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रविवार, 15 जनवरी 2017

ब्लॉग बुलेटिन - ये है दिल्ली मेरी जान

दिल्ली हमको आए हुए सात महीना हो गया है अऊर ई सात महीना में अगर हम कहें कि हमको दिल्ली से प्यार हो गया है त कोनो अतिस्योक्ति नहीं होगा. ई सहर हमरे मोहब्बत के लिस्ट में कहीं था ही नहीं. मगर “भयो क्यों अनचाहत को संग” के तरह हमरे साथ लग गया. पाँच साल बिताकर गुजरात गए, मगर अफसोस नहीं हुआ दिल्ली छोडने का. अब जब चार साल बाद लौटकर आए हैं, त ओही दिल्ली, ओही ऑफिस, ओही जगह मगर प्यार हो गया है हमको. अऊर गुलजार साहब का ओही गनवा गुनगुनाने का मन कर रहा है कि रोको ना, टोको ना, हमको प्यार करने दो.

हमारा ऑफिस के बगले में है “राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय”. ई कड़ाका का ठण्डा में भी बहुत सा नाटक देखने गए. एही बहाने हमको अपने जिन्न्गी का सबसे बड़ा खालीपन भरने का मौक़ा मिला. कुछ बेहतरीन नाटक का बहुत उम्दा प्रस्तुति देखने को मिला अऊर अपना से आधा उम्र का बच्चा सब का अभिनय परतिभा देखकर त मुग्ध हो गए. ई बिद्यालय हमारा देस को एतना बढ़िया-बढ़िया कलाकार दिया है कि इसका परिसर में घूमते हुए लगता है कि एगो अलगे दुनिया में आ गए हैं.

एहिं पासे में है प्रगति मैदान. सहर के बीचो बीच एतना बड़ा जगह उपलब्ध करवाना जिसमें दुनिया भर का लोग अपना प्रोडक्ट का प्रोमोसन कर सके. केतना तरह का मेला एही मैदान में आयोजित होता रहता है. मगर सबसे बड़का आकर्सन होता है अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला का. दुनिया भर का परकासन संस्थान अपना नया पुराना सब तरह का किताब एही मेला में लोग के सामने लेकर आते हैं अऊर पढने वाला को एक्के जगह सब तरह का किताब मिल जाता है. कहे वाला लोग त ईहो कहता है कि आजकल ऑनलाइन शॉपिंग का ज़माना है, सब कुछ मिलता है. ई बात पर हम गुलज़ार साहब का ऊ नज़्म नहीं सुनाएंगे जो सबको ज़ुबानी इयाद है (जुबां से ज़ायका जाता नहीं सफहे पलटने का), हम त एही कहेंगे कि बच्चा का फोटो देखकर अच्छा लगता है, बाकी असली खुसी त बच्चा को गोदी में लेकर, हाथ से छूकर, प्यार से उसका गाल सहलाकर, दुलारकर अऊर पुचकारे बिना कहाँ आता है.

हर तरह का, हर बिसय का किताब हर स्टाल पर मिलता है. आप जाइए, हाथ में उठाइये, पन्ना पलटकर देखिये अऊर खरीद लीजिए अच्छा छूट पर. पुराना कहावत है कि बिना किताब का घर, बिना खिडकी के मकान के तरह होता है अऊर जहाँ एतना किताब हो, ऊ जगह त हवा महल कहलाने लायक होगा.

हम लोग जैसा लोग ब्लॉग के माध्यम से ना जाने केतना लोग के साथ जुड़े. इसको एही बात से जाना जा सकता है कि अलग अलग प्रांत अऊर सहर में रहते हुए भी हमलोग को एक दूसरा से जुडना, पहचान बनाना अऊर सबसे बड़ा बात उनका रचना से परिचित होने का मौक़ा मिला. धीरे धीरे वही रचना एक किताब का सकल में हमलोग के हाथ में आने लगा. बहुत सा लोग ई बात का मजाक उड़ाने वाला भी मिला, मगर मजाक उड़ाना बहुत आसान है, कर के देखाना बहुत मोसकिल है. एगो पुराना कहावत है कि अगर आदमी एही इंतज़ार में रहा कि ऊ ऐसा काम करे कि कोई उसमें गलती नहीं निकाल सके, त बूझ जाइए कि ऊ जीबन भर कोनो काम नहीं कर सकता है.

