कुछ एहसास गिरते हैं शाखों से
छन्न से
उतरते हैं सूर्य किरणों से
छन्न से
दुबक जाते हैं मन की ओट में
दुबक जाते हैं मन की ओट में
छन्न से
2015 जनवरी-दिसम्बर तक उठा लाई हूँ एहसास हथेलियों पर अपने अवलोकन के आधार पर
2015 जनवरी-दिसम्बर तक उठा लाई हूँ एहसास हथेलियों पर अपने अवलोकन के आधार पर
दर्शवीर संधु
सम्भाले रखना
तुम
धुंए के
उठने तक
देह की हांडी
सम्भाले रखना
मैं चाहता हूँ
विरह की
धीमी आंच पे
ता उम्र पकना
कि
सांस सांस
फैली रहे
एकसार
कढ़ने की महक
कि
तू नमक की तरह
छुए
और मैं
पानी हो जाऊं
तू मिले
तो
जैसे
पीठ के ज़ख्म
मिलते हैं
कोसे पानी से
जैसे
जाड़ों की जमी
सांस
कंठ की तपिश
छूते ही
धुंध हो जाये
जैसे
कांच पे
पिघलती
बहकी बर्फ की नमी
सुनो,
तुम
रिश्तों के दरख़्त से
पतंग की तरह
न उलझना
बस
टूटते पत्ते की
सारी हरियाली
ताज़ा कोंपल को सौंप
चुपके से
मेरे बहाव पर
आ टिकना
फिर हम
ज़र्द मिट्टी को
नयी बरसातों से
निखारेंगे
सुना है
लौटतीं मुर्गाबीआं
सौंधी सी सीलन को
बरगद के बीज
दे जाती हैं
दर्शवीर संधु जी की सुन्दर रचना प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंsundar rachna
जवाब देंहटाएंAnupam prastuti
जवाब देंहटाएंसत्य कहा है...
जवाब देंहटाएंप्रतिभाओं की कमी नहीं है...
अगर सब को आप जैसा मंच देने वाला हो...
आभार आप का इन सब से मिलाने के लिये....
इस अवलोकन के माध्यम से आप भी एक तरह से हम सब को संभालें ही हुये हैं... आभार दीदी |
जवाब देंहटाएंवाह !
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