आज अपना ऑफिस में एगो एस्मार्ट नौजबान
लड़का को जब उंगली पर हिसाब जोड़ते देखे, तब जाकर हमको अपना पुराना जमाना का पढाई
याद आया अऊर अपना सिच्छक लोग याद आये, जिनका पढ़ाया हुआ अभियो तक हमरे दिमाग में
बैठा हुआ है. अब बताइये भला अठारह अऊर बारह तीस होता है, इसके लिये आपको
कागज-पिंसिल चाहिये, कि अंगुली के पोर पर हिसाब करने का जरूरत है! अगर एतना छोटा
हिसाब उंगली पर जोड़ना पड़े, तब तो महाखलनायक गब्बर सिंह के सब्दों में – “अपने सिच्छक
लोग का नाम पूरा मिट्टी में मिलाय दियो!” सोचिये ई लोग का हाल होगा जब मामला आधा पर
आएगा... नहीं समझे? अरे जब 18 अऊर 12 के लिये कागज पिंसिल चाहिये, त पौने बारह अऊर
सवा पाँच जोड़ने में त पसीना छूट जाएगा. पहिले त ई बताना पड़ेगा कि पौने अऊर सवा का
होता है.
पटना में हमरे ऑफिस में एगो मद्रासी अफसर
का पोस्टिंग हो गया. सुरू सुरू में बहुत दिक्कत होता था उसको, खान-पान से लेकर बोली-भासा
के कारन. ऑफिस का अस्टाफ लोग उसको एगो गनित सिखा दिया था कि उसके घर से ऑफिस तक का
रेक्सा भाड़ा अढ़ाई रुपया (बिहार ढ़ाई नहीं बोलते हैं, इससे वजन कम हो जाता है) होता
है अऊर अढ़ाई माने दू रुपिया आठ आना. कुछ रोज के बाद, चाय के दोकान पर जब ऊ चाय का
पैसा देने लगा त दुकानदार बोला, “डेढ़ रुपिया हुआ”. ऊ रोज उसके गनित में एगो नया
आँकड़ा जोड़ा गया. ऊ पूछा कि डेढ़ माने का होता है. अऊर जब उसको पता चला कि डेढ माने
एक रुपिया पचास पैसा, तब उसके गोड़ के नीचे से धरतीये घसक गया.
पूछने पर बताया कि एक रोज ऊ रोज के तरह
ऑफिस से घर जा रहा था, मगर रेक्सा नहीं मिला. त ऊ बेचारा धीरे-धीरे पैदल बढ़ने लगा.
थोड़ा दूर पर एगो रेक्सा देखाई दिया. भाड़ा पूछने पर ऊ बोला, “डेढ़ रुपिया.” हमरे ई
मद्रासी बाबू बोले कि देखो भाई, हम रोज आते-जाते हैं, अढ़ाई रुपिया देंगे. चलना है
त चलो! रेक्सा वाला इस्टेसन वाला हनुमान जी को परनाम किया अऊर उनको ले गया. एही
नहीं, ई सिलसिला अऊर केतना बार हुआ. ऊ तो बेचारे को जब डेढ़ माने समझ में आया त
माथा पीट लिया.
ई हिसाब किताब पहिला जमाना में केतना
अच्छा था. हमरे स्वर्गीय दादा जी सवा, अढाई, डेढ़ का पहाड़ा तक याद रखते थे. बड़ा से
बड़ा हिसाब जुबानी हल कर देते थे. अब कहाँ गया ऊ पहाड़ा अऊर कहाँ गया ऊ सवैया. उनका
सवाल होता था – कै नवाँ दू तीन चार. अऊर हम कहते थे छब्बीस. ऊ पूछते थे सोल सोल (16X16) और हम कहते थे दू छप्पन (256). आज अगर कोई ई सब गनित का हल जुबानी कर देता
है त समझिये कि बैंक कलर्क का परिच्छा का तैयारी कर रहा है.
मोहावरा अऊर
कहावत में बहुत सा ऐसा आँकड़ा मिलता था. नौ दिन चले अढाई कोस को अगर छोड़ भी दीजिये
त सन्नी देओल का ढाई किलो का हाथ जिसपर पड़ता है वो उठता नहीं उठ जाता है, अपना आप
में ऐतिहासिक डायलाग है.
हमरे पटना में
एगो इस्कूल है – टी.के. घोष अकैडमी. इतिहास के नाम पर एही समझिये कि बाबू राजेन्द्र
प्रसाद अऊर बिधान चन्द्र राय ओहीं से पढ़े हैं. हमरे पिता जी भी ओहीं के होनहार
छात्र रहे, लेकिन समय के साथ नाम एतना खराब हो गया कि एगो कहावत चल पड़ा पटना में
कि पढना-लिखना साढे बाइस, टिकिया घोस में नाम लिखाइस. अब एहाँ साढे बाइस मतलब ऊ
बिद्यार्थी जिसका भगवाने मालिक है अऊर टिकिया घोस का मतलब बताने का जरूरते नहीं
है.