इस बार हमरा पुस्तक मेला का सुरुआत हुआ प्रियंका गुप्ता के आदेस पर उससे मिलने से. हमलोग पहिला बार मिले, मगर अपना भतीजी से मिलकर मन खुस हो गया.


निर्मला कपिला जी के गज़ल संग्रह का लोकार्पण था अऊर उनका आमंत्रण भी मिला था. इस उम्र में भी एतना उम्दा सायरी कर लेना सलाम करने जोग्य है.  

कुश वैष्णव, पराग अग्रवाल, इरशाद खान ‘सिकंदर’, व्योमा मिश्रा, मीनाक्षी जी आदि लोगों से पहिला बार मिलना हुआ. इसके अलावा पुराना दोस्त लोगों में से रश्मि रविजा, आराधना मुक्ति, सोनल रस्तोगी अऊर अरुण चंद्र रॉय जी के साथ मुलाक़ात हुआ अऊर बहुत सा बात हुआ पुराना टाइम को याद करके. अनूप शुक्ल जी के साथ मिलना ओही पुरनका गरमजोसी के साथ. देखते साथ हमसे गला मिले अऊर छूटते बोले कि अगिला साल आपका किताब भी आ जाना चाहिए सलिल जी. हम मुस्कुराकर रह गए, अऊर मने मन बोले कि अभी हम इस लायक नहीं हुए हैं.

पूरा मेला का हासिल रहा स्वप्निल तिवारी जी गज़ल संग्रह “चाँद डिनर पर बैठा है” – ई उनका पहिला संग्रह है जो पहले उर्दू में अऊर अब लिप्यांतर के बाद देवनागरी में छपा है. अब चूँकि ऊ हमारी बिटिया वर्तिका श्रीवास्तव के पति हैं इसलिए हमारे दामाद हैं अऊर उनको आदर सूचक संबोधन से सूचित कर रहे हैं हम.

ई पूरा यात्रा में हमारे साथ रहा हमारा भतीजा अभिषेक कुमार. दिल्ली आने के बाद से हमारा कला यात्रा में यही हमको श्रवण कुमार के तरह तीर्थयात्रा पर ले जाता है. 

कल बिटिया को लेकर गए तो हमारी पुत्री ने भी शरलॉक होम्स का पूरा सेट अऊर फोटोग्राफी का किताब खरीदा. अऊर हमारा अंतिम दरसन किया, हमारे ब्लॉग बुलेटिन सहजोगी अऊर प्रिय अनुज अजय कुमार झा ने.

12 टिप्‍पणियां:

  1. ज़िन्दगी की हर खुशगवार गलियों सा होता है आपका वर्णन, हर पात्र,हर जगह,हर वक़्त विशेष बन जाता है ...
    किसी की किताब छप गई, किसी की नहीं - पर लायक तो लायक ही होता है

    अब बारी लिंक्स की :)

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  2. आपकी प्रस्तुति देख कर ऐसा नजर आता है गो अदीबों का मेला भरा हो

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  3. जनवरी २०१७ में ब्लॉग जगत की पहली पोस्ट पढ़ते हुए पुराने दिन याद आ गए और शायद ये चमत्कार हुआ है आभासी से असल दुनिया में सबको मिलना हालाँकि कुछ से मिलना बाक़ी है !

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  4. ऐसे अवसर पर दिल्ली से दूरी बहुत खलती है।

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  5. एक नया अज्दाज पसन्द आया बुलेटिन का...!!!

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  6. Salil ji aapse aur bitiya se milkar dil khush ho gaya , laga hee nahi pehli baar mil rahe hai

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  7. फोटो देख मुझे तो पाँच साल पहले हुये उस विमोचन की याद आ गई जिस का संचालन आप ने बिना किसी तैयारी के बड़ी कामयाबी से किया था |

    वैसे इस बुलेटिन के बहाने हम भी घूम लिए पुस्तक मेला ... थैंक्स दादा |

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  8. यहाँ आने पर सारी रचनाएं देखनी ही पड़तीं हैं क्योंकि चयन ही ऐसा रहता है . आपको दिल्ली से प्यार क्यों न हो , एक तो आप जहाँ वहाँ वातावरण ही प्यारा है और फिर आप खुद भी तो ऐसे ही हैं हर जगह अपने जैसे लोग तलाश ही लेते हैं .

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  9. शिवम बाबू! कम से कम आप तो थैंक्स कहकर शर्मिन्दा न करें. सभी पाठकों का आभार!!

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