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शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

वर्ष के तकनीकी ब्लॉगर का तस्लीम परिकल्पना सम्मान-2011 शैलेश भारतवासी



वर्ष के तकनीकी ब्लॉगर का तस्लीम परिकल्पना सम्मान-2011
शैलेश भारतवासी हिन्द-युग्म http://
www.hindyugm.com/

शैलेश भारतवासी - हिंदी का वह यात्री , जिसने सहयात्रियों को आमंत्रित किया , उनको उनकी विशेषताओं से अवगत कराया और सबके बीच
ब्लौगर , मित्र , कई मंचों के संचालक , किताबों के प्रकाशक बने . अपनी गरिमा को हिंदी में सिंचित कर दिया .
हिन्द युग्म को एक ट्रेडमार्क के रूप में स्थापित करना, जगह-जगह जाकर और लोगों को फोन करके ब्लॉगिंग और हिन्दी टाइपिंग सिखाना, हमेशा
विनम्रतापूर्वक और सरलतापूर्वक अपने आप को बताना और उसके बावजूद कहीं भी अपने आप को प्रोजेक्ट न करना कुछ ऐसी प्रमुख खूबियाँ हैं, जो यकीनन कहीं और नहीं मिलतीं।-
शैलेश को हिंदी ब्लॉगिंग का पर्याय कहना अनुचित नहीं होगा. 2007 में जब हिंदी में उन्होंने ब्लॉगिंग की शुरूआत की थी, तो उस वक्त उन्होंने सोचा
भी नहीं था कि रास्ते इतने लम्बे और सरल होते जायेंगे और ब्लौगिंग की दुनिया में वे एक प्रतिष्ठित नाम होंगे . उनको देखकर कहा जा सकता है कि सफलता उम्र की मोहताज नहीं होती , वह बस लगन और ईमानदारी देखती
है .
आपमें से कितने लोग जानते हैं कि हमारी रचनाओं को एक पहचान देनेवाले , आवाज़ की दुनिया में भी हमें सजग करनेवाले , बच्चों का कोना संग्रहित करनेवाले शैलेश की कलम शैलेश को लिखती है ? संवेदना , एहसास न हो तो कोई न किसी को जमीन दे सकता है, न पा सकता है . छिनकर लेना सुकून नहीं देता , और जो ईश्वर देता है वह यज्ञ की अग्नि की तरह प्रोज्ज्वलित होता रहता है और शब्दों में वेद, उपनिषद ... झलकते हैं .
आइये मैं शैलेश की कविताओं से आपको रूबरू करवाऊं .... यूँ तो उन्होंने 2006 से लिखना शुरू किया , 2007 तक लिखा , फिर - ब्लॉग पर भले न हो ,
उनके सिरहाने रखी डायरी में कवितायेँ अपना अस्तित्व जीती होंगी . क्योंकि एक कवि, एक कहानीकार अन्दर से खत्म भी हो जाए तो भी शब्द और भाव उसके अमर होते हैं .
चलिए मिलते हैं उनकी कविताओं से - उनके ब्लॉग पर मेरी कविताएँ
अन्दर जब सामर्थ्य , पहचान .... की मौत होने लगती है , आंसुओं की रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं , या हँसी का विषय बन जाते हैं तो कवि लिखता है ,
लिखता जाता है ....

जीने नहीं देते वो

कल रात

फिर से आ घिरा था

उनके बीच

आँख मिचौली खेल रहे थे

वे

अचानक कँपकँपा गया था मन

सोचा

प्रकाश कर दूँ कमरे में

अभी उठकर पकड़ लूँगा उनको

पर वैसे ही पड़ा रहा

क्योंकि जानता था

प्रकाश की एक किरण भी

मेरी परेशानी बढ़ायेगी

भूत में

ऐसे कई प्रयास कर चुका था मैं

यह जानते हुये कि

प्रकाश होते ही

वे मेरे ही रूह में बैठ जायेंगे

---------

पता नहीं कब चैन लेने देंगे

ये अंधेरे!

