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शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 11





कहते हुए  ... 
कहने से परे कुछ कहते हुए 
भावनाओं के कई कमरों से 
एक कमरा खोलकर बैठी हूँ 
खोल दी हैं खिड़कियाँ 
सीखचे के पास बैठी है चिड़िया 
सुना रही है अपने घोसले की बातें  ... 

हृदय गवाक्ष  से कंचन सिंह चौहान 






" कितनी दिलकश हो तुम,कितना दिलजू हूँ मैं,
क्या सितम है कि हम लोग मर जायेंगे. "

सुबह 6 बजे से यह शेर गूँज रहा है दिल-ओ-ज़ेहन में. 

अम्मा और मौसी यूँ किसी देश, किसी शहर तो छोड़िये किसी गाँव के भी इतिहास में इनका नाम दर्ज़ होने वाला नहीं. लेकिन ये दोनों अपने पिता द्वारा किये गये 'गिलहरी प्रयास' का  सफल रूप रहीं.

उनके पिता यानी नाना जी. नाना जी जब सिंगापुर से भारत वापस आये तो और लोगों की तरह कालीनें, फ़ानूस, पैसा ले कर नहीं आये थे. वे अपने साथ कागज़ और क़लम ले कर आये थे. और ये कागज़ और क़लम कोई बिम्ब नहीं असलियत के कागज़ क़लम थे. 

१९४२ में जब अम्मा ९ साल की और मौसी १२ साल की थीं तब नाना जी स्वदेश वापस आये थे. इसके बाद उन्होंने गाँव-गाँव जा कर वो सारे  क़लम और दस्ती कागज़ बाँटे जो वे विदेश से ले कर आये थे. दुद्धी खड़िया, स्लेट, सब...!

उन्होंने अगल-बगल गाँव की लड़कियों के  माता-पिता को कन्विंस कर स्त्री-शिक्षा के लिए तैयार किया. उन्हें अपने पैरों पर खड़े  होने को प्रेरित किया. कहते हैं कि उस समय उस गाँव के अगल-बगल की बहुत सी लडकियाँ अध्यापिका की ट्रेनिंग ले कर आयीं. 

यह अलग बात है कि शादी के बाद उनमे से अधिकांश की नौकरी छुड़वा दी गयी. 

लेकिन नाना जी का वश अपनी बेटियों पर था. उन्होंने उनकी शादी उन्हीं वरों से की जो नौकरी के विरोध में नहीं थे.

अम्मा और मौसी उस पिछड़े इलाके वाले गाँव में उन दिनों की किंवदन्तियाँ थीं. 

१९४२ की बात छोडिये मेरे पास उस क्षेत्र के आज के भी अनुभव यह हैं कि एक पुत्र के लिए तीन-तीन शादियाँ की जाती हैं और ९ लडकियाँ पैदा की जाती हैं. उस समय में नाना जी ने अपना परिवार दो बेटियों पर सीमित करने का निर्णय लिया. तब भी, जब वे बहुत बड़ी सम्पत्ति के अकेले वारिस थे. 

जाने क्या सोच कर उन्होंने बेटियों को नाम भी थोड़े पुरुषीय ही दिए थे, 'कैलाश-विलास' और शुरू से पत्रों में लिख कर भेजा था कि उन्हें पढने भेजा जाये. 

नाना जी के सिंगापुर से आने के पहले उन दोनों ने पायल, आयल, कड़ा, पछेला, नाक के विभिन्न ज़ेवर जिनका नाम मैं भूल रही हूँ पहन रखे थे और  तेल लगा-लगा कर खूब लम्बे बाल किये थे. 

नाना जी ने आने के बाद एक दिन नई को बुलाया और दोनों लडकियों को उसके सामने बैठा दिया. उनके सारे जेवर उतरवा दिए गये, जो नहीं उतरे उन्हें कटवा दिया गया और फिर उनके लम्बे-लम्बे बालों को इतना छोटा कर दिया गया जितना उस समय लड़कों की जुल्फी होती थी. और इसके बाद दोनों से कहा," विद्यार्थी जीवन का श्रृंगार विद्या है और कुछ नहीं." 

और दूसरे दिन उनकी एकलाई धोतियों की जगह कुरते पैजामों ने ले ली. 

दोनों ने खूब डिबेट्स में भाग लिया. कविताओं का संग्रह किया. गीत-संगीत की सहभागी हुईं. शादी-विवाह में देशभक्ति की गालियों (जिसे सरकारी गाली) से महफिल लूटी. 

