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बुधवार, 30 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 16

                                                            पूजा उपाध्याय



शब्दों के पूरे चाँद से आलोड़ित लहरें, बेबाक दौड़ती पूजा उपाध्याय ! मैं ठिठक जाती हूँ, ज़िन्दगी के कितने राग मन और आँखों में ध्वनित होते हैं, चेहरे को लहरों की हथेलियाँ थाम लेती हैं, कहती हैं - ज़रा होश में आओ  ... 




कभी कभी सपने इतने सच से होते हैं कि जागने पर भी उनकी खुशबू उँगलियों से महसूस होती है. अभी भोर का सपना था. तुम और मैं कहीं से वापस लौट रहे हैं. साथ में एक दोस्त और है मगर उसकी सीट कहीं आगे पर है. ट्रेन का सफ़र है. कुछ कुछ वैसा ही लग रहा है जैसे राजस्थान ट्रिप पर लगा था. ट्रेन की खिड़की से बाहर छोटे छोटे पेड़ और बालू दिख रही है. ट्रेन जोधपुर से गुजरती है. मालूम नहीं क्यूँ. मैंने यूं जोधपुर का स्टेशन देखा भी नहीं है और जोधपुर से होकर जाने वाली किसी जगह हमें नहीं जाना है. सपने में ऐसा लग रहा है कि ये सपना है. तुम्हारे साथ इतना वक़्त कभी मिल जाए ऐसा हो तो नहीं सकता किसी सच में. इतना जरूर है कि तुम्हारे साथ किसी ट्रेन के सफ़र पर जाने का मन बहुत है मेरा. मुझे याद नहीं है कि हम बातें क्या कर रहे हैं. मैंने सीट पर एक किताब रखी तो है लेकिन मेरा पढ़ने का मन जरा भी नहीं है. कम्पार्टमेंट लगभग खाली है. पूरी बोगी में मुश्किल से पांच लोग होंगे. और जनरल डिब्बा है तो खिड़की से हवा आ रही है. मुझे सिगरेट की तलब होती है. मैं पूछती हूँ तुमसे, सिगरेट होगी तुम्हारे पास? तुम्हारे पास क्लासिक अल्ट्रा माइल्ड्स है.  

तुम्हारे पास एक बहुत सुन्दर गुड़िया है. तुम कह रहे हो कि घर पर कोई छोटी बच्ची है उसके लिए तुमने ख़रीदा है. गुड़िया के बहुत लम्बे सुनहले बाल हैं और उसने राजकुमारियों वाली ड्रेस पहनी हुयी है. मगर हम अचानक देखते हैं कि उसकी ड्रेस में एक कट है. तुम बहुत दुखी होते हो. तुमने बड़े शौक़ से गुड़िया खरीदी थी. 

फिर कोई एक स्टेशन है. तुम जाने क्या करने उतरे हो कि ट्रेन खुल गयी है. मैं देखती हूँ तुम्हें और ट्रेन तेजी से आगे बढ़ती जाती है. मैं देखती हूँ कि गुड़िया ऊपर वाली बर्थ पर रह गयी है. मैं बहुत उदास हो कर अपनी दोस्त से कहती हूँ कि तुम्हारी गुड़िया छूट गयी है. गुड़िया का केप हटा हुआ है और वो वाकई अजीब लग रही है, लम्बी गर्दन और बेडौल हाथ पैरों वाली. हम ढूंढ कर उसका फटा हुआ केप उसे पहनाते हैं. वो ठीक ठाक दिखती है. 

दिल में तकलीफ होती है. मैंने अपना सफ़र कुछ देर और साथ समझा था. आगे एक रेलवे का फाटक है. कुछ लोग वहां से ट्रेन में चढ़े हैं. मेरी दोस्त मुझसे कहती है कि उसने तुम्हें ट्रेन पर देखा है. मैं तेजी पीछे की ओर के डिब्बों में जाती हूँ. तुम पीछे की एक सीट पर करवट सोये हो. तुम्हारा चेहरा पसीने में डूबा है. मैं तुमसे थोड़ा सा अलग हट कर बैठती हूँ और बहुत डरते हुए एक बार तुम्हारे बालों में उंगलियाँ फेरती हूँ और हल्के थपकी देती हूँ. ऐसा लगता है जैसे मैं तुम्हें बहुत सालों से जानती हूँ और हमने साथ में कई शहर देखे हैं.

तुम थोड़ी देर में उठते हो और कहते हो कि तुम किसी एक से ज्यादा देर बात नहीं कर सकते. बोर हो जाते हो. तुम क्लियर ये नहीं कहते कि मुझसे बोर हो गए हो मगर तुम आगे चले जाते हो. किसी और से बात करने. मैं देखती हूँ तुम्हें. दूर से. तुम किसी लड़के को कोई किस्सा सुना रहे हो. किसी गाँव के मास्टर साहब भी हैं बस में. वो बड़े खुश होकर तुमसे बात कर रहे हैं. अभी तक जो ट्रेन था, वो बस हो गयी है और अचानक से मेरे घर के सामने रुकी है. मैं बहुत दुखी होती हूँ. मेरा तुमसे पहले उतरने का हरगिज मन नहीं था. तुमसे गले लग कर विदा कहती हूँ. मम्मी भी बस में अन्दर आ जाती है. तुमसे मिलाती हूँ. दोस्त है मेरा. वो खुश होती है तुम्हें देख कर. तुम नीचे उतरते हो. मैं तुम्हें उत्साह से अपना घर दिखाती हूँ. देखो, वहां मैं बैठ कर पढ़ती हूँ. वो छत है. गुलमोहर का पेड़. तुम बहुत उत्साह से मेरा घर देखते हो. जैसे वाकई घर सच न होके कोई जादू हो. मैं अपने बचपन में हूँ. मेरी उम्र कोई बीस साल की है. तुम भी किसी कच्ची उम्र में हो. 
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कहते हैं कि सपने ब्लैक एंड वाइट में आते हैं. उनमें रंग नहीं होते. मगर मेरे सपने में बहुत से रंग थे. गुलमोहर का लाल. गुड़िया के बालों का सुनहरा. तुम्हारी शर्ट का कच्चा हरा, सेब के रंग का. बस तुम्हारा चेहरा याद नहीं आ रहा. लग रहा है किसी बहुत अपने के साथ थी मगर ठीक ठीक कौन ये याद नहीं. सपने में भी एक अजनबियत थी. इतना जरूर याद है कि वो बहुत खूबसूरत था. इतना कि भागते दृश्य में उसका चेहरा चस्पां हो रहा था. लम्बा सा था. मगर गोरा या सांवला ये याद नहीं है. आँखों के रंग में भी कन्फ्यूजन है. या तो एकदम सुनहली थीं या गहरी कालीं. जब जगी थी तब याद था. अब भूल रही हूँ. हाँ चमक याद है आँखों की. उनका गहरा सम्मोहन भी. 

सब खोये हुए लोग थे सपने में. माँ. वो दोस्त. और तुम. मुझे याद नहीं कि कौन. मगर ये मालूम है उस वक़्त भी कि जो भी था साथ में उसका होना किसी सपने में ही मुमकिन था. मैं अपने दोस्तों की फेरहिस्त में लोगों को अलग करना चाहती हूँ जो खूबसूरत और लम्बे हैं तो हँसी आ जाती है...कि मेरे दोस्तों में अधिकतर इसी कैटेगरी में आते हैं. रास्ता से भी कुछ मालूम करना मुश्किल है. जबसे राजस्थान गयी हूँ रेगिस्तान बहुत आता है सपने में. पहले समंदर ऐसे ही आता था. अक्सर. अब रेत आती है. रेत के धोरे पर की रेत. शांत. चमकीली. स्थिर. 

उँगलियों में जैसे खुशबू सी है...अब कहाँ शिनाख्त करायें कि सपने से एक खुशबू उँगलियों में चली आई है...सुनहली रेत की...

मंगलवार, 29 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 15


                                                                     शेखर सुमन 




खामोश दिल की सुगबुगाहट... एक ऐसी सुगबुगाहट है कि 

कई खामोश दिल सुगबुगा उठें  ... 

सच है न ?
"प्रथम रश्मि का आना रंगिणी तूने कैसे पहचाना?"

और अपने पंख लिए किसी के दिल में उतरकर कैसे सुगबुगाने लगी ? 
किसने तुम्हें कहानी कुछ प्यार की, कुछ अनमने मन की सुनाई,?
जो अपने पंख फड़फड़ाकर उकेर दिया कितना कुछ तुमने मन के पन्नों पर 
उठा दिया उसे, 
कहा, आओ मेरे साथ उड़ो -  ... 



दिन भर की इधर उधर बेमानी सी बातों के इतर जल्द से जल्द घर पहुँचने की जाने क्यूँ अजीब सी हड़बड़ी होती है... शायद एक कोने में लौटने भर का सुकून ही है जो मुझे आवारा बना देता है... 

कभी कभी मुझे डर लगता है कि अगर मैं किसी दिन शाम को घर नहीं लौट सका तो डायरी में समेटे हर्फ बिखर तो नहीं जाएँगे... हर सुबह मैं कितना कुछ अधूरा छोडकर उस कमरे से निकलता हूँ, उस अधूरेपन के लिबास पर कोई पासवर्ड भी नहीं लगा सकता... बैंग्लोर में बारिश भी तो हर शाम होती है, और मैं हर सुबह खिड़की खुली ही भूल जाता हूँ... अगर कभी ज़ोरों से हवा चली तो वो खाली पड़े फड़फड़ाते पन्ने मेरे वहाँ नहीं होने से निराश तो नहीं हो जाएँगे... हर सुबह उस खिड़की से हल्की हल्की सी धूप भी तो आती है, उस धूप को मेरे बिस्तर पर किसी खालीपन का एहसास तो नहीं होगा... मेरे होने और न होने के बीच के पतले से फासले के बीच मेरी कलम फंसी तो नहीं रह जाएगी न, उस कलम की स्याहियों पर न जाने कितने शब्द इकट्ठे पड़े हैं, उन्हें अलग अलग कैसे पढ़ पाएगा कोई... 

