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रविवार, 15 जुलाई 2012

शायद यह कह जाना कहीं कुछ परिवर्तन लाए



मैं कुछ लिखना नहीं चाहती , पर लिख जाती हूँ .... कहना नहीं चाहती , पर जाने क्यूँ और कैसे कह जाती हूँ . शायद यह कह जाना कहीं कुछ परिवर्तन लाए . ( जाने कब ) मैं नहीं समझ सकती कि दर्द की तस्वीरों का प्रचार-प्रसार क्यूँ होता है . शब्द भी तो हैं , हुबहू हादसों को देखकर क्या हम उस सड़क पर आते-जाते लोगों जैसे ही नहीं हो जाते ? मैंने अनजाने क्लिक किया और घबराकर बन्द किया , पर कानों में गूंजती रही एक आवाज़ - हेल्प हेल्प हेल्प ........... ओह !!!






मैं तुम्हें नहीं जानती
नहीं देखा है तुम्हें
नहीं मिली हूँ कभी
फिर क्यूँ तुम मेरे अन्दर सिसक रही हो
चीख रही हो !
कैसे कैसे दरिन्दे घूम रहे हैं
मुझे तो बहुत डर लगता है
रास्ते भी मेरे देखे हुए नहीं
पर ... उस एक जगह निश्चेष्ट हो गई हैं आँखें
जहाँ तुम्हारे सपनों की सनसनाहट बदल गई है
और मेरी रक्त धमनियां ऐंठ गई हैं ...
क्या कहूँ
क्या करूँ
तुम तो मेरे अन्दर काँप रही हो
मेरी आँखों से बरस रही हो
मेरी जिह्वा पलट गई है
और तुम्हारी सारी चीखें चक्रवात की तरह
मेरी शिराओं में मंथित हो रही हैं !
नाम से परे
पहचान से परे
रिश्तों से परे
तुमने मुझे पकड़ रखा है
और मैं जी जान से इस कोशिश में हूँ
कि तुम्हारा सर सहला सकूँ
अपनी आँखों से एक कतरा नींद दे सकूँ
अपनी गोद का सिरहाना दे दूँ
और कहूँ किसी थके हुए मुसाफिर की तरह
इसे अपनी हार मत समझना
दहशत के समंदर से संभव हो तो बाहर आना
जो सपने आज से पहले तुमने देखे थे
उनको फिर से देखने का प्रयास करना !!
मुझे मालूम है -
कई आँखें तुम्हें अजीब ढंग से देखेंगी
कई उंगलियाँ तुम्हारी तरफ उठेंगी
सवालों की विभीषिका तुम्हें चीरती रहेंगी
......
एक बात गाँठ बाँध लो -
जब जब अन्याय होता है
कोई सामने नहीं आता
मरहम खुद लगाओ
या अंगारों पर दौड़ जाओ
पर चलना अपने पैरों से होता है ...
और यह इतना आसान नहीं ,
जितना कह जाने में है !
खुद तुम्हें अपनी चीखों से
सिसकियों से मुक्ति नहीं मिलेगी
अनसुना करके मुस्कुराने पर भी लोग तिरस्कृत करेंगे
तुम्हें इस सच के दहकते अंगारों में झुलसते हुए निखरना होगा
एक यकीन देती हूँ ----
तुम मेरे अन्दर चाहो तो ताउम्र चीख सकती हो
मैं इस आग को जब्त कर लूँगी
दुआ करुँगी .......
और शून्य में तुम्हें देखती रहूंगी !!!

