गुरुदेव के गीत “ऐकला चॉलो रे” से प्रभावित होकर गीतकार/संगीतकार रवीन्द्र जैन
ने एक गीत लिखा था
सुन के तेरी पुकार
संग चलने को तेरे कोई हो न हो तैयार
हिम्मत न हार
चल चला चल, अकेला चल चला चल!
चलते रहने का यह मूल
मंत्र एक लम्बे समय से हर मुसाफ़िर का हौसला बढाता आया है. “जो राह चुनी तूने/ उस राह पे राही चलते जाना है.. यही गुनगुनाते हुए न जाने कितने मुसाफ़िरों ने
अपनी मंज़िल पाई. और कहते हैं ना कि सफर का असली आनन्द तो चलते जाने में है, मंज़िल
पाने में वो मज़ा कहाँ. लेकिन अर्जुन की तरह जबतक लक्ष्य पर दृष्टि न हो, भटकाव का
डर बना रहता है और यात्रा का आनन्द भंग हो जाता है.
जिस दिन से चला हूँ, मेरी मंज़िल पे नज़र है,
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा!
ऐसे ही कुछ लोगों ने
मिलकर एक नया ब्लॉग बनाया. लक्ष्य था उस रोज़ या उसके आस-पास प्रकाशित ब्लॉग
पोस्टों को संकलित कर पाठकों के लिए प्रस्तुत करना. लेकिन इसका प्रारूप अन्य
ऐग्रिगेटर्स की तुलना में थोड़ा भिन्न रहा. यहाँ एक पोस्ट, बुलेटिन के तौर पर प्रकाशित
की जाती है, जिसमें उस दिवस से जुड़ी सामान्य जानकारी, कोई घटना, कोई आलेख, प्रसंग
या फिर कविता होती है. सोचा था कि लोग बुलेटिन टीम के सदस्यों के अलग-अलग आलेख भी
पढेंगे और दूसरे ब्लॉग्स की जानकारी भी प्राप्त करेंगे. हर रोज़ एक नई बुलेटिन, एक
नया आलेख और एक नया लेखक. विविधता, विषय के साथ-साथ रचनाकार की भी बनी रही. और
फिर,
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर,
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया!
कुछ मेहमान बुलेटिन
लिखने आए, कुछ नए लोग जुड़े और कुछ बड़े नाम भी साथ हो लिए. बड़ों का योगदान आशीर्वाद
के रूप में ग्रहण किया गया और छोटों का उत्साहवर्धन के तौर पर. प्रारूप उसी हिसाब
से बदलता गया और यहाँ ब्लॉगर विशेष की चर्चा हुई, फेसबुक की पोस्टों का भी ज़िक्र
हुआ, नई-पुरानी पोस्ट साझा की गईं और पहली बार बोलती बुलेटिन का भी आनन्द लिया
हमारे “पाठकों” ने.
मैं शुरू से ही जुड़ा
रहा इसके साथ और लगातार लिखता भी रहा अपनी तमाम व्यक्तिगत परेशानियों की बावजूद भी
जबकि मेरे स्वयम के ब्लॉग पर मेरा लिखना नहीं हो पाता था. इन दिनों मैंने फेसबुक
से दूरी बना ली ताकि ब्लॉग पर ध्यान दे सकूँ और ब्लॉग लेखन में आई मन्दी के दौर को
झुठला सकूँ. लिख रहा हूँ – पढ भी रहा हूँ.
यहाँ भी लगा हूँ जब
तक परमात्मा की इच्छा होगी, लिखता रहूँगा! लेकिन इस पूरी यात्रा में उन सारे गीतों
को याद करते हुए जो मैंने ऊपर कहे, एक गीत भी कुछ इस तरह दिलोदिमाग़ में गूँजता रहा
-
“बिछड़े कई बारी-बारी!!”
“बिछड़े कई बारी-बारी!!”
और ये रही आज की प्रस्तुति:
कोई बिछड़ा नहीं है दादा....आपकी एक पुकार पर सब चले आयेंगे :-)
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन पाठकों को अब भी प्रिय है !!
अब देखती हूँ आपके हाथों चुने रत्न !!
सादर
अनु
आपके उकसाने पर ही मैने अपने दो ब्लॉग में कम से कम 5 पोस्ट लिखी। कई ब्लॉग पढ़े भी हैं। कमेंट कम कर पाता हूँ क्योंकि मुझे कमेंट करने में बहुस समय लग जाता है। पहले बहुत समय हुआ करता था अब उतना ही कम मौका मिल पाता है।
जवाब देंहटाएं...आभार।
बिछड़े कई बारी बारी
जवाब देंहटाएंअकेले चलते रहे
हरीतिमा का अस्तित्व न खत्म हो
नए पौधों से जुड़ते रहे
खुद भी बिछड़ना है
पर उससे पहले कुछ विशेष निशाँ बनाने हैं
ताकि वक़्त निकाल कोई हमें भी सोचे …
सलिल जी ने रत्न भी चुने हैं और कुछ कँकड़ भी ।
जवाब देंहटाएंआभार !
उल्लूक के कंकड़ यानी कड़ कड़
" चल देखते हैं किसकी सीटी कौन अब कितना बजा ले जायेगा"
को जगह देने के लिये
आज के रविवासरीय
ब्लाग बुलेटिन में ।
शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंबिछड़े साथियों की यादों को सहेजते हुये इस कारवाँ को आगे बढ़ाएँ रहेंगे ... :)
जवाब देंहटाएंआदरणीय सुशील जोशी जी की टिप्पणी के लिए:
जवाब देंहटाएंवो मछेरा जो मुँह अन्धेरे समन्दर के किनारे एक गठरी से टकरा कर गिर पड़ा जो पत्थर के टुकड़ों से भरी थी. उसने उन पत्थरों को समन्दर में फेंकना शुरू किया और जब अंतिम पत्थर उसके हाथ आया तो सूरज निकल चुका था. उसने देखा वो थैली अनमोल रत्नों से भरी थी.
ब्लॉग बुलेटिन के सागर में जितने भी पत्थर मैंने फेंके हैं वे सब मेरे लिये रतन हैं, अनमोल रतन!! इंक्लूडिंग उल्लूक टाइम्स!! :) :) :)
अनमोल रत्नों का चयन एवं प्रस्तुति बहुत अच्छी लगी ....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया और आभार सलिल दादा । आपने बहुत सारी बातें कह दीं , आपको पढना हमेशा ही अच्छा लगता है ..स्नेह बनाए रखिएगा
जवाब देंहटाएंसुन्दर, रोचक व पठनीय सूत्र। आभार।
जवाब देंहटाएंआशा है मुझे फिर वक्त मिलेगा...
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