मैं कमरा भी ज्यादा साफ नहीं करता, मेरे कदमों के निशान ऐसे ही रह जाएँगे... उन निशानों को मेरी आहट का इंतज़ार तो नहीं होगा न... मेरी अनंत यात्रा के मुकद्दर में नींद तो होगी न, अक्सर जब मुझे नींद नहीं आती तो कुछ सादे से पन्नों पर अपनी ज़िंदगी लिखने का शौक भी पाल रखा है मैंने.... इत्तेफाक़ तो देखो मुझे सिर्फ अपने बिस्तर पर नींद आती है, और मैं अपने साथ अपनी डायरी भी लेकर नहीं निकलता....  

ऐसे में मैं अपनी हथेलियों पर तुम्हारे लिए चिट्ठियाँ उगा कर भेजा करूंगा.... तुम्हें तो पता है ही कि मेरी हथेलियों पर पसीने बहुत आते हैं, उसे मेरे आँसू न समझ बैठना... 

क्या मुझे साथ में एक्सट्रा जूते रख लेने चाहिए, कहीं किसी तपते रेगिस्तान में फंस गया तो उस आग उगलती रेत में कैसे पूरा करूंगा घर तक वापस आने का सफर... उफ़्फ़ मेरी कलाई घड़ी में इतने दिनों से बैटरि भी नहीं है, वक़्त का पता कैसे लगाऊँगा... इस घड़ी की सूईयों की तरह ये वक़्त भी कहीं भी ठहर जाता है, मेरा वक़्त सालों से मेरे बिस्तर के आस-पास अटक कर रह गया है... तुमको जो घड़ी दी थी न उसमे वक़्त देखते रहना क्या पता उस घड़ी के समय के हिसाब से मेरे कदम तुम्हारी तरफ चले आयें... 

दिल करता है पूरा शहर अपने साथ लिए चलूँ जहां भी जाता हूँ, लेकिन कितना अच्छा होगा न अगर तुम ही बन जाओ मेरा पूरा शहर, मेरी घड़ी, मेरा वक़्त, मेरी डायरी, मेरी कलम, मेरी धूप, मेरी शाम, मेरी बारिश, मेरी पूरी ज़िंदगी... 

सोमवार, 28 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 14




देखने को हम जिसे जैसे देख लें, पर इतिहास की बुलंदी, उसकी विशेषताओं को कौन मिटाएगा !

शिवनाथ कुमार ने इसी बात को अर्थ दिया है  ... 


कुछ लोग बिहार को बहुत ही निम्न दृष्टि से देखते हैं और गाहे बगाहे कुछ ऐसे बयान दे जाते हैं जो काफी दुखदायी होता है।  आज बिहार की वर्तमान स्थिति भले उतनी अच्छी नहीं हो लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हमेशा ऐसी ही स्थिति बनी रहेगी।  समय के साथ सब बदलता है  और बिहार में भी सकारात्मक बदलाव आएँगे ऐसी मेरी आशा है।  दोस्तों मेरा पूर्ण विश्वास है कि एक समय आएगा जब लोग दिल से बोलेंगे कि 'बिहार है तो बहार है' :-)


अस्त हुआ सूरज कभी उगता नहीं 
यह किसने कह दिया 
टूट कर गिर जाएगा आसमां 
यह किसने कह दिया 

बुद्ध महावीर की धरा 
ज्ञान की मशाल जला 
जिसने विश्व को शून्य दिया
जिसके ऊपर विज्ञान चला 
विश्व कटोरे में जिसने 
ज्ञान अमृत भर दिया  
टूट कर गिर जाएगा आसमां 
यह किसने कह दिया 

विश्व विजेता सिकंदर की 
जहाँ रूहें काँप उठी
बिन लड़े ही जहाँ हारा वो 
चंद्रगुप्त की यह वीर भूमि 
वीर कुंवर सिंह जैसे अदम्य वीर ने  
जहाँ अंग्रेजों को धूल चटाया 
आजादी के शंखनाद को 
गांधी ने जहाँ आवाज उठाया  
यह अपराजित धरा 
अपराजेय ही रह गया  
टूट कर गिर जाएगा आसमां 
यह किसने कह दिया 

जिसने राष्ट्र को अपना 
पहला राष्ट्रपति दिया 
पहली लोकतंत्र की नींव  
जिस धरा पर रखा गया  
लोकनायक जयप्रकाश 
कर्पूरी की जन्मभूमि को
हर कोई नमन कर गया 
टूट कर गिर जाएगा आसमां 
यह किसने कह दिया

ऐसे अनगिन गाथाएं 
क्या क्या अब हम गिनाएँ 
जिसने देश के गौरव में 
जाने कितने चाँद लगाए
उस गौरवशाली धरा पे 
हम गौरवान्वित हुए जाएं
दिल से हर कोई जिसको 
कई सलामी दे गया 
टूट कर गिर जाएगा आसमां 
यह किसने कह दिया

अस्त हुआ सूरज कभी उगता नहीं 
यह किसने कह दिया 
टूट कर गिर जाएगा आसमां 
यह किसने कह दिया 

रविवार, 27 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 13




एक मरहम कहूँ 
या एक आग 
ओस सी नज़्म 
या बेचैनी का उठता धुआँ  ... गौतम राजरिशी जिनको पढ़नेवाले कई पाठक थे, मैं भी एक पाठक की हैसियत से पहुँची थी इस ब्लॉग पर, लेकिन आक्रोश की चिंगारियों में थी दबी रुलाई  ... और कर्तव्य, 
और उबरने के लिए शायरी !!!
सुनकर अजीब लगा होगा, तो देखिये ये कुछ लिंक्स, फिर बढ़ेंगे 2016 के पायदान पर  ... 


हँसना एक चाह है, 
सच पूछो तो दम बहुत घुटता है !!!  ... 
सच के सहनशील शरीर पर 
कूदता है झूठ 
वो सोचते हैं हम समझते नहीं 
लेकिन हम उनकी हर नब्ज़ पहचानते हैं  ... 

2016 की श्रेष्ठ रचना मेरी नज़र से -



शब्दों की बेमानियाँ...बेईमानियाँ भी | लफ़्फ़ाजियाँ...जुमलेबाजियाँ...और इन सबके बीच बैठा निरीह सा सच | तुम्हारा भी...मेरा भी | 

तुम्हारे झूठ पर सच का लबादा
तुम्हारे मौन में भी शोर की सरगोशियाँ
तुम्हारे ढोंग पर मासूमियत की
न जाने कितनी परतें हैं चढी

मुलम्मा लेपने की हो
अगर प्रतियोगिता कोई
यक़ीनन ही विजय तुमको मिलेगी
विजेता तुम ही होगे

किसी के झूठ कह देने से होता हो 
अगर सच में कोई सच झूठ
तो लो फिर मैं भी कहता हूँ
कि तुम झूठे हो, झूठे तुम

तुम्हारा शोर झूठा है
तुम्हारा मौन झूठा है
तुम्हारे शब्द भी झूठे
तुम्हारी लेखनी में झूठ की स्याही भरी है बस

तुम्हें बस वो ही दिखता है
जो लिक्खे को तुम्हारे बेचता है
तुम्हारे सच को सुविधा की 
अजब आदत लगी है

यक़ीं मानो नहीं होता
समूचा झूठ बस इक झूठ भर
मगर फिर सोचता हूँ
कि ऐसा कह के भी हासिल
भला क्या
कि आख़िर झूठ भी तो एक कविता है 

शनिवार, 26 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 12




मिलिट्री लाइफ - जहाँ हवाएँ भी अनुशासित होती हैं, स्वतः उसके पास खड़ा सामान्य नागरिक ऊँची आवाज़ में नहीं बोलता, महिलायें अपने आप को सम्मानित पाती हैं,  ... वर्दी में दिखाई देता है अपना देश, - चलने में शान, बोलने में शान, यह कहने में शान कि -

यह मेरा बेटा है 
यह मेरा भाई है 
यह मेरा पति है 
यह मेरा दोस्त है  ... 

अपनी बात कहूँ तो NDA में अपने बेटे को भेजने के बाद, उस छवि में सब मुझे अपने बेटे जैसे लगते।  इच्छा होती है, आगे बढ़कर सर पर हाथ रख दूँ, चेहरा छूकर अपनी दुआएँ दे दूँ। 

इस पोस्ट को 

MAJOR GAURAV ARYA (VETERAN) – A soldier's ...

 - WordPress.com  से इसी भावना के साथ मैं यहाँ लाई हूँ, 





Many friends have asked me why I write only about matters pertaining to the army and other defence issues. Do I have nothing else to talk about?

Well, for one, I am a fairly uni-dimensional person. I have led a pretty average life. Sometimes, below average. I am, self admittedly, not an achiever in any sense of the word.

The only miracle that has happened to me was OG in colour. And for that I may say “thank you” a million times but it will never be enough.

You taught me many things and this is what I took away, the OLQs that still form the cornerstone of our collective lives.

1. Keep your word.
2. Be loyal, always.
3. Lead by example.
4. India first, every time.
5. Respect women.
6. Be selfless.
7. Take responsibility, not credit.
8. No fear.
9. Do the right thing, and damn the consequences.
10. Stand up for those weaker than you.
11. The regiment is your identity. The paltan is your family.

