नमस्कार
दोस्तो,
देश
की सीमा पर पाकिस्तानी सेना का उत्पात उसकी आदत के अनुसार चल रहा है. देश की सीमा
के भीतर जम्मू-कश्मीर में पत्थरबाजों की हरकतें जारी हैं तो नक्सलियों की
हिंसात्मक गतिविधियाँ भी चल रही हैं. इन सबके बीच आमजन की तरफ से सबको मटियामेट कर
देने के लिए आवाजें उठ रही हैं. पाकिस्तान को उसकी बर्बरता का यथोचित जवाब न देने
के केंद्र सरकार को सोशल मीडिया पर अपशब्दों सहित आक्रोश का सामना करना पड़ रहा है.
पता नहीं इस आक्रोश का कितना हिस्सा सरकार तक पहुँच रहा है किन्तु सत्यता यह है कि
आम जनमानस में आक्रोश बहुत ज्यादा है. सरकार को तमाम मंचों से सलाह दी जा रही है
कि वह अमेरिका, फ़्रांस, जर्मनी, इजराइल जैसी नीति अपनाकर अपने दुश्मनों का सफाया
करे.
सही बात है, दुश्मनों के सफाए के लिए कठोर नीति का बनाया जाना आवश्यक है
किन्तु क्या एक पल को सोचा गया है कि क्या इन देशों में कभी ऐसा होता देखा गया है
कि
यहाँ
के किसी नेता ने दूसरे देश के टीवी पर सार्वजनिक रूप से अपने राष्ट्राध्यक्ष को हटाने
सम्बन्धी मदद मांगी हो?
इन
देशों के भीतर इसी देश से आज़ादी पाने के नारे लगे हों?
इनके
साहित्यकारों ने अकारण सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए पुरस्कार वापसी जैसा कोई कदम
उठाया?
यहाँ
जब भी विरोधी देशों पर, आतंकवाद पर कार्यवाही की गई तो विपक्षी
दलों ने सरकार से उसके सबूत मांगे हों?
यहाँ
किसी नेता ने, किसी बुद्धिजीवी ने किसी आतंकी को अपना भाई कहा
हो? भटका नौजवान कहा हो?
यहाँ
के किसी भी राज्य के नागरिक अपनी ही सेना पर पत्थर बरसाते हों?
देश
के भीतर उसी देश का राष्ट्रीय ध्वज जलाया जाता हो?
अपनी
ही बेटी को आतंकियों द्वारा अपहृत करवाकर उनके लिए अपने ही घर से खाना भिजवाया
जाता हो?
शायद
हम में से किसी ने भी इन देशों में ऐसा माहौल नहीं देखा होगा. हमारा देश ही
एकमात्र ऐसा देश है जहाँ देश के भीतर उपद्रव करने वालों को भटका नौजवान कहकर गले
लगाया जाता है. वीर सैनिकों को धोखे से मारने वालों को मासूम वनवासी कहकर एक और
हमले के लिए प्रोत्साहित कर दिया जाता है. सेना की कार्यवाही का सबूत माँगा जाने
लगता है. एक व्यक्ति की मौत पर देश भर में असहिष्णुता बढ़ने लगती है. लोगों की
पत्नियों को डर लगने लगता है. देश छोड़ने की बातें होने लगती हैं. बुद्धिजीवी
अपने-पाने घरौंदों से बाहर आकर पुरस्कार वापसी में लग जाते हैं.
सोचिये
ऐसे माहौल में सरकार, सेना, सैनिक किससे लड़ें? देश के बाहर के दुश्मनों से या फिर
देश के भीतर छिपे दुश्मनों से? ऐसे माहौल में जब देश के टुकड़े करने वाले नारों पर,
आज़ादी तक संघर्ष करने के नारों तक, आतंकवादी के पक्ष में लगते नारों के समर्थन में
संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति आ जाये, देश की पुरानी पार्टी का दम भरने वालों के
पदाधिकारी आ जाएँ तो स्थिति की भयावहता का अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है. ऐसे भयावह
माहौल में अब जबकि सैनिक आये दिन शहीद हो रहे हैं, घुसपैठ बराबर हो रही है, घाटी
में हिंसा जारी है, सेना पर पत्थरबाजी लगातार चल रही है किसी को असहिष्णुता नहीं
दिख रही है, किसी की बीवी को डर नहीं लग रहा है, कोई देश छोड़ने की बात नहीं कर रहा
है. फिर सोचिये एक पल को कि अचानक ये सब रुक गया और क्या शुरू हो गया? नक्सली हमला,
पाकिस्तानी सेना का कायरानापन, घाटी की पत्थरबाज़ी, सेना के साथ दुर्व्यवहार. आखिर
इन सबका एकसाथ चलने के पीछे का कारण क्या है? इन सबके मूल में क्या है? कहीं वे तो
नहीं जिनके लिए आतंकी के लिए देर रात अदालत चलाई जा सकती है? कहीं वे तो नहीं
जिनके लिए आतंकी भटके हुए भाई हैं? कहीं वे तो नहीं जिनके लिए देश के टुकड़े होने
वाले नारों का समर्थन किया जाता है?
सोचिये,
सोचिये और आइये आज की बुलेटिन की तरफ.
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सोचना जरूरी है। सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमेरी पोस्ट सम्मिलित करने के लिये आभार।
जवाब देंहटाएंबाहरी दुश्मनों के निपटना उतना कठिन नहीं होता जितना की भीतरी सपोलों से
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति
पोस्ट सम्मिलित करने के लिये आभार।
जवाब देंहटाएं'अमर शहीद ऊधाम सिंह' को शामिल करने के लिए धन्यवाद.
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