार बार अलग –अलग जगह से मिला. रात को फुर्सत से देखने का मौक़ा मिला. वीडियो में एगो चार-पाँच साल का बच्ची को उसकी टीचर पढ़ा रही है एक से पाँच तक का गिनती. लेकिन ऊ बच्ची का दहसत देखकर लगता है कि एकदम खौफ के साया में ऊ पढाई कर रही है. टीचर का डांटना अऊर बच्ची का भयानक तरीका से डर के मारे आया हुआ पढाई भी भुला जाना, देखकर मन ख़राब हो जाता है. बीच-बीच में ऊ बच्ची अपना दाँत भी पीसते जाती है, लेकिन कुल मिलाकर ऊ वीडियो अइसा खराब असर पैदा कर रहा है कि का कहें.

सिच्छक के बारे में का मालूम केतना अच्छा-अच्छा बात कहा गया है, जिसका काम होता है कुम्हार के तरह अंदर से हाथ लगाकर सहारा देना अऊर बाहर से थपकी देकर बच्चे का कच्चा मिट्टी से खूबसूरत कलात्मक बर्तन तैयार करना. अइसा परिस्थिति में ऊ टीचर को का कहा जाए जिसके बारे में हम पहले लिखे हैं. अइसा सिच्छक को जल्लाद अऊर इस्कूल को कत्लखाना कहने से तनिको परहेज नहीं होना चाहिए.

देस का भविष्य एही बच्चा लोग के हाथ में है, जिनका निर्माण एही सिच्छक लोग करते हैं, लेकिन अइसा टीचर जब पढ़ाएगी अऊर पढाई के नाम पर ऐसा भयानक माहौल बच्चा के मन मस्तिस्क पर बनेगा त भविष्य का चिंता करने का जरूरत नहीं है, ऊ त डरावना होबे करेगा.

गीता में किसन भगवान अर्जुन को जब सिच्छा दे रहे होते हैं त उनका उद्देस खाली अर्जुन को जुद्ध के लिये तैयार करना नहीं था, ऊ त अर्जुन को आदेस देकर भी समझाया जा सकता था, लेकिन भगवान किसन महाराज का कोसिस था कि अर्जुन का ज्ञान चक्छू खोलकर उसको अपना स्तर तक लेकर आना अऊर एही हर टीचर का उद्देस होना चाहिए.

एगो राजा के राज्य में एगो मिस्त्री था जो तलवार आदि औजार बनाता था. मिस्त्री का एक भरोसेमंद चेला था. मिस्त्री जब बूढ़ा हो गया त उसको अपना उत्तराधिकारी का चिंता नहीं था, ऊ सिस्य को तैयार कर दिया था. एक दिन ऊ मिस्त्री एगो तलवार ढाल रहा था. गरम पिघला हुआ लोहा भट्ठी से निकालकर रखा अऊर अपने सिस्य को बोला कि बेटा, जैसे ही हम सिर हिलाएँ, कसकर पूरे जोर से हथौड़े को जमकर मारना. मिस्त्री ने गर्म लोहे को ठीक से रखा और सिर हिलाया. सिस्य ने जमकर हथौड़ा मिस्त्री के सिर पर दे मारा. आज ऊ सिस्य राज्य का मुख्य मिस्त्री है.

शनिवार, 19 अगस्त 2017

नाम का औरा लिए चेहरों को पढ़ती हूँ




एक नदी 
शताब्दियों का उत्तरार्ध लिए 
वर्तमान के आगे बहती है 
मैं किसी साधक की तरह 
उस जल से आचमन करती हूँ 
नाम का औरा लिए चेहरों को पढ़ती हूँ 
सूर्योदय सूर्यास्त के मध्य 
उनमें ध्यानावस्थित होती हूँ 
रात्रि के चौथे प्रहर में उनसे रूबरू होती हूँ 

... 

सुकून/चैन कहीं नहीं,
भटकाव/ठहराव-
एक खोज,
सतत चलते रहना-
श्वांस चलने तक..

बेचैन आत्मा: नदी


छोले भठूरे के साथ सी,
कहानी तेरी मेरी.
तू सादा, सफ़ेद, फूला हुआ, 
मैं मसालेदार,तीखी, चटपटी. 
तेरे बिना भी मेरा अस्तित्व है, 
पर मेरे बिना तू कुछ भी नहीं.

तुम उम्र का हिसाब पूछते हो / मैं बेहिसाब ढलान से उतर रही /तन्हाई की उम्र नही
आज कल एडियों में एक दर्द कसकता है
ज्यदा देर खड़ी रहूँ तो झुक झुक जाती है कमर
बड़ी तेज़ी से उड़ कर दूर चला जाता है परिंदा
नजर के धुंधलके में मैं उसके नाम का होना तय करती हूँ
परछाइयों में काँपता है अतीत आजकलकाले घेरे से घिरी रौशनी टटोलती हूँ
उम्र के बदलने से नही बदल गया मेरी पसंद का गाना
करवटें बदलते रहे पर एक उजास से भर जाता है उदास चेहरा
आज कल बड़ी और बड़ी होने के क्र्म में
मैं छोटी चीजों को घबरा कर पकड़ लेती हूँ
सुई के छेद से आर पार चली जाती है मेरी नजर धागे लकवे के हाथ सा झूल जाते है बहुत छोटी सी कलाई घड़ी की टिकटिक में नया समय चल रहा है
सांस तेज़ है मेरी ,निगाह किसी पुराने कलेंडर का एक रोचक महिना पलट देती है
मैं ट्रेन में हूँ ,मैं साड़ी में हूँ ,मैं कुछ रिश्तो के साथ बंधी हूँ मैं इसकी हूँ ,उसकी हूँ ,मैं मैं नही हूँ
मैं अब अपनेा साथ हूँ झूरियो में सिमट गई यात्रतों ने मुझे यहाँ रोक दिया है
मैं इसकी नही उसकी नही बंधी नही मैं खुली किताब सी एक कबाड़ी के तराजू पर डाल दी जाउंगी
मैं जिल्द की कॉपी से निकल जाउंगी
मैं कोरी हूँ मैं कविता हूँ लिखी जाउंगी......