नमस्कार साथियो,
क्या लिखा जाये,
क्या नहीं; किस बात पर चिंतन किया जाये और किस बात पर चिंता; किस मुद्दे का
सामाजीकरण किया जाये और किसका राजनीतिकरण समझ से परे है. इस असमंजस के बीच
स्व-लिखित बुन्देली कविता के साथ आज की बुलेटिन.
आनंद लेने का प्रयास कीजिये और
समाज में नित नए तरीके से पैदा होते/किये जाते विवादों के समाधान खोजने का भी
प्रयास करियेगा.
शेष अगली बुलेटिन
में....
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अब है कछु करबे की बिरिया,
आँखन से दूर निकर गई निंदिया।
उनके लानै नईंयाँ आफत,
मौज मजे को जीबन काटत,
पीकै घी तीनऊ बिरिया।
अब है कछु करबे की बिरिया॥
अपनई मन की उनको करनै,
सच्ची बात पै कान न धरनै,
फुँफकारत जैसें नाग होए करिया।
अब है कछु करबे की बिरिया॥
हाथी घोड़ा पाले बैठे,
बिना काम कै ठाले बैठे,
इतै पालबो मुश्किल छिरिया।
अब है कछु करबे की बिरिया॥
कर लेयौ लाला अपयें मन कौ,
इक दिना तो मिलहै हमऊ कौ,
तारे गिनहौ तब भरी दुफरिया,
अब है कछु करबे की बिरिया॥
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अत्यन्त विचारणीय सूत्र...
जवाब देंहटाएंराजा कुमारेन्द्र सिंह जी इस हेतु आपका धन्यवाद। बहुत सुंदर प्रयास आपके द्वारा एक बार पुनः धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंजय हो राजा साहब ... जय हो !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार!
बहुत सुन्दर प्रयास हैै यह। मैइसमे सम्मिलित की गई अच्छा लगा।
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