पुस्तक मेला के दौरान एक रोज दोस्त चैतन्य आलोक से बात हो रही थी, तो उन्होंने
बताया कि राज्य सभा टीवी पर “कविता कोष” के संस्थापक ललित कुमार जी
का इंटरव्यू आ रहा था. इंटरनेट पर
इतना सारा लिखा पढ़ा जा रहा है और उसके बाद अब उन सभी लेखक-कवियों की किताबें भी छपने लगी है. इस पर ललित जी ने कहा कि इन रचनाओं की गुणवत्ता के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वहाँ से “संपादन” यानि एडिटिंग समाप्त हो गई है. याद आया कि यही बात हमारे बड़े भाई राजेश उत्साही जी ने भी एक बार कही थी. कहानी-कविता इकट्ठा करके, किताब की शक्ल में छाप देना संपादन नहीं हो सकता.
इतना सारा लिखा पढ़ा जा रहा है और उसके बाद अब उन सभी लेखक-कवियों की किताबें भी छपने लगी है. इस पर ललित जी ने कहा कि इन रचनाओं की गुणवत्ता के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वहाँ से “संपादन” यानि एडिटिंग समाप्त हो गई है. याद आया कि यही बात हमारे बड़े भाई राजेश उत्साही जी ने भी एक बार कही थी. कहानी-कविता इकट्ठा करके, किताब की शक्ल में छाप देना संपादन नहीं हो सकता.
टीवी से लेकर समाचार पत्र या पत्रिका तब तक प्रभावशाली नहीं हो सकती, जबतक
उसका संपादन कसा हुआ नहीं हो. पत्रिका में मिज़ाज के हिसाब से रचना का चुनाव, उनका
क्रम, पत्रिका का कलेवर, सम्पादकीय... ये सब इतना आसान नहीं है. आज भी कितनी सारी
पत्रिकाएं (नंदन, पराग, कादम्बिनी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, दिनमान) अपनी
सामग्री के अलावा उनके संपादकों के नाम से याद की जाती है. धर्मवीर भारती,
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कन्हैया लाल नंदन, मनोहर श्याम जोशी, राजेन्द्र अवस्थी,
मृणाल पाण्डे ऐसे ही कुछ नाम हैं, जो बतौर साहित्यकार तो अपना एक स्थान रखते ही
हैं, एक संपादक के तौर पर भी उनका मुकाम उसी बुलंदी पर रहा है.
फिल्मों में संपादन के महत्व को नकारा जा ही नहीं सकता है. किसी फ़िल्म से
एडिटिंग को निकाल दीजिए, तो पूरी फ़िल्म एक कांच के घरौंदे की तरह गिरकर चूर-चूर हो
जाएगी. आम तौर पर लोगों में यह प्रचलित धारणा है कि फ़िल्म एडिटर का काम अलग-अलग
फिल्माए हुए दृश्यों को पटकथा के हिसाब से जोड़ देना है, जबकि यह काम इससे कहीं
ज़्यादा मुश्किल है. फ़िल्म की गति बनाए रखना, फिल्मांकन की कलात्मकता को उभारना,
निर्देशक की सोच को हू-ब-हू प्रस्तुत कर पाना, बेकार के दृश्यों को निकालना और
दृश्यों को उनके प्रभाव के हिसाब से आगे पीछे बिठाना, यह सब एडिटर की जिम्मेवारी
है. कई बार पूरी फ़िल्म की शूटिंग समाप्त हो जाने के बाद भी सिर्फ एडिटर के कहने पर
कुछ नए दृश्यों को अलग से शूट करना पड़ा है, क्योंकि फ़िल्म की गति के लिये उनका
होना ज़रूरी लग रहा होता है एडिटर को.
फ़िल्म के विभिन्न पहलुओं की चर्चा करते हुए हमने कभी इस एडिटर के बारे में
सोचा ही नहीं. आपसे नाम लेने को कहा जाए, तो बमुश्किल कोई एक नाम आप गिना पाएंगे.
