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गुरुवार, 28 अगस्त 2014

समझें और समझायें प्यार की पवित्रता को - ब्लॉग बुलेटिन



नमस्कार साथियो,
गुरुवार की बुलेटिन के साथ आपका मित्र कुमारेन्द्र उपस्थित है. पूरे सप्ताह बुलेटिन की प्रस्तावना को लेकर जद्दोजहद रहती है. एक-दो अच्छे संदेशों के अलावा जो भी सुनाई देता है वो सिर्फ और सिर्फ क्रंदन ही रहता है. मन भटकता है, विचलित होता है किन्तु ‘शो मस्ट गो ऑन’ के दर्शन के चलते लगातार आगे ही आगे बढ़ना होता है. इसी विचलित करने और आगे बढ़ने की अवस्था के बीच एक शब्द आजकल समाज में तैर रहा है और वो है ‘लव जिहाद’ का. सत्य क्या है, ये एक अलग विषय है किन्तु आज जिस तरह से प्यार के नाम पर खिलवाड़ होने लगा है वो अवश्य ही चिंतित करता है.
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टीनएजर्स पढ़ाई, कैरियर से ज्यादा प्यार की तरफ आकर्षित दिख रहे हैं. विपरीतलिंगी साथी के साथ बढ़ती नजदीकियाँ हमारे किशोरों को उनके रास्ते से भटका रही है. एकतरफा प्यार करने के, जबरन प्यार स्वीकार करवाने के अनेक किस्से सहजता से सुने-देखे जा सकते हैं और इस तरह के प्यार में बच्चियाँ तेजाबी हमलों का, शारीरिक हिंसा का शिकार हो रही हैं, हताशा-निराशा में लड़कों में अपराध, नशे, अवसाद की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है. इसके अलावा अनब्याही माँ, आत्महत्या करती लडकियाँ, गर्भपात से होते शारीरिक नुकसान को भी देखा जा सकता है.
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आज अधिकांश माता-पिता खुद को अपने बच्चों के दोस्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं किन्तु उनकी यथोचित परवरिश में कहीं न कहीं चूक कर जाते हैं. अपने बच्चों के प्रेम-संबंधों पर भले ही हम खुश न हों पर आज की आधुनिक शिक्षा में उनके अधिक से अधिक विपरीतलिंगी साथी देखकर बहुत खुश हो लेते हैं. इस जरा सी असावधानी में अक्सर हमारे बच्चे गलती कर बैठते हैं और खामियाजा उठाते हैं. हम अपने बच्चों को प्यार करना सिखाएं, उन्हें बताएं कि वाकई प्यार क्या है, उन्हें बताएं कि प्यार कितना पवित्र और महान है. आज सिर्फ उनको ही नहीं सम्पूर्ण समाज को प्यार की आवश्यकता है. क्या हम समझा पाएंगे अपने बच्चों को प्यार का सही अर्थ?
विचार करिए... आगे बढ़िए और आनन्द लीजिये आज की ब्लॉग-लिंक्स का....
आभार...!!!