You taught me that integrity is binary. You taught me that an officer displayed OLQs when no one was looking.

I left you 16 years back and this is perhaps the greatest mistake of my life. We do things that we do not understand. And then we live with regret.

The designation has become fancy, the cabin larger. I have perfected a tone of voice that is very corporate, sophisticated and a total put on. But sometimes, it’s good to remind people that beneath all that nonsense, the OC of Charlie Company 17 Kumaon is alive and kicking. All of a sudden there is sometimes a whiplash of a command, brooking no discussion. It leaves stunned people in its wake. All of us OG types have a “drill square” voice hidden inside. And when it is unleashed, it descends like a Hellfire missile on a soft target.

I want you to know that I am not the epitome of OLQs. I falter. But I also want you to know that I always try my best. I believe in you, and what you taught me.

Whatever I am is because of you. If you ever deem me worthy of your call, I will answer.

You will always have my everlasting gratitude.

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 11





कहते हुए  ... 
कहने से परे कुछ कहते हुए 
भावनाओं के कई कमरों से 
एक कमरा खोलकर बैठी हूँ 
खोल दी हैं खिड़कियाँ 
सीखचे के पास बैठी है चिड़िया 
सुना रही है अपने घोसले की बातें  ... 

हृदय गवाक्ष  से कंचन सिंह चौहान 






" कितनी दिलकश हो तुम,कितना दिलजू हूँ मैं,
क्या सितम है कि हम लोग मर जायेंगे. "

सुबह 6 बजे से यह शेर गूँज रहा है दिल-ओ-ज़ेहन में. 

अम्मा और मौसी यूँ किसी देश, किसी शहर तो छोड़िये किसी गाँव के भी इतिहास में इनका नाम दर्ज़ होने वाला नहीं. लेकिन ये दोनों अपने पिता द्वारा किये गये 'गिलहरी प्रयास' का  सफल रूप रहीं.

उनके पिता यानी नाना जी. नाना जी जब सिंगापुर से भारत वापस आये तो और लोगों की तरह कालीनें, फ़ानूस, पैसा ले कर नहीं आये थे. वे अपने साथ कागज़ और क़लम ले कर आये थे. और ये कागज़ और क़लम कोई बिम्ब नहीं असलियत के कागज़ क़लम थे. 

१९४२ में जब अम्मा ९ साल की और मौसी १२ साल की थीं तब नाना जी स्वदेश वापस आये थे. इसके बाद उन्होंने गाँव-गाँव जा कर वो सारे  क़लम और दस्ती कागज़ बाँटे जो वे विदेश से ले कर आये थे. दुद्धी खड़िया, स्लेट, सब...!

उन्होंने अगल-बगल गाँव की लड़कियों के  माता-पिता को कन्विंस कर स्त्री-शिक्षा के लिए तैयार किया. उन्हें अपने पैरों पर खड़े  होने को प्रेरित किया. कहते हैं कि उस समय उस गाँव के अगल-बगल की बहुत सी लडकियाँ अध्यापिका की ट्रेनिंग ले कर आयीं. 

यह अलग बात है कि शादी के बाद उनमे से अधिकांश की नौकरी छुड़वा दी गयी. 

लेकिन नाना जी का वश अपनी बेटियों पर था. उन्होंने उनकी शादी उन्हीं वरों से की जो नौकरी के विरोध में नहीं थे.

अम्मा और मौसी उस पिछड़े इलाके वाले गाँव में उन दिनों की किंवदन्तियाँ थीं. 

१९४२ की बात छोडिये मेरे पास उस क्षेत्र के आज के भी अनुभव यह हैं कि एक पुत्र के लिए तीन-तीन शादियाँ की जाती हैं और ९ लडकियाँ पैदा की जाती हैं. उस समय में नाना जी ने अपना परिवार दो बेटियों पर सीमित करने का निर्णय लिया. तब भी, जब वे बहुत बड़ी सम्पत्ति के अकेले वारिस थे. 

जाने क्या सोच कर उन्होंने बेटियों को नाम भी थोड़े पुरुषीय ही दिए थे, 'कैलाश-विलास' और शुरू से पत्रों में लिख कर भेजा था कि उन्हें पढने भेजा जाये. 

नाना जी के सिंगापुर से आने के पहले उन दोनों ने पायल, आयल, कड़ा, पछेला, नाक के विभिन्न ज़ेवर जिनका नाम मैं भूल रही हूँ पहन रखे थे और  तेल लगा-लगा कर खूब लम्बे बाल किये थे. 

नाना जी ने आने के बाद एक दिन नई को बुलाया और दोनों लडकियों को उसके सामने बैठा दिया. उनके सारे जेवर उतरवा दिए गये, जो नहीं उतरे उन्हें कटवा दिया गया और फिर उनके लम्बे-लम्बे बालों को इतना छोटा कर दिया गया जितना उस समय लड़कों की जुल्फी होती थी. और इसके बाद दोनों से कहा," विद्यार्थी जीवन का श्रृंगार विद्या है और कुछ नहीं." 

और दूसरे दिन उनकी एकलाई धोतियों की जगह कुरते पैजामों ने ले ली. 

दोनों ने खूब डिबेट्स में भाग लिया. कविताओं का संग्रह किया. गीत-संगीत की सहभागी हुईं. शादी-विवाह में देशभक्ति की गालियों (जिसे सरकारी गाली) से महफिल लूटी. 

मैंने देखा उन दोनों के तेजस्वी दिनों को. जब उनके ओज में दमक थी. आवाज़ में ठसक. बच्चों में अनुशासन, बड़ों में सम्मान.

एक लम्बी उम्र बितायी उन्होंने इस तरह.

दोनों बहनों ने खूब साथ दिया. उन्होंने अपने माता-पिता की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं जताया, लेकिन उनके प्रति कर्तव्य दोनों बहनों ने सामान्य रूप से निभाया.

मुझ उपेक्षिता को अगर कोई अपने घर बुलाता था तो वे मौसी ही थीं. बचपन में मौसी ही थीं जो गिफ्ट की सोचती थीं. हम सब बहनों ने १२-१३ की उम्र में सोने की बालियाँ मौसी की दी हुई पहनी और जिनकी शादी हुई उन्होंने ने नथ.

आज सुबह तीन बजे मौसी स्मृति-शेष रह गयीं.

इधर आँख से देखते-देखते सब कुछ उल्टा चलने लगा था या कहिये हर चीज़ अपने चढ़ान के बाद उतार पर आती है.  यूँ मौसी भी कहती थीं कि अम्मा की स्मरण-शक्ति मौसी से ज्यादा है. लेकिन मौसी की भी कम नहीं थी. मैंने देखा है अम्मा से कितने ही पहले पैदा हुए लोग अम्मा से अपनी उम्र कन्फर्म करते थे. अम्मा के पास सबका पत्रा था. 

लेकिन अब दोनों को कल की चीज़ें नहीं याद रहतीं. मैंने देखा बूढी काया में बच्चा पलने लगा. पल में बातें बुरी लगतीं और पल में सब सामान्य.

10-10 पन्ने की चिट्ठियों और बेसिक फोन पर दो-दो घंटे बात करने वाली अम्मा-मौसी अब बात करने में थक जातीं.


मैं ५ फरवरी को मौसी से मिली थी. उनसे कहा, "मौसी आप अब पैसे नहीं देतीं." उन्होंने लम्बी-लम्बी चलती साँसों के साथ बहू की तरफ देखा और 100 रूपये की थाती मेरे हाथ पर रख दी. मैंने वह रूपये वहाँ रख दिए जहाँ अम्मा के दिए २०० रूपये रखती हूँ, जब-जब कानपुर से आती हूँ. 

आज सुबह जब खबर मिली तो पहला ख्याल अम्मा का आया. एक लम्बी उम्र तक साथ निभाने वाली सखी उनकी थीं उनकी मौसी.

अम्मा, जिनके लिए यह मशहूर था कि जवार में किसी के घर लड़की विदा हो तो अम्मा तीन दिन तक खाना-पीना छोड़ देती हैं. वो अम्मा जो मोहल्ले-टोले की याद में आँसू बहा लेती थीं. 

वह अम्मा ग़ालिब का वह शेर बन गयीं कि 

रंज से खूँगर हुआ इंसा तो मिट जाता है रंज, 
मुश्किलें इतनी पड़ी मुझ पर कि आसाँ हो गयीं.

वे अम्मा जो बाबूजी के खत्म होने के दो साल बाद तक शाम छः बजे दरवाज़े पर खड़ी हो जाती थीं उस रस्ते पर नजर रखे हुए जिस से बाबूजी शाम को लौटते थे, वे अम्मा जो भईया के जाने के बाद घर के बायीं तरफ वाली सड़क को नहीं देखती थीं क्योंकि भईया वहीँ कुर्सी डाल कर बैठते थे, उन अम्मा को सुबह फोन किया तो उन्होंने शांत भाव से कहा," तुम्हारी मौसी भी चली गयीं. एक वही थीं, जो लम्बे समय से हमारा साथ दे रही थीं, आज वो भी गयीं."

सुबह से अजीब निस्पृह सा हुआ है मन, अजब वैरागी सा. जब अंत यही है तो भला शुरुआतें क्यों इतनी जगमग होती हैं ? जब अंत यही है तो भला इच्छाएं क्यों इतनी होती हैं ? एक दिन सब मिट जाएगा...सब, सब, यह धरती, यह सृष्टि... हम जानते हैं, फिर भी लगे हुए जैसे करोड़ों वर्ष का ठेका हमारे सर दे कर भेजा है किसी ने.

कबीर का 

साधो ये मुर्दों का गाँव...

शैलेन्द्र का 

दुनियाँ बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी...

सब गड्ड-मड्ड हैं...! 

