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बुधवार, 11 दिसंबर 2013

प्रतिभाओं की कमी नहीं (32)

ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -


अवलोकन २०१३ ...

कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

अवलोकन २०१३ समापन के नजदीक है ... कल इस का समापन होगा ... एक वादे के साथ कि अगले साल हम फिर मिलेंगे एक और अनोखे सफर के लिए |
 
आज के लिए ... लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का ३२ वाँ भाग ...



(एक पहरेदार से:) मैं तुम्हें सिखाऊँगा इन्तजार करना
मेरी स्थगित मौत के दरवाजे पर
धीरज रखो, धीरज रखो
हो सकता है तुम मुझसे थक जाओ
और अपनी छाया मुझसे उठा लो
और अपनी रात में प्रवेश करो
बिना मेरे प्रेत के !.... फ़िलीस्तीनी कवि - महमूद दरवेश

दुनिया के हर कोने में प्रतिभायें हैं कलम से टपकते एहसासों की, जिनसे एक गहरा रिश्ता बनता है  … स्वतः-हठात 
मन में आता है 
ऐसा ही कुछ मैंने भी सोचा था 
शब्दों के रिश्ते जहाँ बनते हैं 
उन प्रतिभाओं की तलाश में 
जो मिल गया - वह अपना 
जो नहीं मिला !  … क्या वह पराया होता है ?
जाने कितने अजनबी जाने-पहचाने होते हैं 
जैसे - ये सब :)

(केतन)

सुनो..
उस बार की सर्दियों में 
जब दर्द बढ़ गया था मेरे पैरों का 
तुमने ज़िद करके मुझे 
भरी दुपहरी में घुमाया था.. 
पहाड़ी के ऊपर वाले मंदिर में 
घंटो तक बैठे रहे थे हम..
तुम्हारी बातों में कैसे
लम्हों सा गया था वो दिन 

कोशिश करो..
इस बार गर मिलें 
तो एक गठरी में 
अपने यहाँ की धूप साथ लेती आना 
मैंने पैर का दर्द संभालकर रखा है
बैठकर बातें करेंगे फिर से..



(निखिल श्रीवास्तव)

फेसबुक कमाल की उत्पत्ति है। इसके छोटे से नाम में कितनी बड़ी दुनिया और एक अलग ही सभ्यता नित बन बिगड़ रही है, अंदाज़ा लगाना भी मुमकिन नहीं है। हाँ, कुछ रेशे जरुर पकड़ में आ जाते हैं। शायद यही वजह है कि मुझे कभी कभी महसूस होता है कि इस ख़ास सोशल नेटवर्किंग वेबसाईट ने उम्र, वक़्त और रिश्तों का एक चलायमान वर्चुअल म्यूजियम बना दिया है। म्यूजियम इसलिए कि आप चाहकर भी किसी पल को पलट नहीं सकते, किसी टूटे धागे को जोड़ नहीं सकते। बह गए को वापस हासिल नहीं कर सकते। एक नज़र जी भर उन्हें देख सकते हैं बस। 

मोटे तौर पर देखें तो इस म्यूजियम में दो गैलरी हैं। एक है हमारी खुद की टाइमलाइन यानी हमारे अपने रिश्तों और उम्र की गैलरी और दूसरी गैलरी है इंसान से जुड़े तमाम शास्त्रों की। धर्म, संप्रदाय, राजनीति, अर्थ, साहित्य, ज़ाति, विद्रोह, क्रांति और तमाम अगड़म-बगड़म बातों और घटनाओं के रेशे तस्वीरों और शब्दों के सांचे में ढल कर इस गैलरी में सज रहे हैं।  

हमने शायद ही कभी अपनी प्रोफाइल के तमाम ऐसे फीचर्स पर गौर किया हो, जो वक़्त बेवक्त हमें बता देते हैं कि आप रिश्तों के मामले में कितने गंभीर, सचेत और सजग हैं। कौन सा रिश्ता कितना चला, किसने आपको सबसे ज्यादा पसंद किया और कौन-कब-कैसे आपकी ज़िन्दगी में दाखिल हुआ या फिर किसने किस वजह से किसी दिन आपकी दुनिया से रुखसत ले ली। 

फेसबुक पर जब भी किसी से अपनी दोस्ती जांचने के लिए एक ख़ास बटन पर क्लिक करता हूँ, तो बरबस ही वो ख़त याद आ जाते हैं जो एक ज़माने में हमारे लिए रिश्तों की एक मात्र जमा पूंजी हुआ करते थे। लकड़ी के किसी तखत के नीचे अल्युमिनियम या लोहे के बक्से में बड़े जतन से हर ख़त को संजोकर रखा जाता था। जब भी किसी की याद आती थी, वो बक्सा खुलता था। उस दौर में और ऐसा कुछ भी नहीं था जो बता सके कि कब, कौन और कैसे आपकी ज़िन्दगी में दाखिल हुआ। 

इस रिश्तों के म्यूजियम में हर पल का हिसाब मौजूद है। कब कौन आपका दोस्त बना, कब आपको इश्क हुआ और कब आप वापस किसी रिश्ते से छिटककर तनहा रह गए। कब कोई ख्वाब अधूरा रह गया और किस बरस आपने सबसे ज्यादा नए रिश्तों के लिए हामी भरी, इसका भी ब्यौरा इस म्यूजियम में कैद है वो भी तस्वीरों के साथ. 