शायद----- शायद

तब

जब अंतर एवम् बाहरदोनों प्रकाशित होगा

पर---- कब

शायद अंतिम श्वास की घड़ी तक

यह सम्भव नहीं हो सकेगा।"


लम्बा कश , और धुंआ ....... सिगरेट हानिकारक होकर भी हमदर्द हो जाता है . अन्दर की बन्द साँसें 
बाहर निकल कुछ राहत देती हैं ... बिना सिगरेट - एक कश लें और बाहर फुक कर आजमायें -

सिगरेट

सिगरेट!

कुंठे की चिमनी

जलती-बुझती चिंगारी

निगलती जाती है सबकुछ

बड़वानल के सादृश्य

उसके पास भी अब बहुत कुछ

नहीं बचा

कितने दिन हुये

इस भस्म से दोस्ती के!

क्या साथ देती है

अपने में समाहित करके!

जब से मिली है

रूतबा बन गया है

समाज में

लोगों की दया

मुफ़त में मिलती है

वो समझता था सबमें स्वार्थ है

पर वो गलत था वो

क्या कोई

सिगरेट को स्वार्थी कह सकता है!"


लिखने से पूर्व , लिखते हुए एक प्रसव सी वेदना होती है .... समय, कलम , पन्ने , माहौल .... सबकी 
ज़रूरत होती है . कई बार पहचान अपनी पहचान ढूंढती है , खुद से बेबस , खुद को पाने की कोशिशें ...


अलग पहचान

आज उसकी बातों से

फिर काँपा था मन,

जब से पत्र पढ़ा है

मन कहीं नहीं ठहरा।

क्या जबाब दूँ उसके

सवालों का?

कैसे समझाऊँ उसे

कि उतना ही व्यथित मैं हूँ!

क्या करूँ मैं ऐसा

जिससे वो अतरंगित हो जाये!

कुछ नहीं कर सकता मैं

ऐसा लगता है

कि बस

दरिया के किनारे खड़ा होकर

लहरों का हलचल देख सकता हूँ।

बस देख रहा हूँ कि

वे अब द्वीप पर चमकते पत्थरों

को अपने रंग में रंग रही हैं।

देख सकता हूँ बस इतना कि

रेतों पर पड़ी कश्तियों को भी

अपने में समाहित कर रही हैं।

लेकिन मैं कैसे कह सकता हूँ

कि मैं यह सब देख रहा हूँ?

अरे! उसे समझना चाहिए

पानी सर के ऊपर आ चुका है।

बस मैं निकलने के लिए

हाथ पैर मार रहा हूँ।

निकल नहीं पाऊँगा

इसलिए

सुनी-सुनायी बातें बताकर,

सुनाकर,

अपने में सिमटकर,

भय को भगा रहा हूँ।

कैसे बताऊँ उसे

मैं भी तो डर गया हूँ,

या यह कहूँ कि मर गया हूँ।

अरे, इतिहास तो मैंने भी पढ़ा था

हाँ, कुछ वैसा ही मैंने भी अनुभव किया था।

अपने से ही मैंने भी पूछा था

"क्या मैं नया भारत देख पाऊँगा?"

तब से बस इंतज़ार ही कर रहा हूँ।

यह सत्य है कि मैं खुद

कुछ नहीं कर रहा हूँ।

बस सोचे जा रहा हूँ

कि सबसे अलग एक पहचान बनाऊँगा।

बना भी लिया है

तभी तो दुनिया कहती है

न जाने कब से

'इसने' अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं किया

और कहता है

मरते दम तक शायद

यह उससे नहीं हो पायेगा।"


सफलता यूँ हीं नहीं मिलती है , लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती .... जिसने की हिम्मत , किनारा , 
मंजिल उसे ही मिलते हैं . पर उससे पहले एक ही प्रश्न उठता है