टीले पर उमड़ आया है
पूरा का पूरा गाँव
गाँव देख रहा है
पुरातत्ववेत्ताओं का तम्बू
कुदाल फावड़े रस्सियाँ
निखात से निकली मिट्टी
छलनी से छिटककर गिरते
रंगबिरंगे मृद्भाण्डों के टुकड़े
मिट्टी की मूर्तियाँ
टेराकोटा
मिट्टी के बैल
हरे पड़ चुके ताँबे के सिक्के

वे ,
जो लूट रहे हैं
बोल कर झूठ
उन्हें माफ़ है सब|

" महाभारत " के ध्रतराष्ट्र को कौन नहीं जानता , उसके अंधेपन को कौन नहीं जानता ! हम सभी ने महाभारत को कई बार पढ़ा है उसकी कहानी को कईयों बार सुना है , साथ में ध्रतराष्ट्र के बारे में भी ......... कुछ की नजर में मजबूर और लाचार , शकुनी और दुर्योधन की शाजिश का शिकार ......... फिर भी इतिहास ध्रतराष्ट्र को ही दोषी मानता है ! खैर मुझे भी इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है ! बात हम अंधेपन की कर रहे हैं ........ उस अंधेपन की जो आँख होते हुए भी आँखें बंद कर बैठे हैं ! अभी हाल ही में हमने और पूरे देश ने गुडगाँव और गुवाहाटी में हुए इंसानियत और मानवता को शर्मसार करने वाले बहशीपन को देखा है , और देखा वहां उपस्थित अंधे -बहरे , हाड - मांस के बने पुतलों ने जिन्हें हम शायद इंसान कहते हैं , या कहते हुए भी शर्म आती है !

सर से पाँव तक ढके रहना चाहिए
कहने वाले ही बड़ी तीव्रता से
हटा देते हैं सारे कपड़े और टूट पड़ते हैं
भूख मरे की तरह ,पहले अपनी गिद्ध सी
आँखों से नोचते हैं फिर अपने वहशी दाँतों से…
खून से लथपथ उनके दाँत, उनके हाँथ
कभी टूटे क्यूँ नहीं,मरते क्यूँ नहीं ???
कैसा है, ये “उसका” न्याय
मन की शक्ति नारी को और तन की इन पुरुषों को ?
है, श्रष्टिकर्ता से यही सवाल ,,,
था जीवन दिया फिर क्यूँ होने दिया ये हाल


साधक को किसी भी बात पर परेशानी होती ही नहीं, आनंद का स्रोत यदि भीतर मिल गया हो तो छोटी-छोटी बातों का असर नहीं होता, हम किसी महान
उद्देश्य को पाने के लिये यहाँ भेजे गए हैं. वह रहस्य हमारे भीतर है, उसके ही निकट हमें जाना है,


एथेंस का सत्यार्थी
उसने जब सत्य को देखा
आँखें चौंधिया गई थीं उसकी
यह कहानी
तब सिर्फ
पढ़ने के लिए पढ़ लेती थी
गूढ़ता समझने की शक्ति नहीं थी
आखिर सत्य
इतना चमकीला हो सकता है क्या
कि कोई उसे देख न सके
देखना चाहे तो
न चाहते हुए भी
नजरें मुंद जाएँ|

चलो
में अपनी
हथेली काट लेता हूँ
निकलते रक्त से
हल कर लेता हूँ
सारे सवाल
दहक रहे जो
हमारे ह़ी
अप्रायोगिक मस्तिस्क में
अनगिनित प्रश्न
जो मान लेते है मुझे घोर असफल

15 टिप्‍पणियां:

  1. ...सभी रचनाओं में एक जोश झलक रहा है...जो प्रेरक है!...अति सुन्दर!

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  2. शायद यह कह जाना कहीं कुछ परिवर्तन लाए . ( जाने कब ) मैं नहीं समझ सकती कि दर्द की तस्वीरों का प्रचार-प्रसार क्यूँ होता है . आपकी बात से सहमत हूँ ... सार्थक विचारों के साथ सशक्‍त एवं विचारणीय प्रस्‍तुति ...आभार आपका

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  3. आदरणीया रश्मि जी, बहुत बहुत आभार..कल ही किताबें भी मिलीं बहुत सुंदर छपी हैं, उसके लिये भी आभार!

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  4. दी,आपकी रचना ने उद्वेलित कर दिया...मेरी रचना शामिल करने के लिए सादर आभार...
    कल पुस्तकें मिल गईं...आभार !!

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