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 10




प्रतिभाओं की कमी नहीं और उनके लिखे से एक रचना का चयन, शायद न्याय नहीं, पर चलिए यह एक वर्ष का मामला है, तो आप सभी पाठक इसे सहजता से लेंगे।  मुमकिन है कि आपकी पसंदीदा रचना कोई और हो, लेकिन विश्वास है कि मेरी नज़र को भी आप मान्यता देंगे :)

आज संजय व्यास का ब्लॉग 

संजय व्यास हमारे साथ है ;;; 


मुलाक़ात


उन दोनों के बीच शब्दों का ढेर था. दोनों के मुंह से कुछ देर पहले तक शब्द गिर रहे थे. कुछ थोड़े से जिनमें अपने गंतव्य तक पहुँच रहे थे, बाकी सब बीच में ढेर हो रहे थे.ढेर अब काफी बड़ा हो गया था.ढेर लगातार बड़ा होता गया था.पर कुछ देर से वो ढेर ज्यों का त्यों पडा था.कोई नया इक्का दुक्का शब्द ही इस ढेर पर जब तब गिर रहा था.और ऐसा भी नहीं था कि इस 'कुछ देर' से सारे शब्द अपने गंतव्य तक ही पहुँच रहे थे.शब्दों का आवागमन ही बंद हो गया था.

ये सब दो लोगों के बीच का मामला था.और इस वक्त,जब उनके बीच का ढेर जस का तस पड़ा था, उन दोनों के बीच कोई बात नहीं हो रही थी.कह सकते हैं कि लगभग सन्नाटे जैसा ही उन दोनों के बीच इस वक्त पसरा था.

वे दोनों दोस्त थे या नहीं कह पाना मुश्किल था.क्योंकि उनकी मुलाकातें अक्सर होतीं तो थीं पर वे तुरत- फुरत में ख़त्म हो जातीं थी.वे मिलते और कुछ ही देर में विदा हो लेते.वे जब भी मिलते,एक और मुलाकात अपने रिश्ते के साथ जोड़ देते.अब इस रिश्ते के साथ ढेरों छोटी छोटी मुलाकातें थीं.ये मुलाकातें भले ही छोटी होती थीं,पर बड़ी अच्छी होती थीं. इनसे वे दोनों आपस में मिलने को उत्सुक बने रहते थे.वे जब भी मिलते,एक सिगरेट भर देर में विदा हो जाते.उनकी इस चुस्त और संक्षिप्त मुलाकातों में उनके बीच सब कुछ स्फूर्त बना रहता. वे एक दुसरे को अधिकार पूर्वक कोई भी काम कह देते थे.दोनों एक दुसरे के काम को पूरी  गंभीरता से पूरा करते थे,या करने की कोशिश करते थे.वे एक दूसरे से मिलने के बहाने नहीं ढूंढते थे पर हर दूसरे दिन एक दूसरे से मिल ही जाते थे.शायद इसलिए उन्हें मिलने के लिए बहाने ढूँढने की ज़रूरत ही नहीं थीं.क्या दोस्ती में ऐसा ही होता है? अगर हां तो फिर दोनों दोस्त थे.उन्होने कभी एक दूसरे के बारे में किसी तीसरे से किसी तरह की कोई  नकारात्मक बात नहीं कही थी.असल में उन दोनों का कोई साझा मित्र था ही नहीं.उनके बीच का जितना साझा सरमाया था,उनकी बीवियां भी उसके बहुत थोड़े की ही साझेदार होती थीं.पर हां उन दोनों की मुलाकातों में अक्सर या कभी कभार उनेक घर परिवार का ज़िक्र भी आ ही जाता था.और उनकी बातें भी क्या थी?वे किसी तरह के सिनेमा के शौकीन नहीं थे.किताबों से उनका रिश्ता इतना भर था कि वे दिन में एक बार सर्वोदय बुक स्टाल के आगे से निकल जाते थे.जिसका पता न तो सर्वोदय के मालिक को चलता था न ही खुद उन्हें.दोनों में से सिर्फ एक खाने का शौक़ीन था.दूसरे को तो लौकी और कद्दू की सब्जी का अंतर भी न पता था.एक अखबार का तीसरा पन्ना ध्यान से पढता तो दूसरा आखिरी.
फिर भी वे अक्सर मिलते थे. और एक सिगरेट भर देर जीवंत बातें कर विदा हो जाते.

पिछले कुछ समय से दोनों हर मुलाकात में एक दूसरे के परिवारों को मिलाने की बात भी करने लगे थे.इसमें शायद उनकी आपस में तवील मुलाकात की इच्छा भी रही होगी जो महज एक सिगरेट जितनी लम्बी  न हो.इस तरह की लम्बी मुलाकात की इच्छा एक दूसरे के लिए कोई गहरी तलब का परिणाम थी या लम्बे अरसे तक थोड़ी थोड़ी देर भर मिलते रहने से एक औपचारिक शिष्टाचार के तहत परिवारों को मिलाने की बात जैसा कुछ था. पता नहीं.जो भी हो असल में इस तरह की पारिवारिक मुलाकातें कभी हुई ही नही थीं. 

आज उन दोनों के बीच शब्दों का ये ढेर पड़ा था.और फिलहाल दोनों चुप थे.वे एक दुसरे को जल्दी से विदा कह देते तो ये मुलाकात भी पहले की तरह कमाल की मुलाकात हो जाती पर आज उनको ज्यादा देर तक एक दूसरे के साथ रहना था.ये जगह 'एक' का दफ्तर थी और 'दूसरा' आज उधर फील्ड में कहीं अपना काम ख़त्म कर इसी 'एक'के दफ्तर में, उसी के सामने बैठा, अपने बिज़नेस पार्टनर का इंतज़ार कर रहा था जो'तीसरा' था और वहां किसी और जगह से आने वाला था.पार्टनर को आने में देर हो रही थी.पहले तो इस देर का पूर्वानुमान एक मौके की तरह किया गया था कि संक्षिप्त मुलाकातों वाले दोस्त के साथ उसी के दफ्तर में आज लम्बी बातें ख़ूब वक्त तक होंगी. और हुआ भी ऐसा ही कुछ देर तक तो.शुरू में चाय की चुस्कियों के साथ बातों के सूत से कताई होने लगीं.कातते कातते अभी कुछ ही देर हुई थी कि कताई से बुनाई का सफ़र उबाऊ होने लगा.वक्त लम्बा लगने लगा.वे फिर भी बोलते रहे पर उनके बीच बहुत सारा निरर्थक जमा होने लगा.

फिर उनका बोलना रुक गया.वो 'तीसरा'यानी बिज़नेस पार्टनर अब तक नहीं आया था.अब वे दोनों एक दुसरे के सामने नहीं देख रहे थे.कोई कैलेंडर पर बेवजह नज़रें गड़ाए था तो कोई एक तरह लम्बे अरसे से कोने में पड़ी धूल खायी ट्राफी देख रहा था.वे एक दूसरे के सामने थे पर एक दूसरे की उपस्थिति से बेपरवाह.हद तो ये थी कि वे अब ऐसे बैठे थे जैसे एक दुसरे से अनजान हों.

बिजनेस पार्टनर अभी तक नहीं आया था. 

बुधवार, 23 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 9




जीवन में हुई हर बातों, हर घटनाओं का अपना एक सार होता है, जिससे हमें शिक्षा मिलती है।  कुछ परिणाम ज़िद के होते हैं, कुछ असावधानी के, कुछ अति सहनशीलता के, कुछ क्रोध के  ... 
यूँ जब हमें कोई किसी बात के लिए मना करता है तो हमें लगता है, कितनी नसीहतें - उफ्फ !
पर जब कोई घटना अपने आगे रूप ले लेती है तो हम उन नसीहतों के पीछे की शुभ इच्छा को समझ पाते हैं। 