निरंतर प्रयत्न करता रहा हूँ मैं
हमेशा हारा हूँ।
पर कहते हैं कि
उम्मीद पर दुनिया कायम है।
लड़ना मेरी फ़ितरत नहीं
पर जूझता रहा उम्रभर।
काश कि जीत पाता
काल को!
दादा कहा करते थे
आदमी कुछ भी कर सकता है।
कहीं ऐसा तो नहीं
वे भी सुनी-सुनायी बातें दुहराते थे?
यदि नहीं
तो क्या मेरी उम्र छोटी है?
फिर कहाँ से लाऊँ और दिन!
अतीत से खींचना पड़ेगा
उनको
पर विज्ञान अभी
कहाँ कर पाया है।
विश्वास है मुझको
हो पायेगा
समय को आगे-पीछे खींचना।
तो भी------
क्या मनुष्य को सन्तुष्टि मिल पायेगी?

कुछ देर रुको , सुनो तो हवाएँ भी अपनी बात कह जाती हैं , सागर की लहरें भी .... प्रकृति में व्याप्त है सब

अंतहीन अभीष्ट

अभीष्ट के दर्शन

कितना मुश्किल होता है

गुठलियाँ हमेशा फेंकी नहीं जातीं

शैलेश का यह आलेख मात्र एक लेख नहीं , कितने अर्थ हैं जिन्हें समझना है ....

कृत्या के पृष्ठ पर भी शैलेश जी मिले


पापी कौन ?

मुझे यह तो याद नहीं
पहली बार यक्ष ने
कब घेरा था
और क्या पूछा था
पर जो भी
पूछा था
उसका उत्तर नहीं था मेरे पास।
अब जब से
अकेला हो गया हूँ
अक्सर खड़ा हो जाता है सामने
और नंगा कर देता है।
कई बार उसके डर से
कमरे का बल्ब भी बुझाया है
पता नहीं कहाँ से
नाइट-बल्ब की तरह टिमटिमा जाता है!
आते ही
सवालों की रोशनी फेकने लगेगा।
बार-बार चादर से
जिस्म को अंधेरे में ले जाता हूँ।
पर ज़मीर को ये मंजूर नहीं
उसको घुटन होती है
बंद हवाओं में
कहता है-
तड़पने दो मुझे
बचपन पॉलीथीन बीन रहा है
जिम्मेदारी कौन लेगा?
माँ और बहनें छली जा रही हैं
सुरक्षा कौन करेगा?
दुश्मन सेंध लगा रहा है
रखवाली कौन करेगा?
बहूयें जल रही हैं
अग्निशमक कौन बनेगा?
भाई आतंकवादी हो गया
दोषी कौन?
बाहुबली सीना फाड़ते हैं
अपराधी कौन?
नेता देश बेच रहे हैं
पापी कौन?

वक्त लगेगा

जो संवेदनायें मुझसे उठ कर गयी हैं
उन्हें तुझसे परावर्तित होकर
लौटने में वक्त लगेगा।
जो महक अपने मन की भेजी है
उसे तुम्हारी जिस्मानी खुश्बूँ को
उड़ा लाने में वक्त लगेगा।
जिस मोरनी की चाल को
जंगल से चुराकर भेजी है
उसे तुम्हारी मस्तानी चाल से
मात खाने में वक्त लगेगा।
जिस आइने को गोरी से
माँगकर भेजा है
उसे तुम्हारा
रूप चुराने में वक्त लगेगा।
ममता जो कुछ बोलती ही नहीं
मौन में विश्वास है जिसका
तुमसे मिलना उसका और
चिल्लाने में वक्त लगेगा।


हिंद युग्म के प्रमुख संचालक के मन की मुलाकात ज़रूरी थी ... और उनके सम्मान में मुझे अपना यही प्रयास सार्थक नज़र आया .... इस रचना में बहुत नहीं तो कम भी नहीं ... रोजमर्रा के कई एहसास हैं

विधाता बहुत कर्मजला है

रोज़ रात

माँ फ़ोन पर पूछती है-

बेटा!