मैंने देखा उन दोनों के तेजस्वी दिनों को. जब उनके ओज में दमक थी. आवाज़ में ठसक. बच्चों में अनुशासन, बड़ों में सम्मान.

एक लम्बी उम्र बितायी उन्होंने इस तरह.

दोनों बहनों ने खूब साथ दिया. उन्होंने अपने माता-पिता की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं जताया, लेकिन उनके प्रति कर्तव्य दोनों बहनों ने सामान्य रूप से निभाया.

मुझ उपेक्षिता को अगर कोई अपने घर बुलाता था तो वे मौसी ही थीं. बचपन में मौसी ही थीं जो गिफ्ट की सोचती थीं. हम सब बहनों ने १२-१३ की उम्र में सोने की बालियाँ मौसी की दी हुई पहनी और जिनकी शादी हुई उन्होंने ने नथ.

आज सुबह तीन बजे मौसी स्मृति-शेष रह गयीं.

इधर आँख से देखते-देखते सब कुछ उल्टा चलने लगा था या कहिये हर चीज़ अपने चढ़ान के बाद उतार पर आती है.  यूँ मौसी भी कहती थीं कि अम्मा की स्मरण-शक्ति मौसी से ज्यादा है. लेकिन मौसी की भी कम नहीं थी. मैंने देखा है अम्मा से कितने ही पहले पैदा हुए लोग अम्मा से अपनी उम्र कन्फर्म करते थे. अम्मा के पास सबका पत्रा था. 

लेकिन अब दोनों को कल की चीज़ें नहीं याद रहतीं. मैंने देखा बूढी काया में बच्चा पलने लगा. पल में बातें बुरी लगतीं और पल में सब सामान्य.

10-10 पन्ने की चिट्ठियों और बेसिक फोन पर दो-दो घंटे बात करने वाली अम्मा-मौसी अब बात करने में थक जातीं.


मैं ५ फरवरी को मौसी से मिली थी. उनसे कहा, "मौसी आप अब पैसे नहीं देतीं." उन्होंने लम्बी-लम्बी चलती साँसों के साथ बहू की तरफ देखा और 100 रूपये की थाती मेरे हाथ पर रख दी. मैंने वह रूपये वहाँ रख दिए जहाँ अम्मा के दिए २०० रूपये रखती हूँ, जब-जब कानपुर से आती हूँ. 

आज सुबह जब खबर मिली तो पहला ख्याल अम्मा का आया. एक लम्बी उम्र तक साथ निभाने वाली सखी उनकी थीं उनकी मौसी.

अम्मा, जिनके लिए यह मशहूर था कि जवार में किसी के घर लड़की विदा हो तो अम्मा तीन दिन तक खाना-पीना छोड़ देती हैं. वो अम्मा जो मोहल्ले-टोले की याद में आँसू बहा लेती थीं. 

वह अम्मा ग़ालिब का वह शेर बन गयीं कि 

रंज से खूँगर हुआ इंसा तो मिट जाता है रंज, 
मुश्किलें इतनी पड़ी मुझ पर कि आसाँ हो गयीं.

वे अम्मा जो बाबूजी के खत्म होने के दो साल बाद तक शाम छः बजे दरवाज़े पर खड़ी हो जाती थीं उस रस्ते पर नजर रखे हुए जिस से बाबूजी शाम को लौटते थे, वे अम्मा जो भईया के जाने के बाद घर के बायीं तरफ वाली सड़क को नहीं देखती थीं क्योंकि भईया वहीँ कुर्सी डाल कर बैठते थे, उन अम्मा को सुबह फोन किया तो उन्होंने शांत भाव से कहा," तुम्हारी मौसी भी चली गयीं. एक वही थीं, जो लम्बे समय से हमारा साथ दे रही थीं, आज वो भी गयीं."

सुबह से अजीब निस्पृह सा हुआ है मन, अजब वैरागी सा. जब अंत यही है तो भला शुरुआतें क्यों इतनी जगमग होती हैं ? जब अंत यही है तो भला इच्छाएं क्यों इतनी होती हैं ? एक दिन सब मिट जाएगा...सब, सब, यह धरती, यह सृष्टि... हम जानते हैं, फिर भी लगे हुए जैसे करोड़ों वर्ष का ठेका हमारे सर दे कर भेजा है किसी ने.

कबीर का 

साधो ये मुर्दों का गाँव...

शैलेन्द्र का 

दुनियाँ बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी...

सब गड्ड-मड्ड हैं...! 

4 टिप्‍पणियां:

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