bal-kishore.blogspot.in पवित्रा अग्रवाल ने बच्चों के लिए और निःसंदेह उनके 

अभिभावकों के लिए बनाई है। 



   पड़ौस के घर में एक परिवार रहने आया था ,उसमें दादाजी के उम्र के एक व्यक्ति और उनकी पत्नी थीं ।वह लंगड़ा कर चलते थे और कड़क स्वभाव के थे ।वह अपने साथ बहुत से गमले लाए थे जिस में बहुत तरह के रंग बिरंगे फूल खिलते थे । वह अपने पौधों की बच्चों की तरह देख भाल करते थे ,वह बांसुरी भी बहुत अच्छी बजाते थे।
       बच्चे उन पौधों को देख कर बहुत ललचाते थे . उनका बस चलता तो वह एक भी फूल पौधों पर नहीं छोड़ते पर उनका कड़क स्वभाव देख कर बच्चे उनसे दूर ही रहते थे ।
       एक दिन पौधों के पास किसी को न देख कर सौमेश अपने को नहीं रोक पाया और दो तीन फूल तोड़ लिए, तब ही वहाँ दादाजी आ गए और उसका हाथ पकड़ कर बोले---' यह क्या किया तुमने ... आगे से ऐसा गल्ती मत करना वरना तुम्हारे पापा से शिकायत कर दूँगा,अब जाओ यहाँ से ' 
     तब से उन दादाजी टाइप व्यक्ति का नाम बच्चों ने लंगड़दीन रख दिया और उन्हें देख कर एक गाना गाते थे -- "लंगड़दीन ,बजाए बीन '
     पतंग के दिन आने वाले थे ।बाजार रंग बिरंगी छोटी बड़ी पतंगों से भरा पड़ा था. रास्ता चलते बच्चे बड़ी हसरत से पंतगों को देखते थे पर अभी स्कूल खुले हुए थे तो पतंग उड़ाने की छूट उन्हें नहीं मिली थी। पर जैसे जैसे पतंग के दिन नजदीक आ रहे थे, दादा जी का दखल बढ़ने लगा था ।वह निकलते बैठते बच्चों को बहुत नसीहतें देने लगे थे ।
      किसी से कहते, सुनो आराम से पतंग उड़ाना , लूटने के लिए उसके पीछे मत दौड़ना, गिर गए तो जान भी जा सकती है।... देखों बच्चों लोहे की छड़ से पतंग लूटने की कोशिश कभी नहीं करना .’
      कुछ बच्चे ये नसीहतें सुन सुन कर उनसे चिढने लगे थे .स्कूल की छुट्टी होते ही बच्चे पतंग उड़ाने की फ़िराक में रहते थे .दोपहर को पापा लोग तो काम पर चले जाते थे ,जिन की मम्मी नौकरी करती थीं वह भी घर में नहीं होती थीं ,बस बच्चों को पतंग उडाने का मोंका मिल जाता था .
      बस ऐसे ही एक दिन अमित के मम्मी पापा काम पर गए हुए थे , दादी गाँव में थीं. अमित अपने दो तीन दोस्तों के साथ छत पर पहुँच गया था. सब अपनी अपनी पतगें और चरक लेकर आ गए थे और बड़ी तल्लीनता से पतंग उड़ा रहे थे.तभी एक बहुत बड़ी और बहुत सुंदर उड़ती पतंग पर बच्चों की नजर गई तो वह पतंग उड़ाना भूल कर उस को ही देखते रह गए और उसे पाने के लिए उस पतंग से पेच लड़ा कर उसे काटने की कोशिश करने लगे .
       देखते ही देखते वह पतंग कट कर नीचे की तरफ आने लगी और बच्चे अपनी पतंगों को हवा में ही छोड़ कर उसे पकड़ने की कोशिश करने लगे.एक बच्चे  ने वहां पड़ी लोहे की सरिया को उठाना चाहा तो दूसरे बच्चे को लंगड़दीन की बात याद आगई , बच्चे ने छड़ उसके हाथ से ले कर दूसरे कोने में डाल दी पर उस समय बच्चे किसी भी तरह पतंग लूट लेना चाहते थे और तभी अचानक वह हादसा हो गया . अमित छत से नीचे गिर गया था .आस पास कोई नहीं दिख रहा था. बच्चे  मदद के लिए चिल्लाने लगे .
     शोर सुन कर लंगड़दीन बाहर आये, बच्चे को बेहोश पड़ा देख कर जल्दी से बच्चों की मदद से ऑटो में डाल कर अस्पताल ले गए .जगह जगह से खून बह रहा था . डाक्टर को सौंप  कर वह हताश से बैठ गए थे .तब बच्चों ने बताया कि पतंग लूटने के चक्कर में अमित छत से गिरा है. अमित के माता –पिता घर पर नहीं थे और किसी को उनका मोबाइल नंबर भी नहीं पता था. समस्या थी कि उन्हें कैसे सूचित किया जाये .अमित के दोस्त को उसके चाचा जी का घर पता था, किसी तरह उसके माता पिता आगये थे .
     डॉक्टर ने आकर बताया कि बच्चा अभी भी बेहोश है , यदि समय से न लाया गया होता तो खून बहुत बह जाता . हमें उम्मीद है कि वह जल्दी ही होश में आजायेगा , बस एक बार उसे होश आजाये फिर चिंता की कोई बात नहीं है .चोटें और  फ्रेक्चर की चिंता नहीं है. समय लगेगा पर वह ठीक हो जायेगा '
     बच्चे आदर से लंगड़दीन को दादाजी कहने लगे थे. अमित के माता पिता ने दादाजी का शुक्रिया अदा किया .उन के  कहने पर बच्चे दादा जी के साथ घर लौट गए थे .रास्ते में दादा जी ने बताया कि बच्चों मुझे मालूम है कि तुम लोग मुझे लंगड़दीन कहते हो’
      बच्चों ने शर्मिंदा होकर सॉरी  बोला .
    ' बच्चों  मैं  हमेशा से एसा नहीं था. जब मै पन्द्रह वर्ष का था तब पतंग लूटने के चक्कर में मै भी छत से गिर गया था और लंगड़ा हो गया था . इसी लिए मै जब तब तुम लोगों को सावधानी से पतंग उड़ाने की नसीहतें देता रहता था पर मेरी कोशिश बेकार गई '
     ‘नहीं दादा जी आप की नसीहत बेकार नहीं गई .आज एक लडके ने पतंग लूटने के लिए लोहे की रॉड उठा ली थी पर तभी  मुझे आप की बात याद आगई और मैं ने उससे  रॉड छीन कर दूर फेंक दी ...हो सकता है उसके साथ भी कोई  दुर्घटना हो जाती '
     ‘एक बार फिर सॉरी दादा जी,अब हम आपकी बात मानेंगे .कृपया हमारी बदतमीजियों के लिए हमें  माफ़ कर दीजिये .’
‘ठीक है बच्चों अब सब  अपने अपने घर जाओ '  
    अब बच्चों की समझ में आ गया था कि  जब बड़े कुछ कहते हैं तो उसके पीछे कारण होता है .उनकी बातों  को यूँ ही  हवा में उड़ा देना ठीक नहीं .

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 8















                                                                                       

वंदना वाजपेई 



सच का हौसला 

 वंदना वाजपेई जी का हौसला है, जो एक कार्यकारी संपादक हैं "अटूट बंधन "हिंदी मासिक पत्रिका की !
ज़िन्दगी में प्रेरणा न हो तो सपने डगमगाने लगते हैं, इन सपनों की पतवार को प्रेरणात्मक हथेलियों ने कलम की नोक से मजबूती दी है।                                                                                                                                                         


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मन की आवाज़ सच का हौसला

वंदना वाजपेई 


एक बुढ़िया बड़ी सी गठरी लिए चली जा रही थी। चलते-चलते वह थक गई थी। तभी उसने देखा कि एक घुड़सवार चला आ रहा है। उसे देख बुढ़िया ने आवाज दी, ‘अरे बेटा, एक बात तो सुन।’ घुड़सवार रुक गया। उसने पूछा, ‘क्या बात है माई?’ बुढ़िया ने कहा, ‘बेटा, मुझे उस सामने वाले गांव में जाना है। बहुत थक गई हूं। यह गठरी उठाई नहीं जाती। तू भी शायद उधर ही जा रहा है। यह गठरी घोड़े पर रख ले। मुझे चलने में आसानी हो जाएगी।’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘माई तू पैदल है। मैं घोड़े पर हूं। गांव अभी बहुत दूर है। पता नहीं तू कब तक वहां पहुंचेगी। मैं तो थोड़ी ही देर में पहुंच जाऊंगा। वहां पहुंचकर क्या तेरी प्रतीक्षा करता रहूंगा?’ यह कहकर वह चल पड़ा।
कुछ ही दूर जाने के बाद उसने अपने आप से कहा, ‘तू भी कितना मूर्ख है। वह वृद्धा है, ठीक से चल भी नहीं सकती। क्या पता उसे ठीक से दिखाई भी देता हो या नहीं। तुझे गठरी दे रही थी। संभव है उस गठरी में कोई कीमती सामान हो। तू उसे लेकर भाग जाता तो कौन पूछता। चल वापस, गठरी ले ले। ‘
वह घूमकर वापस आ गया और बुढ़िया से बोला, ‘माई, ला अपनी गठरी। मैं ले
चलता हूं। गांव में रुककर तेरी राह देखूंगा।’ बुढ़िया ने कहा, ‘न बेटा, अब तू जा, मुझे गठरी नहीं देनी।’ घुड़सवार ने कहा, ‘अभी तो तू कह रही थी कि ले चल। अब ले चलने को तैयार हुआ तो गठरी दे नहीं रही। ऐसा क्यों? यह उलटी बात तुझे किसने समझाई है?’
बुढ़िया मुस्कराकर बोली, ‘उसी ने समझाई है जिसने तुझे यह समझाया कि माई की गठरी ले ले। जो तेरे भीतर बैठा है वही मेरे भीतर भी बैठा है। तुझे उसने कहा कि गठरी ले और भाग जा। मुझे उसने समझाया कि गठरी न दे, नहीं तो वह भाग जाएगा। तूने भी अपने मन की आवाज सुनी और मैंने भी सुनी।’

