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गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (३१)


समय कंधे पर हाथ रखकर पूछता है 
"सबकुछ अभी अभी यहीं था न?"
समय की हथेली थामकर 
दबी रुलाई उसे सौंपती हूँ 

नीलिमा शर्मा 

मुझे मेरा शहर आवाज़े लगा रहा है 

मुझे सुनाईदेती हैंआवाज़े
पहाड़ के उस पार की
घाटी में गूंजती सी
मखमली ऊन सी हवा
फंदा-दर फंदा
साँस देती हुयी
आवाहन करती हैं
जीने की जदोजहद से निकलने का
.
सपने देखतीहूँ
मैंअक्सर आजकल
हरी वादियों के
घंटाघर कीबंद घडियो में
अचानक होते स्पंदन के
बाल मिठाई के
बंदटिक्की और
खिलती हुयी धूप के
कितना मुश्किल होता
विस्थापन
पहाड़ से कंकरीट के
जंगल में आकर रहना
एकसाथ पाकर अपनों को
अपने को ही खो देना
चार माले के एक फ्लोर पर
पांच कमरों वाले घर में
मुझे यादआते
अपने २५० गमले
डेहलिया गुलदाउदी
टाइल्स वाले पक्के आंगन में
खिलती कच्ची धूप
दुधिया मक्का
उस पर सर्दी का रूमानी मौसम
हो ना हो कहीऐसा
मुझे मेरा शहर आवाज़े लगा रहा हो
रुआंसा सा
उदास होकर....

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर । बाल मिठाई में पहाड़ों की खुश्बू बसी होती है ।

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  2. नीलिमा जी की चुनिंदा रचना प्रस्तुति हेतु आभार!

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  3. bahut sundar rachna...insan chahe kahin base, uska man to apne angan me hi basa karta hai

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  4. नीलिमा दीदी को अक्सर पढ़ते हैं ... आभार रश्मि दीदी एक बार फिर यह अवसर देने के लिए |

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  7. रश्मि जी आप की ये कविता बहुत ही सुन्दर है आज के दौर में लोगो को अपना जीवनयापन करने के लिए घर से बहार जाना पड़ता है लेकिन फिर भी वाहा की यादें जीवन में बस जाती हैं आपने पूरी यादो को बहुत ही सहज भाव से प्रस्तुत किया है आप अपनी ऐसी ही कविताएं शब्दनगरी ..
    पर भी प्रकाशित कर सकती हैं । .....

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