त आज आपलोग अपना
भरा पूरा जिन्नगी से आधा, चउथाई अऊर पौना घण्टा का टाइम निकालें अऊर ई पोस्ट को आसीर्बाद
दें अऊर बाकी का लिंक देखिये अऊर सराहिये काहे कि ई हमरा पोस्ट है ब्लॉग-बुलेटिन
का साढ़े बारह सौवाँ पोस्ट. अऊर हमारा नारा है –
ब्लॉग बचाओ – ब्लॉग पढ़ाओ !!
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बुलेटिन की प्रस्तुति को तो ढाई मिनट में पढ़ मारा! वही अदा, वही अंदाज ए 'चला बिहारी..., देख कर लगता है अब दिल्ली दूर नहीं!
जवाब देंहटाएंखूब बढ़िया .... मेरी पोस्ट शामिल की, आभार
जवाब देंहटाएं1250वीं पोस्ट पोस्ट करने पर ढेर सारी बधाइयाँ ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन....बहुत बहुत बधाई.....
जवाब देंहटाएंरोचक प्रसंग के साथ १२५० वीं बुलेटिन प्रस्तुति में मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंमुँह जबानी जोड़-घटाव का तो जमाना ही नहीं रहा..सिंगल डिजिट का हिसाब भी अब कैलकुलेटर से करते हैं लोग-बाग..हैरानी होती है देखकर..खैर! आपका स्टाइल बहुत अच्छा लगा, बधाई..
जवाब देंहटाएंताजगी भरी पोस्ट . गिनती-पहाड़ों पर एकदम सच्ची और अपनी मौलिक शैली , जिसकी प्रतीक्षा वर्ष से भी ज्यादा लम्बी होगई ,में लिखी गईं रोचक बातें हैं .एक बार जब हमारे मकान पर काम चल रहा था ,मैं छोटे बेटे को एकिक नियम के सवाल समझा रही थी .बच्चा स्लेट पर भाग और फिर गुणा करके उत्तर निकालता उससे पहले एक गिट्टी ढोने वाले मजदूर ने मौखिक ही सही उत्तर देकर मुझे चकित कर दिया .मैं तो आज भी केलिकुलेटर का इस्तेमाल नही करती .
जवाब देंहटाएंखूब खुस रहा बबुआ...नीक पोस्ट बा
जवाब देंहटाएंखूब खुस रहा बबुआ...नीक पोस्ट बा
जवाब देंहटाएंमन कचोटता है मेरा भी जब फेसबुक पर घमासान होते देखता हूँ. कई पुराने मित्रों के बदलते तेवर भी देख रहा हूँ. ऐसे में बहुत याद आता ही ब्लॉग की दुनिया और ब्लॉग का पुराना समय, जब बहुत झगड़े होते थे, लेकिन उनका शोर सिर्फ उतना ही होता था, जितना घरेलू बरतनों के टकराने का. जिनसे झगड़ा, उन्हीं से प्यार भी. कई रिश्ते वहीं से बने.
जवाब देंहटाएंआपकी सराहना हमारा और बुलेटिन की टीम का प्रोत्साहन है. आभार!!!
हम भी तो वहीँ आपको एक 'बड़े-बूढ़े' भाई के रूप में जाने..फिर बाद में छोटे भाई में परिवर्तन हो गया आपका..कितना आश्चर्य हुआ था जब आप अपने ब्लॉग वाले फोटो का रहस्य खोले थे..
हटाएंहजार जमा अढ़ाई सौवीं पोस्ट का आंकड़ा पूरा करने पर ब्लॉग बुलेटिन को बधाई!!! एक अच्छी बात इस पोस्ट से यह हो रही है कि अपने बिहारी बाबू जी ने साल भर बाद पुन:अपने पर ब्लॉग पर लौटने की बात कही है। ...धन्यवाद सलिल जी!!! आपकी चुटकीली बातें फिर से पढ़ने को मिलेंगी।
जवाब देंहटाएंसच्ची ! हम लोग शिथिल तो हो गये हैं ।
जवाब देंहटाएंब्लाग बुलेटिन तथा सलिल आप को भी धन्यवाद
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की पूरी टीम और सभी पाठकों को १२५० वीं पोस्ट की इस कामयाबी पर ढेरों मुबारकबाद और शुभकामनायें|
जवाब देंहटाएंसलिल दादा और पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से सभी पाठकों का हार्दिक धन्यवाद ... आप के स्नेह को अपना आधार बना हम चलते चलते आज इस मुकाम पर पहुंचे है और ऐसे ही आगे बढ़ते रहने की अभिलाषा रखते है |
ऐसे ही अपना स्नेह बनाए रखें ... सादर |
सलिल भाई का नाम देखते हम दौड़े दौड़े आते हैं ... एकरा अलावे कुछ नाम हैं, जिनको हम पढ़ते ही पढ़ते हैं बिना केहु जोड़ घटाव के।
जवाब देंहटाएंउमर के साथ जिम्मेदारी बढ़ गई टी कई बार टिप्पणी नहीं दे पाते, पर घमासान क्या छोटको युद्ध नहीं करते। बस लिखते हैं, उहो पहिले से कम आउर पढ़ते हैं।
हिसाब में हम बहुत कमजोर हैं, दो दो केतना पर भी हदस जाते हैं :)
वाह
जवाब देंहटाएंसलिल जी,
वाह :-)
वाह सलिल जी वही तेवर बरकरार है जो सालों पहले थे बधाई
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