नीलम गुप्ता

दीपक छठी कक्षा का विद्यार्थी था। वह जब क्लास में होता तब बाहर खेलने के बारे में सोचता और जब खेलने का मौका मिलता तो वो कहीं घूमने के बारे में सोचता…इस तरह वह कभी भी प्रेजेंट मोमेंट को एन्जॉय नहीं करता बल्कि कुछ न कुछ आगे का सोचा करता। उसके घर वाले और दोस्त भी उसकी इस आदत से परेशान थे।
एक बार दीपक अकेले ही पास के जंगलों में घूमने निकल गया। थोड़ी देर चलने के बाद उसे थकान हो गयी और वह वहीं नरम घासों पर लेट गया। जल्द ही उसे नींद आ गयी और वह सो गया।
सोने के कुछ देर बाद एक आवाज़ आई-“ दीपक . दीपक …”
दीपक ने आँखें खोलीं तो सफ़ेद वस्त्रों में एक परी खड़ी थी। वह बहुत सुन्दर थी और उसने अपने एक हाथ में जादुई छड़ी ले रखी थी, और दुसरे हाथ में एक मैजिकल बॉल थी जिसमे से एक सुनहरा धागा लटक रहा था। दीपक की पारी से दोस्ती हो गयी | कुछ देर परी से बातें करने के बाद बोला, “आपके हाथ में जो छड़ी है उसे तो मैं जानता हूँ पर आपने जो ये बॉल ली हुई है उससे ये सुनहरा धागा कैसा लटक रहा है?”
परी मुस्कुराई, “रमेश, यह कोई मामूली धागा नहीं; दरअसल यह तुम्हारे जीवन की डोर है! अगर तुम इसे हल्का सा खींचोगे तो तुम्हारे जीवन के कुछ घंटे कुछ सेकंड्स में बीत जायेंगे, यदि इसे थोड़ा तेजी से खींचोगे तो पूरा दिन कुछ मिनटों में बीत जाएगा और अगर तुम उसे पूरी ताकत से खींचोगे तो कई साल भी कुछ दिनों में बीत जायेंगे।
अब दीपक कहाँ मानने वाला था | उसने टपक से पारी से पूंछा क्या आप इसे मुझे दे सकती हैं ?
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं , ये लो…पकड़ो इसे…पर ध्यान रहे एक बार अगर समय में तुम आगे चले गए तो पीछे नहीं आ सकते।”,कह कर पारी चली गगी | दीपक ख़ुशी ख़ुशी अपना गिफ्ट ले आया | वह क्लास में बैठा खेलने के बारे में सोच रहा था, पर टीचर के रहते वो बाहर जाता भी तो कैसे?
तभी उसे परी द्वारा दी गयी सुनहरे धागों वाली बॉल का ख्याल आया। उसने धीरे से बॉल निकाली और डोर को जरा सा खींच दिया…कुछ ही सेकंड्स में वह मैदान में खेल रहा था।
“वाह मजा आ गया!”, दीपक ने मन ही मन सोचा!
फिर वह कुछ देर खेलता रहा, पर मौजूदा वक्त में ना जीने की अपनी आदत के अनुसार वह फिर से कुछ ही देर में ऊब गया और सोचने लगा ये बच्चों की तरह जीने में कोई मजा नहीं है क्यों न मैं अपने जीवन की डोर को खींच कर जवानी में चला जाऊं।
और झटपट उसने डोर कुछ तेजी से खींच दी।
दीपक अब एक शादी-शुदा आदमी बन चुका था और अपने दो प्यारे-प्यारे बच्चों के साथ रह रहा था। उसकी प्यारी माँ जो उसे जान से भी ज्यादा चाहती थीं, अब बूढी हो चुकी थीं, और पिता जो उसे अपने कन्धों पर बैठा कर घूमा करते थे वृद्ध और बीमार हो चले थे।दीपक अपने माता-पिता के लिए थोड़ा दुखी ज़रूर था पर अपना परिवार और बच्चे हो जाने के कारण उसे बहुत अच्छा महसूस हो रहा था। एक-दो महीनो सब ठीक-ठाक चला पर दीपक ने कभी अपने वर्तमान को आनंद के साथ जीना सीखा ही नहीं था; कुछ दिन बाद वह सोचने लगा- “ मेरे ऊपर परिवार की कितनी जिम्मेदारी आ गयी है, बच्चों को संभालना इतना आसान भी नहीं ऊपर से ऑफिस की टेंशन अलग है! माता-पिता का स्वाथ्य भी ठीक नहीं रहता… इससे अच्छा तो मैं रिटायर हो जाता और आराम की ज़िन्दगी जीता।”
और यही सोचते-सोचते उसने जीवन की डोर को पूरी ताकत से खींच दिया।
कुछ ही दिनों में वह एक 80 साल का वृद्ध हो गया। अब सब कुछ बदला चुका था, उसके सारे बाल सफ़ेद हो चुके थे, झुर्रियां लटक रही थीं, उसके माता-पिता कब के उसे छोड़ कर जा चुके थे, यहाँ तक की उसकी प्यारी पत्नी भी किसी बीमारी के कारण मर चुकी थी। वह घर में बिलकुल अकेला था बस कभी-कभी दूसरे शहरों में बसे उसके बच्चे उससे बात कर लेते।
ओह ! यह क्या अब दीपक को को एहसास हो रहा था कि उसने कभी अपनी ज़िन्दगी को एन्जॉय नहीं किया…उसने न स्कूल डेज़ में मस्ती की न कभी कॉलेज का मुंह देखा, वह न कभी अपनी पत्नी के साथ कहीं घूमने गया और ना ही अपने माता-पिता के साथ अच्छे पल बिताये… यहाँ तक की वो अपने प्यारे बच्चों का बचपन भी ठीक से नहीं देख पाया… आज रमेश बेहद दुखी था अपना बीता हुआ कल देखकर वह समझ पा रहा था कि अपनी बेचैनी और व्याकुलता में उसने जीवन की कितनी सारी छोटी-छोटी खुशियाँ यूँही गवां दीं।
आज उसे वो दिन याद आ रहा था जब परी ने उसे वो मैजिकल बॉल दी थी…एक बार फिर वह उठा और उसी जंगल में जाने लगा और बचपन में वह जिस जगह परी से मिला था वहीँ मायूस बैठ अपने आंसू बहाने लगा | तभी वहां फिर आवाज़ आई दीपक , दीप्पक
दीपक ने पलट कर देखा तो एक बार फिर वही परी उसके सामने खड़ी थी।
परी ने पूछा, “क्या तुमने मेरा स्पेशल गिफ्ट एन्जॉय किया?”
“पहले तो वो मुझे अच्छा लगा, पर अब मुझे उस गिफ्ट से नफरत है।”, दीपक क्रोध में बोला, “ मेरी आँखों के सामने मेरा पूरा जीवन बीत गया और मुझे इसका आनंद लेने का मौका तक नहीं मिला। हाँ, अगर मैं अपनी ज़िन्दगी नार्मल तरीके से जीता तो उसमे सुख के साथ दुःख भी होते पर मैजिकल बॉल के कारण मैं उनमे से किसी का भी अनुभव नहीं कर पाया। मैं आज अन्दर से बिलकुल खाली महसूस कर रहा हूँ…मैंने ईश्वर का दिया ये अनमोल जीवन बर्वाद कर दिया।”,
“ओह्हो…तुम तो मेरे तोहफे के शुक्रगुजार होने की बजाय उसकी बुराई कर रहे हो….खैर मैं तुम्हे एक और गिफ्ट दे सकती हूँ…बताओ क्या चाहिए तुम्हे?”, परी ने पूछा।
दीपक को यकीन नहीं हुआ कि उसे एक और वरदान मिल सकता है; वह ख़ुशी से भावुक होते हुए बोला…“मम..मम मैं..मैं फिर से वही पहले वाला स्कूल बॉय बनना चाहता हूँ…मैं समझ चुका हूँ कि जीवन का हर एक पल जीना चाहिए, जो ‘अभी’ को कोसता है वो कभी खुश नहीं हो पाता…उसका जीवन खोखला रह जाता है… प्लीज…प्लीज…मुझे मेरे पुराने दिन लौटा दो…. प्लीज…प्लीज…प्लीज न…”
तभी एक आवाज़ आती है… “उठो बेटा… ये सपने में प्लीज..प्लीज…क्या बड़बड़ा रहे थे…”
दीपक आँखे खोलता है…अपनी माँ को आँखों के सामने देखकर वह कसकर उनसे लिपट जाता है और फूट-फूट कर रोने लगता है।
वह मन ही मन परी का शुक्रिया अदा करता है और कसम खाता है कि अब वो जीवन के अनमोल पलों को पूरी तरह जियेगा… और ख़म ख्याली और कल के बारे में सोचकर अपने आज को बर्वाद नहीं करेगा।

सोमवार, 21 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 7


                                                            गिरीन्द्र नाथ झा


मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह

इन पंक्तियों ने मुझे रोक लिया और सड़क के पार देखने के लिए मैं इस ब्लॉग 

अनुभव

के पन्ने पार करने लगी, और अब है ये पोस्ट 

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अनुभव: किसान की डायरी से सुखदेव की कहानी


