एक्के नाम को दू तरह
से कहने में केतना फरक पड़ता है. कोनो अदमी को गदहा कह दीजिये त गुसिया जाएगा,
लेकिन ओही अदमिया को बैसाखनन्दन कहिये त हो सकता है कि ऊ अपना कॉलर चढाने लगे. नाम-नाम
में केतना अंतर होता है. फागुन कह देने से मन का ओही हाल होता है जो प्रियंका
चोपड़ा को देखकर अर्जुन अऊर रनबीर का हुआ था माने
तूने मारी एंट्रियाँ/तो दिल में बजी घण्टियाँ रे /टन्न्न्न!!!
असल में फागुन के
हवा में मदहोस कर देने वाला भांग मिला होता है. जो पिया ऊ त नाचता ही है, जो नहीं
पिया ऊ भी झूमने लगता है. एही नहीं जिसके पिया साथ हों ऊ त फागुन में बौराइये जाती
है, जिसके पिया साथ नहीं हो उसका हाल का कहें. मुहल्ला भर का छोरा सब भउजी कहकर
छेड़ता रह्ता है. हमरे बिहार-ऊपी में त मसहूर है कि फागुन में बुढवा देवर लागे!! जाड़ा
खतम अऊर गरमी दरवाजा खटखटाने लगता है. बीच-बीच में बरखा का फुहार, असल में माघ
महीना में बसंत-पंचमी के बादे से सुरू हो जाता है –
एक, दू, तीन... तेरा करूँ दिन गिन गिन के इंतजार, आजा पिया आई बहार!
एक, दू, तीन... तेरा करूँ दिन गिन गिन के इंतजार, आजा पिया आई बहार!
तनी बरेक लगाइये...
एही फागुन को हम मार्च कहें त आप लोग का रिऐक्सन होगा?? मार्च माने बच्चा लोग का
परिच्छा, गार्जियन को ऐनुअल फीस देने का फिकिर, बित्त-बरिस खतम होने के पहिले
टैक्स का इंतजाम, का मालूम पूरा पगार मिलेगा कि नहीं ई चिंता, इनभेस्टमेण्ट पूरा
हो गया कि कहीं बकाया रह गया, सब देखना. एतने में चैन कहाँ. ऑफिस में रोज सामने
चार्ट पसारकर देखना पड़ता है कि कौन टारगेट केतना से छूट रहा है. ईहो डर बना रहता
है कि गलती से टारगेट पहिले पूरा हो गया त कहीं ऊ लोग टार्गेट बढ़ा न दे. मोबाइल
अऊर टेलिफोन का घण्टी गब्बर सिंघ के आने के समय बजने वाला बैकग्राउण्ड म्यूजिक
काफिक लगता है. अऊर फोन उठाने पर उधर से आवाज़ आता – “कितने टारगेट हुए!”
कुल मिलाकर फागुन का
भांग में इमली का चटनी वाला काम. केतना बार त नींद में भी लगता है कि ठाकुर बलदेओ
सिंघ हमको गब्बर के जइसा दबोचे हुए है अऊर बोल रहे हैं –
“ये मार्च नहीं, फाँसी का फन्दा है!!”
“ये मार्च नहीं, फाँसी का फन्दा है!!”
एही सब के बीच में
राजनीति भी गरमाया हुआ है. त सुनिये राजनीति में सत्ता के खींचतान पर हमरा एगो
तुकबन्दी अऊर मजा लीजिये फागुन, मार्च और नया पोस्ट सब का:
अबके किसके हाथ लगेगी, मचा हुआ था शोर,
लिये रिझाने कमल हाथ में, और पंजे का जोर,
झाड़ू लेकर दौड़ा कोई, बोले तोर न मोर,
खड़ी बसंती एक कोने में ताके सबकी ओर,
जोतखी बाबा अब तो तुम्ही किस्मत बाँचो,
दीठ गड़ाए इन कुकुरन की नीयत जाँचो,
हमें रिझाने मर्द ये कैसे बने हैं ‘माचो’, (Macho
Man)
“बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचो!”
त अब अनुमति दीजिये.
आपलोग आनन्द लीजिये!!
हमहूँ को उल्लू कह दीजिये आशीर्वाद पाईयेगा :) जीते रहियेगा ब्लाग में हजार बरस । सुंदर हेमा मालिनी बुलेटिन :)
जवाब देंहटाएंफागुनी रंग में रँगा हुआ यह बुलेटिन आपके उत्साह से भरापूरा है । चयनित सुन्दर रचनाओं में मेरा आलेख भी है ,देखकर अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंफगुआ के रंग में रंगा लाजबाब बुलेटिन.
जवाब देंहटाएंआधा फागुन आधा मार्च- जैसे अाधे भारतीय और अधकचरी अँगरेजियत धारे हमलोग !
जवाब देंहटाएंबहुरंगी लिंक्स पढ़ने को मिलीं -आपका आभार .नचारी शामििल करने के लिए कृतज्ञ हूँ .
बहुत ही बढ़िया ,फेस बुक पर लगा दिए हैं। तनिक ये भी देख लीजिये -राजनीति के रंग http://chaltechalate.blogspot.com/2014/03/blog-post.html
जवाब देंहटाएंek......khoob jogar diye hai.......chhak ke 'jugali' karte hain...........
जवाब देंहटाएंpranam.
सलिल भाई - फागुनी रंग तो धिनक धिनक चढ़ा है :)
जवाब देंहटाएंजय हो सलिल दादा ... जय हो | खूब रंग जमाये ... जय हो |
जवाब देंहटाएंमार्च का चार्ज है, शेष डिस्चार्ज है।
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंyek sans me padh jane layak faguni khabar diyen...chutili chutki ke sath filmi rang bhi achha laga.....
जवाब देंहटाएंचटपटी बुलेटिन - जय हो दादा
जवाब देंहटाएंआधा फागुन -आधा मार्च ..लगता ही नहीं कि एक ही है..सुन्दर और अलग सोच..मानना पड़ेगा..
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