समय एक प्रवाह है
चाहो न चाहो - बहा ले जाता है
एक क्षण में आदमी कहाँ से कहाँ होता है !
ब्लॉग से हम जुड़े करीबन 2006 - 2007 से, आज हम 2015 के आखिरी पायदान पर हैं, इस बीच हमें फेसबुक मिला, ट्विटर से हम जुड़े, ऑरकुट खत्म हुआ ....
ब्लॉग बुलेटिन पर प्रतिभाओं की कमी नहीं का अवलोकन शुरू हुआ 2011 से, अभी मैं हूँ तो 2015 का अवलोकन भी प्रस्तुत है … आगे, कुछ वर्ष होंगे अपने हाथ में, ऐसा सोचती हूँ !
मैं न पूर्ण हूँ, न सार … पर कुछ पढ़ना सीखा है अपने नज़रिये से, उसी नज़रिये से अवलोकन करती हूँ, 2015 के प्रायः समापन तक की एक श्रेष्ठ रचना आपलोगों के समक्ष रखती हूँ। इस बार इस अवलोकन में फेसबुक भी शामिल होगा, क्योंकि कई कलमकारों को मैंने वहीँ पढ़ा है …
स्थिर और स्थाई
स्थिर और स्थाई में अंतर है
एक बहना नहीं जानता
एक बहा पहले निरंतर है
स्थिर और स्थाई में अंतर है
स्थिर, थिरका करता था कभी
अब पद्मासन में विलीन है
अनुभव की धारा में
बह बह के थिरकन थमी है
जिसमे आत्म्बोध की
सुनहरी परत जमी है
जिसने सूर्य की सलामी ली है
मदिरा सी जवानी जी है
जिसने भाग्य को ललकारा है
भय को जिसने डकारा है
जो आदि से है, अनंत तक
और चेतना से, अमर है
वो स्थिर है
स्थाई लंबायमन है
ना गौरव है ना शान है
जिसमे भय को ललकारने की
गर्मी नहीं है
और इस बात से पानी हो जाने की
बेशर्मी नहीं है
जो जीना नहीं जानता
जो अमरता नहीं मानता
जो मर कर भी
उस पार नहीं फांदता
जो ना बांझ है
ना उपजाऊ है
ना भाला है किसी के हाथ का
किसी के पैर का ना है खड़ाऊ
जिसने विजय का प्याला नही चखा
ना ही मूह की कभी खाई है
वो स्थाई है
स्थिर और स्थाई में अंतर है
एक बहना नहीं जानता
एक बहा पहले निरंतर है
स्थिर और स्थाई में अंतर है
बहुत सुंदर प्रस्तुति । इंतजार रहेगा हर अगली कड़ी का एक नई प्रतिभा के उजास के साथ ।
जवाब देंहटाएंइस अवलोकन के बहाने न जाने कितनों से दोबारा परिचय होगा ... साधुवाद आपको |
जवाब देंहटाएंअनुपम ध्यानी जी की सुन्दर सार्थक प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंसुंदर...
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