बहुत धूप है। अक्टूबर में इतनी तेज़ धूप! विश्वास नहीं होता। सुखदेव कहता है - ' दो-तीन बरख पहले तक दुर्गा पूजा के वक़्त हल्की ठंड आ जाती थी। आलू के बीज बो दिए जाते थे लेकिन इस बार, हे भगवान! ई धूप खेत पथार को जलाकर रख देगा, उस पर हथिया नक्षत्र। बरखा भी ख़ूब हुई है। अभी तो बांकी ही है बरखा।  मौसम का पहिया बदल गया है बाबू। तुमने देखा ही कहाँ है उस मौसम को..." मैं आज सुखदेव को लगातार सुनने बैठा हूं। स्टील की ग्लास में चाय लिए सुखदेव कहता है- " चाह जो है न बाबू, ऊ स्टील के गिलास में ही पीने की चीज़ है। हमको कप में चाह सुरका नै जाता है। कप का हेंडल पकड़ते ही अजीब अजीब होने लगता है। लगता है मानो किसी का कान पकड़ लिए हैं:)  वैसे आपको पता है कि पहले पुरेनिया के डाक्टर बाबू भट्टाचार्यजी मरीज के पूरजा पे लिख देते थे- भोर और साँझ चाह पीना है, कम्पलसरी! अब तो बाल बच्चा सब चाह पिबे नै करता है।आपको पता नै होगा। आपके बाबूजी होते तो बताते। " मैं सुखदेव से धूप और फ़सल पर बात करना चाहता था लेकिन आज वह चाय पर बात करने के मूड में है। 80 साल के इस वृद्घ के पास अंचल की ढेर सारी कहानियाँ है। उसने गाम घर और बाजार को बदलते देखा है। उसके पास चिड़ियों की  कहानी है। मौसम बदलते ही नेपाल से कौन चिड़ियाँ आएगी, किस रंग की, चिड़ियों की बोली।  सब उसे पता है। लेकिन बात करते हुए विषयांतर होना कोई उससे सीखे :) सुखदेव की बातों में रस है। जब गाँव में पहली बार मक्का की खेती शुरू हुई थी, जब पहली बार हाईब्रिड गेहूँ की बाली आई थी और जब पहली दफे नहर में पानी छोड़ा गया था..ये सब एक किस्सागो की तरह उसकी ज़ुबान पे है। नहर की खुदाई में उसने हाथ बँटाया था। सुखदेव बताता है- " कोसी प्रोजेक्ट का अफ़सर सब गाम आया। उससे पहले पुरेनिया से सिंचाई डपार्टमेंट का लोग सब आया। ज़मीन लिया गया तो पहले मालिक सबको सरकारी रेट पर ज़मीन का मुआवज़ा मिला और इसके बाद हमरा सब का बारी आया और मुसहरी टोल का टोटल लोग सरकारी मज़दूर बनकर नहर के लिए मिट्टी निकालने लगे। आज ई धूप में भी ऊ दिन याद करते हैं न तो देह सिहर जाता है। गर्व होता है, हमने गाम के खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए नहर बनाया है। इस गाम में भी कोसी का पानी हमने ला दिया। जिस दिन बीरपुर बाँध से ई नहर के लिए पानी छोड़ा गया, उस दिन जानते हैं क्या हुआ? धुर्र, आपको क्या पता होगा, आप तो तब आए भी न थे ई दुनिया में। बाबू, ऊ दिन कामत पर बड़का भोज हुआ और साँझ में बिदापत नाच। ख़ुद ड्योढ़ी के राजकुमार साब अपने बड़का कार से आए थे बिदापत नाच देखने। आह! ई पुरनका गप्प सब यादकर न मन हरियर हो जाता है..कोई पूछता भी नहीं है। " सुखदेव बातचीत के दौरान नहर की तरह बहने लगा। वह हाट की बात बताने लगा लेकिन विषयांतर होते हुए दुर्गा पूजा के मेले में चला गया। चालीस साल पहले की बात, मेले में थिएटर और कुश्ती कहानी! उसने बताया कि तब मेले में बंगाल की थिएटर कम्पनी आती थी। धान बेचकर जो पैसा आता, वह सब मेला में लोग ख़र्च करते थे। सुखदेव ने माथे पे गमछा लपेटते हुए कहा- " गमछा तो हम मेला में दो जोड़ी ख़रीदते ही थे। बंगाल के मालदा ज़िला वाला गमछा। लाल रंग का। अब ऊ गमछा नै आता है। तब इतना पैसा का दिखावा नहीं था। पूरा गाम तब एक था। उस टाइम इतना जात-पात नै था। पढ़ा लिखा लोग सब कहते हैं कि पहले जात-पात ज़्यादा था लेकिन ई बात ग़लत है जबसे पोलिटिक्स बढ़ा हैं न बाबू, तब से जात-पात भी बढ़ा है। बाभन टोल का यज्ञ वाला कुँआ तब सबका था। बुच्चन मुसहर हो या फिर सलीम का बाप, सब वहीं से पानी लाते थे और जगदेव पंडित तो काली मंदिर के लिए अच्छिन- जल यहीं से ले जाता था। अब होता है, बताइए आप? अब तो जात को लेकर सब गोलबंद हो गया है बाबू। " बातचीत के दौरान सुखदेव ने अचानक आसमान की तरफ देखा और कहा- " रे मैया! सूरज तो दो सिर पसचिम चला गया। तीन बज गया होगा। जाते हैं, महिष को चराने ले जाना है। कल भोर में आएँगे और फिर चाह पीते हुए कहानी सुनाएँगे। काहे कि आप मेरा गप्प ख़ूब मन से सुनते हैं..." सुखदेव निकल पड़ा और मैं एकटक उस 80 साल के नौजवान को देखता रहा। अभी भी वही चपलता, सिर उठाकर चलना, बिना लाठी के सहारे और स्मृति में पुरानी बातों का खजाना...

रविवार, 20 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 6




गरीब हो या अमीर 
पति हो या पत्नी 
दिल से मित्रता करने का पहला रास्ता है - पेट !
सबसे अहम माँग - पेट की भूख 
फिर कपडा और मकान !!

शुरूआती मुश्किल दौर में आदमी कुछ भी कच्चा-पक्का खा लेता था, फिर वह बेहतर से बेहतर स्वाद ढूँढने लगा , कुकिंग कोर्स, कॉम्पिटिशन और कुछ अनोखा बनाने की कोशिश इंसान करने लगा।  

आइये 

भुक्खड़ घाट Bhukkhad Ghat पर


एक नया अड्डा उन फूडीज के लिए जिन्हें पसंद है पकाना, खाना और खिलाना।

भुक्खड़ों की एक टीम यहाँ हर बार परोसेगी कुछ दिलचस्प और मजेदार पकवान। तो यदि आप

 भी हैं खाने और खिलाने के शौक़ीन तो जरूर लगाइये एक चक्कर इस ब्लॉग का और लीजिये आनंद।

क्योंकि - 

टमी खुश तो सब खुश -


भुक्खड़ घाट Bhukkhad Ghat: दाल बरूले...


बारिशों का मौसम हो और कुछ गरमागरम तले हुए नाश्ते की बात न हो तो कैसी बारिश। आमतौर पर पकोड़े और चाय ने बारिश के साथ अपना पैक्ट किया हुआ है परन्तु बेसन होता है थोड़ा भारी तो आज सीखिए यह बरूले - हलके भी, पौष्टिक भी और बारिश के लिए एकदम फिट. 
सामग्री -

धुली मूंग की दाल - एक कटोरा 
आलू - दो माध्यम आकार के 
हरी मिर्च - 1 -2 
अदरक - एक इंच 
नमक 
मिर्च 
तलने के लिए तेल 

विधि -
दाल को एक घंटा पानी में भिगो दें 
अब इसका पानी निकालकर (जितना हो सके ) हरी मिर्च, और अदरक के साथ मिक्सर में पीस लें 
अब इसमें आलू छीलकर, छोटा छोटा काटकर मिलाएं
नमक, मिर्च स्वादनुसार डालें और अच्छी तरह से मिक्स कर कर लें 
अब एक कढ़ाही में तेल गर्म करें 
इस मिक्सर को चम्मच या हाथ से पकोड़ों की तरह गर्म तेल में छोड़ें 
मद्धयम आंच पर सुनहरा होने तक तलें. 
अब एक किचन टॉवल /अखवार पर निकालें और 
अपनी मनपसंद चटनी के साथ खाएं, खिलाएं. बारिशों का मौसम हो और कुछ गरमागरम तले हुए नाश्ते की बात न हो तो कैसी बारिश। आमतौर पर पकोड़े और चाय ने बारिश के साथ अपना पैक्ट किया हुआ है परन्तु बेसन होता है थोड़ा भारी तो आज सीखिए यह बरूले - हलके भी, पौष्टिक भी और बारिश के लिए एकदम फिट. 
सामग्री -

धुली मूंग की दाल - एक कटोरा 
आलू - दो माध्यम आकार के 
हरी मिर्च - 1 -2 
अदरक - एक इंच 
नमक 
मिर्च 
तलने के लिए तेल 

विधि -
दाल को एक घंटा पानी में भिगो दें 
अब इसका पानी निकालकर (जितना हो सके ) हरी मिर्च, और अदरक के साथ मिक्सर में पीस लें 
अब इसमें आलू छीलकर, छोटा छोटा काटकर मिलाएं
नमक, मिर्च स्वादनुसार डालें और अच्छी तरह से मिक्स कर कर लें 
अब एक कढ़ाही में तेल गर्म करें 
इस मिक्सर को चम्मच या हाथ से पकोड़ों की तरह गर्म तेल में छोड़ें 
मद्धयम आंच पर सुनहरा होने तक तलें. 
अब एक किचन टॉवल /अखवार पर निकालें और 
अपनी मनपसंद चटनी के साथ खाएं, खिलाएं. 


सामग्री :

छोटी लौकी - 1
एक कप सूजी 
एक कप दही 
इनो - 1 छोटा चम्मच 
नमक 
तेल 
तड़के के लिए -
प्याज - 1 मीडियम  
करी पत्ता 
राई 
लालमिर्च साबित 
हरा धनिया 
चाट मसाला - 1 छोटा  चम्मच 

विधि - 
सूजी में दही और जरुरत के अनुसार पानी मिला कर गाड़ा घोल (इडली जैसा) बनाएं. 
उसमें छीलकर कसी हुई लौकी डालें. 
नमक और इनो और एक बड़ा चम्मच तेल मिलाकर अच्छी तरह मिक्स कर लें. 
अब एक कुकर या इडली स्टैंड में पानी गर्म करने रखें. 
इडली स्टैंड पर थोड़ा तेल लगाकर कर यह घोल डालें.
अब इस भरे हुए स्टैंड को बर्तन में रखकर इडली की तरह भाप में पकाएं. 
करीब 15 बाद एक छुरी से पोक करके देखें वह साफ़ निकल आये तो मतलब इडली पक गईं. 
इडली पक जाएँ तो उन्हें निकालें और उनके बाईट साइज पीस काट लें.
अब एक फ्राइंग पेन में 2 बड़े चम्मच तेल गर्म करें. 
उसमें प्याज, करी पत्ता, राइ, मिर्च डालें. 
प्याज सुनहरा होने पर उसमें इडली के पीस डाल दें और चाट मसाला बुरक कर अच्छी तरह मिला लें .
अब इडलियों को प्लेट में निकालें और हरे धनिये से सजा कर मनपसंद चटनी के साथ परोसें .