याद कीजिये सीरियल “करमचंद” जो दो पंकज (निर्देशक पंकज पाराशर और
अभिनेता पंकज कपूर) के लिये भले याद किया जाता हो, लेकिन सीरियल की लोकप्रियता
का एक पहलू ए.के.बीर के अनोखे कैमरा ऐंगल और आफाक़ हुसैन की ज़बरदस्त
एडिटिंग थी.
एक नज़र पुरानी फिल्मों पर डालें तो पाएंगे कि सारे अच्छे निर्देशक, बेहतरीन एडिटर
भी रहे हैं. हृषिकेश मुखर्जी साहब को कौन नहीं जानता... उनकी निर्देशित
फ़िल्में यादगार हैं. लेकिन वे इसलिए यादगार हैं कि उनकी एडिटिंग कमाल की थी. उन्हें
नौकरी, मधुमती, आनन्द जैसी फिल्मों के लिये सर्वश्रेष्ठ संपादक का पुरस्कार मिला.
ऐसे ही एक निर्देशक और एडिटर थे विजय आनन्द. एक बेहतरीन एडिटर और उतने
ही ख़ूबसूरत निर्देशक. फ़िल्म तीसरी मंजिल, गाइड, ज्यूल थीफ और जॉनी मेरा नाम में ओ
हसीना जुल्फों वाली, काँटों से खींचके ये आँचल, होठों में ऐसी बात और पल भर के
लिये कोई हमें प्यार कर ले का फिल्मांकन हो या इन्हीं फिल्मों की एडिटिंग जो आपको
आख़िरी पल तक कुर्सी से बांधकर रखती है वो भी दम साधे हुए. फ़िल्म गाइड तो अपने आप में
एक मील का पत्थर है और इसे उस मुकाम पर पहुंचाने वाला केवल एक शख्स था – विजय आनन्द,
जिन्हें प्यार से लोग गोल्डी कहते थे. एक दीक्षित ओशो सन्यासी का सम्पूर्ण प्रभाव
फ़िल्म गाइड की पटकथा और संवाद पर दिखाई देता है और यही कारण है कि इस फ़िल्म ने
उन्हें सर्वश्रेष्ठ संवाद और निर्देशन का फिल्मफेयर पुरस्कार दिलवाया.
अभिनय के मामले में वो बहुत सफल नहीं रहे. लेकिन कुछ बहुत ही अच्छी फ़िल्में
उन्होंने ज़रूर कीं – कोरा कागज़, मैं तुलसी तेरे आँगन की, तेरे मेरे सपने और कुछ
दूसरी फ़िल्में ज़रूर बतौर अभिनेता की उन्होंने. लेकिन आज भी फ़िल्म उद्योग के कुछ
गिने चुने एडिटर्स में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है.
साल २००७ में बनी फ़िल्म “जॉनी गद्दार” उनको समर्पित की गई श्रीराम राघवन
द्वारा. यह एक बहुत छोटा ट्रिब्यूट था लेकिन बहुत माने रखता है. फ़िल्म का टाइटल भी
‘जॉनी मेरा नाम’ से लिया गया... फ़िल्म में कई जगह पात्रों को यही फ़िल्म देखते हुए
दिखाया गया.
लेकिन इस बेहतरीन संपादक के काम को याद रखना और उसको ट्रिब्यूट देना कहाँ याद
रहता है किसी को. लोग संपादक को सिर्फ इसलिए इसलिए याद रखते हैं कि वो कैंची चलाता
है, और कोई भी अपने काम पर कैंची चलवाना पसंद नहीं करता, अहंकार जो उसके आड़े आ
जाता है. ज़रा सोचिये कि आपके बेतरतीब बालों पर अगर कैंची न चले तो आपका यह चेहरा
भला कैसे नूरानी चेहरा कहलाएगा.
तो आज की ब्लॉग-बुलेटिन
का ट्रिब्यूट उस महान संपादक के नाम जिसका नाम है – विजय आनन्द!