खाना खा लिया?

ये जानते हुये भी

कि मैं कैसे भूखा रह सकता हूँ!

नौकरी है जब साथ में,


पर माँ से

कभी यह भी नहीं कह सका

माँ!

कुछ आदमी जैसे जानवर

मेरे घर के चारदीवारी के बाहर

भि सोते हैं,

भूखे और नंगे।

कई बार

उन्हें किसी अमीर घर की

रोटी भी मिल जाती है

या सड़ी हुयी दाल।


माँ!

उनकी माँएँ भी तो नहीं हैं

जो प्यार खिलाती हैं

प्यार पिलाती हैं

और प्यार पर सुलाती हैं।

उनके माँओं का

भाग्य ही ऐसा है

गर्भवती हुयीं

तो मरना निश्चित।

अरे, मरना तो पड़ेगा ही

नहीं तो अपने लल्लों

के लिए

रोटी का हक माँगने लगेंगी

क्योंकि उन्हें कौन रोक सकता है?


माँ!

विधाता सब जानता है,

इसलिए तो

खतरे को उपजने

ही नहीं देता।


माँ!

बिरजू को जानती हो ना?

वही, जब तुम शहर आयी थी

दयालु होकर

एक रूपया दे दिया था उसे।

उसकी माँ उसको

नहीं जनना चाहती थी

सल्फ़ास भी खाया

पेट साफ करने के लिए

पर

यह विधाता

माँ!

बहुत कर्मजला है।

बिरजू

गर्भ फाड़कर निकल आया।"


कलम तो रुकना नहीं चाहती , पर रुकना होगा ...
आखिर में एक औपचारिक सा परिचय दूंगी कि -
हिन्द-युग्म के माध्यम से अंतरजालीय हिन्दी-कविता को माध्यम बनाकर देवनागरी प्रयोग को प्रोत्साहित करने
की जो कोशिश शैलेश ने की वह निरंतरता में है


12 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन व्यक्तित्व.. सुन्दर परिचय.. सम्मान के लिए बधाई!!

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  2. Dr.Rama Dwivedi

    शैलेश की कविताएं बहुत सशक्त ,सार्थक और संसामयिक हैं.... ...सम्मान के लिए ढेर सारी बधाई एवं शुभकामनाएं ....

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  3. वर्तमान में क्या कर रहे हैं यह भी तो बतातीं।:)

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  4. शैलेशजी के इस पक्ष से रूबरू कराने के लिए बहुत बहुत आभार रश्मिजी !....

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  5. badhaai bahut bahut .........bahut dino baad unki likhi kavitaayen padhi ..thanks ......

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  6. शैलेष जी से परिचित कराने के लिये हार्दिक आभार ………और शैलेष जी हो हार्दिक बधाई।

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  7. शैलेश जी को बहुत बहुत बधाइयाँ और आपका बहुत बहुत आभार !

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  8. शैलेष जी की आवाज़ एक बार सुनी है दूरभाष पर, उसी से उनके व्यक्तित्व की झलक मिल गयी थी। उनकी रचनाओं से लगता है कि वे एक संवेदनशील रचनाकार हैं। समाज और हिन्दी साहित्य को ऐसे लोगों की आवश्यकता है। रचना यात्रा जारी रखें।

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  9. शैलेश भारतवासी जी को बहुत२ बधाई,,,,आभार

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  10. इस मान और सम्मान के लिए रश्मि जी सहित तमाम लोगों का शुक्रिया

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  11. 'शब्दों के अरण्य में' के प्रकाशन के दौरान शैलेश जी से परिचय हुआ ! वे इतने संवेदनशील कवि भी हैं उनका यह परिचय रश्मिप्रभा जी आपके माध्यम से हुआ ! उनकी रचनाएं बहुत खूबसूरत हैं ! शैलेश जी को अशेष शुभकामनायें व उनसे परिचित कराने के लिये रश्मिप्रभा जी आपका बहुत बहुत आभार !

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