सामग्री - 
साबूदाना 100 ग्राम - कम से कम 4 घंटे पहले पानी में भिगोया हुआ 
आलू 4 - उबले 
कुछ काली मिर्च साबित 
नमक 
सफ़ेद मिर्च पाउडर 
तलने के लिए तेल 

विधि -
उबले आलू को छील कर कद्दूकस कर लें. 
साबूदाने का पानी निकालकर अच्छी तरह निचोड़ लें.
अब आलू में साबूदाना, नमक, सफ़ेद मिर्च मिलाएं.
हाथ पर थोड़ा सा तेल लगा कर छोटी छोटी मछली के आकर की कटलेट बना लें 
इनकी आँख बनाने के लिए एक एक काली मिर्च का प्रयोग करें
एक नॉन स्टिक पैन में तेल गरम करें 
और तेज आंच पर इन कटलेट को सुनहरा होने तक सकें 
आपकी सहकारी गोल्ड फिश तैयार हैं 
इन्हें धनिया की हरी चटनी या टोमेटो कैचप के साथ परोसें. 

शनिवार, 19 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 5




ब्लॉग से लोग दूर होने लगे तो फेसबुक एक छोटा मोटा ब्लॉग सा हो गया।  एक ब्लॉग, कई कलम  ...
मैं उफ़क तक जाकर उन्हें भी बटोरती हूँ और जैसे चिड़िया अपनी चोंच में दाने लाती है बच्चों के लिए, तिनके लाती है नीड़ के लिए  ... मैं इन्हें ले आती हूँ जीवन को जानने के लिए, वक़्त को जीने के लिए  ....... 


2016 की प्रत्यंचा पर देखिये -

जो कि रास्ते का प्रत्यय है,
चलन है उसमें
वहां से यहां तक पैरों का :
मैं इस बिवाई से रिसते लहू की बूंद
रास्ते में आयी नदी की ओर
उछाल दूं..
(और वह उसे छू जाये)
तो क्या नहीं एक पुल बन जाएगा
इस किनारे से उस किनारे तक!
या एक नाव..
या सामने खड़ा हो जाएगा पहाड़ कोई,
बिंब जिसका नदी में दिखाई देता है;
कहोगे जो तुम, लहू पानी हो गया!


कुत्तों के दिन बदलते है।..पर..(लघुकथा)
एक बूढ़ा आदमी नदी किनारे टहल रहा था।..वहां एक कुत्ता आया।कुत्ता भांप गया कि यह बूढ़ा नदी में कूदकर आत्महत्या करना चाहता है।..
' बाबा, रुक जाइए।आत्महत्या क्यों करने जा रहे है आप?' कुत्ते ने नजदीक आ कर पूछा।
' जीवनभर मैं हंमेशा दूसरों की भलाई करने में लगा रहा।...बदले में मुझे बुराई, बे इज्जती, अवमानना,ठोकरें और धिक्कार के सिवाय कुछ न मिला।ऐसी जिंदगी और जी कर मैं क्या करूंगा?' बूढ़े ने जवाब दिया।
' ..लेकिन बाबा।..यह सब तो मेरे साथ भी हो रहा है।..मुझे भी अपनी वफादारी निभाने के ऐवज में यही सब मिल रहा है।मैं कहाँ आत्महत्या करने जा रहा हूँ?..आप हौसला रखें बाबा।..मरने की न सोचें। आप के दिन जरुर बदलेंगे।..मेरी माँ कहती थी कि कुत्ते के भी दिन बदल जाते है।'
' नालायक, कुत्ते-कमीने।..भाग जा यहां से।मुझे क्या कुत्ता समझ रखा है, जो मेरे दिन बदलेंगे?'..कहते हुए बूढ़े आदमी ने नदी में छलांग लगा दी।कुत्ता वहीं खड़ा था..सोच रहा था कि....
'अच्छा है जो मैं कुत्ता हूँ।..इन्सान होता तो मेरे दिन कभी न बदलते और बूढ़े बाबा की तरह मैं भी......'

मुझे इंसान की चार ज़ातों का पता चला है
इस दुनिया में रहने वाली
हुकूमत, भड़काऊ, अवाम और सिपाही
हुकूमत का काम है
चिंगारी पैदा करने वाले चकमक घिसना
भड़काऊ उस में तुरंत पेट्रोल डालते हैं
फिर नफ़रत का धुँआ
फिर जंग की आग
लेकिन केवल अवाम और सिपाही होते हैं खाक़
वैसे हमारा सिपाही भी अवाम ही है.....केवल अवाम
शायद इसलिए वह हुकूमत न बन सका
बस उसके इशारे में धूल में शहीदी देने वाला मोहरा है
हुक्मराँ नीतियाँ बनाता है
भडकाऊ उस पर मक्खन चुपड़ कर अवाम में फैलाता है
चलो देशवासियों!! आज की अगली चाय दुश्मन की छावनी में
फेसबुक,ट्विटर, व्हाट्सएप पर भीड़ है देश भक्तों की
जो पूरी जंग के दौरान
मक्खन कम नही होने देंगे
सिपाही बंकर में छुपा है
अगले विस्फोट और अगली कमांड के इंतज़ार में
उसके माँ-बाप की नींद उस दिन से हराम है
जिस दिन ऐलान किया हुकूमत ने
देश के लिए फर्ज़ निभाने का
माँ मन्नतों की ख़ुराक पर है
बाप दहशतों की
बीवी बार-बार अपने बच्चे आँचल में समेट कर दुआ कर रही है
हे प्रभु! जंग मत होने देना
वह सपूत!
जो अपना पूरा परिवार छोड़ कर आया है
समाज के भरोसे
देश के लिए मिसाइल दागने
वह जानता है वह कभी भी चिथड़ों में बदल जाएगा
वह डरता नही
पर रोता है सूखे आँसू
बंकर में मैगजीन भरते हुए
उसके हाथ नहीं काँपते
वह शहीद होने से नही डरता
पर फिर भी याद आ जाता उसे
कि उसके घर की छत की सीलन तब ठीक होगी
जब वह छुट्टियों में घर जा सकेगा
जंग होने , जीतने तक
मुद्दा होती है देश की आन
न सैनिकों की जान
न अवाम के हक़ का अमन
जंग जीत गये हम
अब जमादार लाशें समेटेगा
जवानों की विधवाएँ छाती पीटेंगी
अवाम उनके बच्चों को सरकार सुविधा देगी
शहीद की पेंशन बढ़ेगी और कोई चक्र या तमगा भी मिलेगा उसे
जीत के भाषण देगी
दुश्मन को भयाक्रांत करेगी
फिर ????
समझौता मीटिंग
मीडिया की चकचक
मगर सैनिक के घर के छत की सीलन
नही सूखेगी
उसकी माँ के आँसू जो बरसते रहे हैं
अवाम न बँटवारा चाहती थी
न दुश्मनी
न जंग
अवाम अमन को तरस रही है
दशकों से
पर हुक्मरानों को तब भी और अब भी पता है
कि अवाम कुछ नही कर सकती
हुक्मरानों की कुर्सियों की फसल
तब भी और अब भी
अवाम के खून में ही पनपती है

रावण के अट्टहास में गहरा व्यंग्य है
हमारी समझ को ललकारने का
राम जब कण - कण में बसते
रोम -रोम में रमते तो क्या रावण में न होंगे
राम ही प्राण
समझ रावण के रावणत्व को देख पाती
राम छुपे ही रहते हमारी नजर से
सबहिं नचावत राम गोसाईं
रावण भी तो यही सोच कर हँसता होगा
खुद को जलाये जाने का आयोजन देखता होगा
अहम् ब्रम्हास्मि तत्वमसि के दर्शन वाले जम्बूद्वीप में
आज भी समझ और नासमझ दो बहनें
एक हारती रहती
दूसरी जीतती जाती

ज़िंदगी तेरी उदासी का कोई राज भी है
तेरी आँखों में छुपा ख्वाब कोई आज भी है
पतझड़ों जैसा बिखरता है ये जीवन अपना
कोपलो जैसे नए सुख का ये आगाज भी है
गुनगुना लीजे कोई गीत अगर हों तन्हा
दिल की धड़कन भी है साँसों का हसीं साज भी है
वो खुदा अपने लिखे को ही बदलने के लिए
सबको देता है हुनर अलहदा अंदाज भी है
काम करना ही हमारा है इबादत रब की
इस इबादत में छिपा ज़िंदगी का राज भी है
कुछ कलम के यहाँ ऐसे भी पुजारी हैं हुए
सामने राजा ने जिनके दिया रख ताज भी है
काम करता जो बुरे लोग हैं नफरत करते
काम गर अच्छे करे तब तो कहें नाज भी है 

अवरोध (अशोक आंद्रे)
(कविता)
मैंने,
अँधेरे के उस पहर के सिरे को,जब
पकड़ना चाहा 
हर क्षण उदास लम्हों ने
मेरे चारों ओर
घेराबंदी की.
जहां अनुतरित प्रश्नों के मध्य,वह
बर्फ की सघन गहराईयों में दबा
कराहता मिला.
ऐसा क्यों होता है?
जब,मैंने कोई सवाल
अन्तरिक्ष में उछाला.
उसी वक्त ,तुमने
किसी दुसरे के स्लोगन को
अनाम पोस्टर की तरह
मेरे मुहं पर चिपका दिया
और, अर्थहीन पोस्टर की तरह
घने कंक्रीट जंगलात में
तुम्हारा चेहरा
बन्द मुट्ठी के बीच पसीजता दीखा
ओर मैं गति अवरोधक की तरह
दूसरों को अपने ऊपर से
गुजरते हुए देखता रहा
शायद अँधेरे का बोध
यही होता होगा ?
गति अवरोधक की तरह.
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