अगर आपने भी कभी मेरी तरह इस म्यूजियम की टाइमलाइन पलटी होगी, तो आप भी तमाम एहसासों से गुज़रे होंगे। आपने कुछ चेहरों की तलाश भी की होगी और अचानक आपको एहसास हुआ होगा कि न जाने कब किसी रिश्ते की महीन डोर टूट गई। कुछ चेहरे आपके इस म्यूजियम में नहीं नज़र आये होंगे। किसी ख़ास तारीख पर दोस्तों के वो कमेन्ट देखकर मुस्कुराये भी होंगे, जब आपने पहली बार अपने सिंगल स्टेटस को इन अ रिलेशनशिप में तब्दील किया था। 

सबसे खूबसूरत बात ये कि सोशल मीडिया पर मौजूद हर शख्स ने अपनी ज़िन्दगी का एक म्यूजियम बना लिया है। कुछ इससे रु ब रु हैं तो कुछ बेखबर। कई रिश्तों को बीते दौर के खतों की तरह सहेज रहे हैं तो कुछ में होड़ है रिश्तों को आंकड़ों में ढालने की। और मैं, आवारा पथिक की तरह इसकी हर गली, हर मोहल्ले और चौराहे पर लगी नुक्कड़ बैठक को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। अंग्रेजी में शायद हम जैसों के लिए एक शब्द बना है। ऑब्जर्वर। बड़ा ही सोफेस्टिकेटेड है न!


कृष्ण कहना चाहो, कह सकती हो।


मुझे तुम कृष्ण कहना चाहो,
तो कह सकती हो।

मैं भगवान तो नहीं,
हाँ इंसान जरूर हूँ।

मैं गीता का ज्ञान तो नहीं
बाँट सकता,
हाँ, अपने अनुभवों से
तुम्हें अवगत करा सकता हूँ,
जिनको गीता के सार ने
मार्गदर्शित जरूर किया था।
सम्भव है, वे गीता के श्लोकों की
व्याख्या बन जाएँ।

मुझे तुम कृष्ण कहना चाहो,
तो कह सकती हो।

मैं इस रणक्षेत्र में खड़े
सभी कुलवंशियों का
किसी न किसी रूप में
रिश्तेदार हूँ।
मैं भारतवंशी हूँ।
मगर एक बात अवश्य है,
जिसने मेरी भौतिकता माँगी,
वो मेरे पैरों तले था।
जिसने मेरा अध्यात्म माँगा,
वह सर आँखों पर।
समझने और निभाने कि जिम्मेदारी तुम्हारी।

मुझे तुम कृष्ण कहना चाहो,
तो कह सकती हो।

मैं सभी गोपियों की मनोदशा
समझता हूँ।
उनका मान-सम्मान करता हूँ।
तभी तो उन संग रास करता हूँ।
लेकिन, कोई तो राधा मुझ कृष्ण को भी,
मौलिक प्रेम की राह दिखाती है।
मुझे कर्म, ज्ञान और प्रेम की त्रिवेणी में,
गोते लगवाकर पारंगत बनाती है।
मगर सच कहूँ तो
भौतिक प्रेम व सांसारिक निर्वहन
मुझे रुकमणी ही सिखाती है।
मैं गृहस्थ होकर भी,
सार्वभौमिक प्रेम हूँ।

मुझे तुम कृष्ण कहना चाहो,
तो कह सकती हो।

राजेश सक्सेना "रजत"

8 टिप्‍पणियां:

  1. - बहुत खूबसूरत .....उस पड़ाव पर जब केवल एहसास हर दर्द की दवा बन जाते हैं .
    - सच है ...ये रिश्तों का म्यूज़ियम बन गया है . उसके रिश्ते मुझ से ज़यादा क्यूँ ? कुछ और फ्रेंड बनाने चाहिए ....उसके स्टैट्स पर इतने लाइक और कमेंट ...मेरे पर अभी कम है ....उफ्फ्फ ...ये मेरे साथ क्या हो रहा है !
    ऐसा लगता है जैसे प्रोफाइल कहना चाहता हो मैं उससे बेहतर कहानी हूँ ...मुझे पढ़ो .फेसबुक नहीं अजायब-घर और श्रीमान आप आब्जर्वर ही बने रहेगें ...किस बाबा आदम के ज़माने के इंसान हैं भई आप
    - कृष्ण की व्याख्या जैसे कविता में रच दी गयी ....एक नया ही दृष्टिकोण
    - रश्मि दी ...फिर से आभार

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  2. तह-ए-दिल से शुक्रिया रश्मि जी के इस लायक समझा मुझे.. :)

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  3. महीने भर चले इस अवलोकन के सहारे काफी लोगो को दुबारा पढ़ने का अवसर मिला साथ साथ काफी नए नए लोग भी मिले ... आपका आभार दीदी हम सब को यह मौका देने के लिए |

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