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चित्र गूगल छवियों से साभार

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

बच्चों के साथ बच्चा बनकर तो देखें - ब्लॉग बुलेटिन



नमस्कार मित्रो,
कई बार अबोल की स्थिति होती है; सब कुछ सहज होते हुए भी असहज सा लगता है; कहने की स्थिति के बाद भी कुछ न कहने का मन करता है; भीड़ में होने के बाद भी अकेलापन महसूस होता है; बहुत-बहुत व्यस्त होने के बाद भी खालीपन का एहसास बना रहता है. कुछ लोगों की नजर में ये मानसिक अवसाद की स्थिति होती है तो कुछ लोग इसे नैराश्य का भाव कहते हैं. कई लोगों के अनुसार ये विभ्रम की स्थिति है तो कुछ लोगों के मुताबिक किसी बीमारी के लक्षण. कुछ भी हो मगर ऐसा होना सही नहीं है और विडंबना देखिये कि हमारी आज के युवा, किशोरवय और बचपन की मानसिकता कुछ ऐसी ही दिखती है. सभी अलग-अलग तरह की अपेक्षाओं के बोझ से दबे अपनी उम्र से अधिक बड़े बनने-दिखने का प्रयास कर रहे हैं. 
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इस स्थिति को गौर किया जाना चाहिए, आज माता-पिता और बच्चों के बीच मित्रवत व्यवहार देखने को मिल रहा है. अभिभावकों में अपने बच्चों की समस्याओं-परेशानियों को जानने-समझने की मानसिकता भी दिख रही है. इसके बाद भी बच्चों में हताशा का भाव है, परिवार से भागने का भाव है, अपने माता-पिता के प्रति उदासीनता का भाव है, उनके प्रति बेरुखी का भाव है. शायद यही कारण है कि बहुत बड़ी संख्या में ये बच्चे अपराध, आत्महत्या, नशे आदि की गिरफ्त में आते जा रहे हैं. हमें जागना होगा, माता-पिता को समझना होगा कि मंहगी-मंहगी बाइक देकर, मोटा-मोटा जेबखर्च देकर, कुछ देर बैठ कर उनसे मित्रवत बात करके बच्चों की मनोदशा को समझा नहीं जा सकता है.  बच्चों के साथ भरपूर समय गुजारने की जरूरत है, उनको ये एहसास करवाने की जरूरत है कि वे उनसे दूर नहीं हैं. हम सभी को समझना होगा कि बच्चे भविष्य की धरोहर हैं और उन्हीं के कांधों पर समाज निर्माण की जिम्मेवारी है.
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आइये हम अपनी व्यस्तता में से कुछ समय निकालें और अपने युवाओं के, किशोरों के, बच्चों के दिल में बैठने का, उनके साथ घुलने-मिलने का कार्य करें. आप भी बच्चे बनकर देखिये, आपके बच्चे तो प्रसन्न होंगे ही आपको भी अच्छा लगेगा. करके देखिये ऐसा..... फिर मिलते हैं अगली बुलेटिन के साथ. तब तक के लिए नमस्कार....!!!
तब तक इस बुलेटिन का आनंद उठायें....
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प्यारी माँ

जुवेनाइल: किशोर या छिछोर

संयुक्त परिवार की अहमियत

कैसे कहें कि हम आज़ाद है?

मैं रक्त-बीज हूं.. जी उठता हूं…!!

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

सोचा, कुछ कह लूँ




नैनं छिदन्ति शस्त्राणि  … आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकता 
नैनं दहति पावकः  … आत्मा को अग्नि नहीं जला सकती 
न चैनं क्लेयन्तयापो  … आत्मा को पानी नहीं गला सकता 
न शोषयति मारुतः।।  … आत्मा को हवा नहीं सुखा सकती  … पर शरीर ? जिससे हम जुड़े होते हैं, जिसकी ऊँगली पकड़ ज्ञान की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं, उनका नहीं दिखाई देना, खुद को समझाना कि 'वे हैं' … यह असहनीय होता है पर जिम्मेदारियों की भाषा के आगे हम गीता सार का मरहम लगाते हैं अपनी सोच, अपनी दिनचर्या को और उठ जाते हैं !!!
नहीं उठे तो वह ऊँगली हम नहीं हो सकेंगे जिनकी मजबूती ने हमें बनाया 
नहीं उठे तो हम आगत को कोई चिन्ह नहीं दे सकेंगे  .... विवशता कहो या प्यार या कर्तव्य, उठना है और चलना है  … 
है न शिवम भाई ? अपने कार्तिक के लिए खुद को तैयार करना होगा, जानती हूँ आपकी सोच कि 
"मेरे दिल के किसी कोने मे ... एक मासूम सा बच्चा ... बड़ों की देख कर दुनिया ... बड़ा होने से डरता है |" पर बड़ा होना पड़ता है अपने मासूम के लिए 
और सबसे बड़ी बात - हम सब हैं न। 
पापा जी को याद करते हुए हमसब अपना काम करें, कुछ ऐसे -