आज उनका जन्मदिन है और इससे बेहतर दिन कोई हो ही नहीं सकता उन्हें याद करने के लिये!!
आज उनका जन्मदिन है और इससे बेहतर दिन कोई हो ही नहीं सकता उन्हें याद करने के लिये!!
हैप्पी बर्थ डे गोल्डी सर!!
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ओरछा महामिलन :साउंड एंड लाइट शो , परिचय ,तुंगारण्य में वृक्षारोपण
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बहू – बेटी
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पौधे को आकार देने के लिए, फूल-फलों के लिए उसकी काट-छाँट ज़रूरी है
जवाब देंहटाएंबच्चों के विकास में भी यह नियम लागू होता है, थोड़ी डाँट -फटकार ज़रूरी है, किताब का संपादन सही हो तो पढ़ने में मन लगता है ...
विजय आनंद जी को इस तरह याद करना अच्छा लगा
आपका हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक रविवासरीय बुलेटिन। साधुवाद सलिल जी इस प्रस्तुति के लिये। गोल्डी सर को भी जन्मदिन पर याद करें ऐसा एक मौका दिया। नमन।
जवाब देंहटाएंविजयानंद जी की प्रतिभा बहुमुखी थी और फिल्म क्षेत्र की हर विधा में उन्होंंने अपनी अमिट छाप छोड़ी है ! बॉलीवुड चेतनानंंद, विजयानंंद एवम् देवानंंद तीनों भाइयों के अविस्मरणीय एवं अनमोल योगदान का सदा ॠणी रहेगा ! गोल्डी जी के जन्मदिवस पर उनको सहृदय नमन ! आज के बुलेटिन में मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार सलिल जी !
जवाब देंहटाएंविजयआनंद जी को नमन !
जवाब देंहटाएंआज के बुलेटिन में मेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद |
गाइड मेरी पसंदीदा फिल्मों में है। जितनी बार देखूं, एक अजीब सी उदासी अंदर घिर आती है, जैसे कमला दास की माई स्टोरी पढकर होता है।
जवाब देंहटाएंगाइड मेरी पसंदीदा फिल्मों में है। जितनी बार देखूं, एक अजीब सी उदासी अंदर घिर आती है, जैसे कमला दास की माई स्टोरी पढकर होता है।
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट। आपके इस विचारणीय सम्पादकीय ने एक बार फिर साबित किया कि आज के ईमेल एंथोलोजी सम्पादकीय के युग में भी अच्छे सम्पादक मौजूद हैं। और फिर आपकी दूसरी विशेषता का तो मैं शुरू से क़ायल हूँ, आज के सेल्फ़-प्रमोशन के युग में भी अपने को पीछे रखकर दूसरों की अच्छाइयों का खुले दिल से वर्णन। _/|\_
जवाब देंहटाएंखेत में हल चलकर बीज बो देने से अच्छी फसल नहीं होती उसके लिए उसमें खाद और समय-समय पर निराई-गुड़ाई आवश्यक होती हैं, किसी रचनाकार की कला को उत्कृष्ट बनाने का काम एक कुशल संपादक ही कर सकता है
जवाब देंहटाएंविजय आनन्द जी को समर्पित सार्थक बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार
विजय आनंद साहब को सादर नमन |
जवाब देंहटाएंशानदार बुलेटिन सलिल दादा |
ज्ञानवर्धक बुलेटिन।
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा .सम्पादन एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण कार्य है .कई अच्छे सम्पादकों ने रचनाओं को सुधारने का ही नही नई रचनाओं को जन्म देने में भी सहयोग दिया है .सर्वविदित है कि अगर आचार्य द्विवेदी जैसा सम्पादक न होता तो साकेत न लिखा गया होता .
जवाब देंहटाएंसम्पादन एक ऐसा विषय है जिसपर और भी विमर्श की संभावना है! आभार आप सबों का?!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा । बिना सम्पादन के सब बिखरा लगता है। विजय आनंद साहब को नमन ।मेरी यात्रा वृतांत को स्थान देने का शुक्रिया ।
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