रोज नई उम्मीदों के पानी से
खुद को मथती हूँ
आग जलाकर
खुद को आकार देकर
तवे पर रखती हूँ
पलटती हूँ
जरा सा ध्यान भटका
जल जाती हूँ
झल्लाते हुए झाड़ती हूँ
...
भूख किसी तरह मिटाकर
अगले दिन की बेहतरी की उम्मीद लिए
सो जाती हूँ ...
मृग्ाया...... - रूप-अरूप - blogger
रोज मरते हैं रोशनी के लिए
अंधेरों की हमको फिक्र है कहाँ ?
फूलों की बात तो हर जुबाँ पर है
टहनी के उगे काँटों का जिक्र है कहाँ ?
पल-पल और घना हो रहा है सूनापन
खुश्क हवाओं के थपेड़ों से रीतापन.
मुर्दा जिस्मों की आवाज एक आहट है
बिना सुने कब से पहरा देता है मन.
सांस एक फन्दा है,जिंदगी का गला है
बीते पल मुजरिम हैं,कैसा अजीब फैसला है.
रात की इस कहानी में, हिज्र है कहाँ,
रोज मरते हैं रोशनी के लिए
अंधेरों की हमको फिक्र है कहाँ ?
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसादर
बढ़िया बुलेटिन।
जवाब देंहटाएंसार्थक !संकलन ,आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
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