अंततः, यूँ ही सोचा - कह लूँ,

गीता हमें जीवन के शत्रुओ से लड़ना सीखाती है, और ईश्वर से एक गहरा नाता जोड़ने में भी मदद करती है। गीता त्याग, प्रेम और कर्तव्य का संदेश देती है। गीता में कर्म को बहुत महत्व दिया गया है। मोक्ष उसी मनुष्य को प्राप्त होता है जो अपने सारे सांसारिक कामों को करता हुआ ईश्वर की आराधना करता है।

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

ब्लॉग बुलेटिन - टूटे लिंक की चुभन

बहुत अच्छा लगता है जब आपके शब्दों की लोग तारीफ़ करते हैं. ख़ुद को बहुत अच्छा लगता है कि कभी सोचा न था कि इतने सादगी भरे लफ़्ज़ों में इतनी गहराई छिपी होगी. लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सारे लफ़्ज़ चुक जाते हैं, शब्द शेष हो जाते हैं, अभिव्यक्ति मौन हो जाती है और आवाज़ें ख़ामोश हो जाती हैं. ये ख़ामोशी उस लाचारी की है जब दिल में बहुत कुछ कहने की इच्छा होती है, लेकिन कहते हुये ज़ुबान पर ताले पड़ जाते हैं और डिक्शनरी के सारे शब्द खोखले मालूम पड़ने लगते हैं.
सत्ताईस जुलाई को मेरे पिताजी की पुण्यतिथि थी. उनकी याद में मैंने एक पोस्ट लिखी जिसपर एक कमेण्ट आया:
”काश कि (मेरे) पापा भी इतनी इच्छा शक्ति दिखाएँ और सिगरेट छोड़ दें... आज सुबह हॉस्पिटल के बेड पर मैंने ही जलाकर पिलाई... उनकी उँगलियों की ग्रिप में आजकल सिगरेट नहीं आ रही है।“

हस्पताल, मरीज़, पिता, पुत्र और सिगरेट... ये सारा कॉम्बिनेशन अजीब सा नहीं लगता? मुझे भी लगा था. मैंने फ़ोन मिलाया और सारी बात जाननी चाही. मरीज़ की हालत इतनी संगीन होगी, सोचकर कलेजा दहल गया.

अगले दिन ही एक एक सन्देश मिला फेसबुक पर:
जानेतन्हा पे गुज़र जाए हज़ारों सदमे,
आँख से अश्क रवाँ हों ये ज़रूरी तो नहीं। (साहिर लुधियानवी)
आज पापा का 78वाँ जन्मदिन है... पर इस बार हमेशा की तरह हमलोग खुश नहीं हो पा रहे हैं. पापा के साथ हम मिलकर लड़ रहे हैं... हमें भी चाहिये... परमवीरों को भी दुआएँ चाहिए होती हैं.. आप सब की दुआएँ चाहिए।

दुआओं ने शायद असर दिखाना शुरू कर दिया... 30 जुलाई को सन्देश मिला:
पापा की सेहत में आए सुधार को देखते हुये डॉक्टरों से घर जाने की अनुमति मिल गई है. आप सभी की दुआएँ असर कर गई, ऐसे ही स्नेह बनाए रखिए।
वही दिन... अगला मेसेज:
जब आपकी तेज़ रफ़्तार गाड़ी शहर की एक भीड़-भाड़ वाली सड़क पर हूटर बजाती हुई बढ़ी जा रही हो और लोगबाग उस हूटर का सम्मान करते हुए दाएँ-बाएँ हो गाड़ी को निकलने की जगह देते हों, यह दृश्य एक अलग अनुभूति को जन्म देता है.. पर वो सुखद नहीं होती... जब वो गाड़ी एक ऐम्बुलेंस हो.

इन सारे मेसेज में बिखराव, अस्थिरता और बेतरतीबी साफ़ दिखाई दे रही थी. मतलब, भले ही ऊपर से सारी स्थिति नियंत्रण में हो, लेकिन माहौल तनावपूर्ण ही बना हुआ था.

अब होगा असली संघर्ष एक बार फिर से उठ खड़ा होने का अपने आत्मबल के दम पर हमेशा की तरह... जीत आपकी ही होगी... और मुझे पूरा यकीन है... गेट वेल सून पापा!

30 जुलाई के बाद सन्देश नहीं दिखाई दिये. लगा सब ठीक ही चल रहा होगा.

5 अगस्त 2014... अपनी तमाम मसरूफियात के बीच अचानक रात में मैंने फ़ोन मिलाया. उम्मीद थी ख़बर अच्छी ही होगी. लेकिन उधर से आवाज़ में वही थकान और मायूसी एक उम्मीद में लिपटी हुई.
“अब कैसी है तबियत?”
”नहीं दादा! पार्शियल कोमा की हालत है!”
”खाना पीना?”
”लिक्विड दे रहे हैं वो भी पाइप से!”
”पहचानते हैं किसी को?”
”आँखें खोलते हैं बीच-बीच में...!”
”मुझे ख़बर करते रहना!”
”जी दादा प्रणाम!”
”खुश रहिये!”
मेरे अन्दर एक अजीब सी बेचैनी घर कर रही थी!

06 अगस्त 2014:
ऑफिस के काम से कोर्ट गया था. फ़ोन साइलेण्ट पर था. अचानक जेब में थरथराहट हुई और जब फ़ोन निकाला तो देखा, मेसेज था. डरते-डरते मेसेज खोला.
“सब ख़तम!”
सनाक सा हो गया मन. इतना ही उत्तर दे पाया “हे भगवान!!”
जब मोहलत मिली तो कई बार फ़ोन करने की इच्छा हुई. लेकिन मन कचोट कर रह गया. आँखों के सामने घूम गयी वो सारी तस्वीरें!
आजतक उन्हें सिर्फ तस्वीरों में ही देखा. अपने पोते को दुलारते. जन्मदिन पर, एनिवर्सरी के मौक़े पर, फ़ादर्स डे और न जाने कितने मौकों पर कितनी तस्वीरों में उन्हें देखा किये. और आज जब वो हमें छोड़कर चले गये, तो एक बार भी फ़ोन करने की हिम्मत नहीं हुई!

क्योंकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सारे लफ़्ज़ चुक जाते हैं, शब्द शेष हो जाते हैं, अभिव्यक्ति मौन हो जाती है और आवाज़ें ख़ामोश हो जाती हैं. ये ख़ामोशी उस लाचारी की है जब दिल में बहुत कुछ कहने की इच्छा होती है, लेकिन कहते हुये ज़ुबान पर ताले पड़ जाते हैं और डिक्शनरी के सारे शब्द खोखले मालूम पड़ने लगते हैं.
परमात्मा बाउजी श्री नन्दन मिश्र की आत्मा को शांति दे और भाई शिवम मिश्र तथा परिवार के सभी सदस्यों को यह अपार दु:ख सहने की क्षमता प्रदान करे!

आज कोई लिंक नहीं... क्योंकि कुछ लिंक्स जब टूट जाते हैं तो बस उनकी चुभन बाक़ी रह जाती है और सम्य-समय पर बेचैन करती रहती है!
ऊँ शांति, शांति शांति!! 

रविवार, 10 अगस्त 2014

रक्षाबंधन विशेष - ब्लॉग बुलेटिन



नमस्कार साथियो,
आज भाई-बहिन के पवित्र प्रेम का प्रतीक-पर्व रक्षाबंधन है. भारतीय संस्कृति सदैव से पर्वों-त्योहारों के हर्षोल्लास में पल्लवित-पुष्पित होती रही है. हमें प्रेम के बंधन में बांधते ये त्यौहार हमारी सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक हैं. इसी महान सांस्कृतिक विरासत के मध्य रक्षाबंधन  महज एक रेशमी धागे को कलाई पर बाँधने का पर्व मात्र नहीं है. ये रेशमी धागा कर्तव्यबोध, दायित्वबोध, पावनता, प्रेम-स्नेह आदि का भान करवाता है और रिश्तों की पवित्रता के प्रति भी सचेत करता है.
भारतीय संस्कृति में रक्षाबंधन के कई प्रसंग हैं, इनमें पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक प्रसंग प्रमुखता से देखे जा सकते हैं. पौराणिक कथाओं के अनुसार असुरों के हाथों पराजय के बाद देवताओं में निराशा का भाव उत्पन्न हो गया था. तब गुरु वृहस्पति के दिशा-निर्देश से इन्द्राणी ने इन्द्र सहित समस्त देवताओं को रक्षा-सूत्र बाँध कर उन्हें उत्साहित किया था. पत्नी द्वारा पति को रक्षासूत्र बाँधने से आरम्भ हुआ रक्षाबंधन का पर्व आज भाई-बहिन के पावन-प्रेम का पर्व बन गया है. रक्षाबंधन पर्व के रूप में रेशमी डोरी को आज कई प्रसंगों में रक्षार्थ बोध जगाने हेतु बाँधते देखा जाता है. पर्यावरणीय महत्त्व के लिए कुछ जागरूक नागरिक वृक्षों को रक्षा-सूत्र बाँधते दिखते हैं तो इसके साथ-साथ भारतीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्त्ता आपस में रक्षा=सूत्र बाँधते हैं. कई स्थानों पर ब्राह्मणों को, गुरुओं को रक्षा-सूत्र बाँधने की परम्परा है. इसके बाद भी सामान्य रूप से माना जाता है कि भाई-बहिन का स्नेहिल बंधन है रक्षाबंधन.
समाज का चलन बदला, समाज की प्रकृति बदली तो संबंधों में भी बदलाव देखने को मिलने लगा. चंद लोगों की निगाह में पर्व-त्यौहार एक तरह की औपचारिकता मात्र रह गए या फिर परम्पराओं का निर्वहन. इसी कारण ऐसे लोगों के द्वारा सवाल खड़ा किया जाने लगा कि राखी रेशम की डोरी, उपहारों का लेन-देन या जिम्मेदारी है? इस तरह की शंकाओं के चलते ही समाज में भाई-बहिन के संबंधों को भी शंका से देखा जाने लगा है. इसी के चलते बहिनों को असुरक्षा का बोध होने लगा है. इसी कारण से कुत्सित प्रवृत्ति के लोगों ने सहजता से हमारे घरों में घुसपैठ करना शुरू कर दिया है. समाज कुछ भी कहे, संबंधों में गर्माहट भले ही कम दिख रही हो, रिश्तों में शुष्कता आ रही हो वहाँ वर्चुअल होते संबंधों के बीच सात समुद्र पार भी राखी का क्रेज सहजता से देखा जा सकता है; मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया, व्हाट्सएप्प के ज़माने में भी रक्षाबंधन - राखी - विशेष : बहन का भाई के नाम दो असलीपत्र का लिखना भी देखा जा सकता है. ये कहीं न कहीं आशान्वित करता है और मन कहीं से आवाज़ देता दिखता है कि अभी सब कुछ ख़तम नहीं हुआ है. सब कुछ अच्छा ही अच्छा होगा ऐसी आशा तो की ही जा सकती है. इसी आशा के साथ आज रक्षा बंधन के दिन मुझे बचपन में सुनी कजरी के बोल याद हो आये, जिसको आप सभी बहिना- भैया सुनो! और अपने मित्र को आज्ञा दें... अगली बुलेटिन तक के लिए. चलते-चलते चंद मुक्तक - राखी सन्देश देते हुए.
सभी को रक्षाबंधन की शुभकामनाएँ..!! 
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विशेष :- आज की विशेष बुलेटिन, कुछ विशेष तरह से सजाई गई है.... प्रस्तावना पढ़ते-पढ़ते आप लिंक का आनन्द उठायें.... :)
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चित्र गूगल छवियों से साभार