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सोमवार, 21 मई 2012

एक निष्कर्ष सीखने से पाने तक



सपनों की हार कब होती है , जब मुखौटों का बाज़ार गर्म होता है . हत्या और आत्महत्या में बड़ा फर्क होता है - खामोश मनःस्थिति के सिवा क्या चिंतन और विचार . किसी उंचाई से गिरने पर
ही पेट में उठते बुलबुलों का आभास , क्षण में कौंधते अपनों के चेहरे और अँधेरा समझ में आता है . भीड़ लगाकर च्च्च्च करने से फिर पालथी लगाकर या कुर्सी खींचकर अंगड़ाई लेकर चाय पीने से जीवन के सही मायने नहीं मिलते और जीवन मिला है तो पथराये सपने ( http://amitanand9616115354.blogspot.in/ ) अंतिम साँसों में भी अर्थ ढूंढते हैं . कुछ ऐसे ही अर्थ मिले हैं अमित आनंद पाण्डेय की ब्लॉग यानि शब्द यात्रा में .
अक्सर यही सच होता है कि कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त !!! पर जो आंसू का एक मूल्य ले ले , जो किसी की विवशता को अर्थ दे दे - वही होता है

धन्य

"मेरे दरवाजे का बूढ़ा भिखारी

मैली गठरी

टूटा चश्मा

जगह जगह चोट के निशान भरे पावँ

कांपती उँगलियों से

समेटता है चिड़ियों के लिए बिखेरे गए / दो चुटकी चावल

और धन्य कर देता है

मेरा दरवाजा!!"


खुद को भीड़ में , कोलाहल में जो ढूँढने का क्रम अपनाता है , 
वह इसी परिणाम को पाता है कि वह मात्र एक मौन है ! शोर तो घेर लेता है प्रत्यक्ष , तो मौन होता है
अप्रत्यक्ष .... मायने सरेराह नहीं मिला करते किसी

मैं को

"मैं
शायद.......
माध्यम मात्र हूँ
दुखों के दरकते हुए पहाड़ से रिसते हुए शब्दों का !
मैं एक हूँ
मैं अनेक भी...
मैं साकार हूँ
कल्पना भी मैं!
मैं सार
मैं सन्दर्भ भी मैं,
मैं दैत्य हूँ
गंदर्भ भी मैं !
मैं खुद चकित हूँ
कौन हूँ
मैं मुखर हूँ
मौन हूँ!
रातरानी की सुबह का फूल हूँ
बालपन के पांव का मैं शूल हूँ
मैं कुमुदनी की नसों का तार हूँ
एक बूढ़े स्वप्न का विस्तार हूँ!!
दर्द हूँ मैं
शूल हूँ अनुराग हूँ
पूस की ठंढी सुबह का राग हूँ! "

मौत - स्वीकारो न स्वीकारो , कभी भी कहीं भी , ख़ुशी से परे , उम्मीदों से परे , उम्र से परे किसी वक़्त आ जाती है . माना सत्य है , आना तय है , फिर भी कुछ तो सोचना था ,
यदि नहीं तो ठीक है कवि का प्रण कि

मैं लडूंगा तुझसे

"मौत!!

तू सम्पूर्ण

शक्तिमान!

तो

निरीह मैं भी नहीं,

कायर...

चुपके से वार करती है??

छीन ले गयी

एक एक कर

जाने कितने प्रिय!

खांसता बाप

आंसू बहाती माँ...

जवान बिटिया को आग मे झुलसाते

शर्म नहीं आई तुझे??

चोट्टी

ढाई बरस की बिटिया पे वार करके

कौन सा मेडल हाशिल किया?

अब

आ...

मैं भी तैयार हूँ

देख लूँगा

बेशक तू ही जीतेगी

लेकिन

तेरी क्रूरता के लिए

मैं लडूंगा तुझसे!!"


कवि सपने उगाता है , सपनों से सपनों को सींचता है और बिना किसी अवरोध के सपनों के खट्टे 
तिते मीठे फल सबको देता है और सोचता है - जो न ले उसका भला जो ले उसका भला . 
सच्ची भावनाएं किसी की मोहताज नहीं होतीं ....... 
अमित ने भी कोई उम्मीद पाले बिना कई सोच कई भाव दिए हैं 2010 से 2012 तक की
यात्रा में -

गवाहियां

मेरे बिपरीत

कन्या-भ्रूण

भूत


जाने कहाँ कहाँ सिसकते हैं पथराये सपने , जाने कहाँ कहाँ सुनी आँखों में निष्प्राण प्रतीक्षा लिए जड़ बने रहते है -

उतरते पानी के साथ

"बूढ़ी नीम की फुनगियाँ

पाठशाले की छत

उनचका टीला

सब

धीरे-धीरे लौट रहे हैं,


उतरते पानी के साथ...


रमिया परेशान हाल

सुबकती है

बंधे पर,


क्या लौट पायेगा

वो कमजोर क्षण

वो

नियति चक्र

जब

इसी बंधे पर

छोटे भाई के लिए

दो रोटियों की तलाश मे

वो गवां आई थी

"सब कुछ"


क्या वो भी लौटेगा

उतरते पानी के साथ??"


पथराये सपने नाउम्मीदी में , सबकुछ से निर्विकार जीवन को जीते हैं , साँसें कुछ इस तरह लेकर

चल भाई

"चल भाई काम पर चलते हैं

उठ तो...

जाग...

सपने मत देख

सपने सिर्फ चलते हैं!

मुंह धुल

रात की बासी रोटी खा

पैर के घाव मत देख

घाव पर

सड़क की मिटटी मलते हैं,

चल भाई चलते हैं

चल चल

आज सड़क को बन जाना है

आखिर साहब को

इसी राह जाना है

मजूरी की मत सोच

मजूरी से ही तो

ठीकेदार अमीर बनते हैं!

चल भाई चलते हैं

उठ

बीवी को जगा

काम पर लगा

बच्चे को तसले मे डाल

मत कर मलाल,

बुखार है तो क्या

मत डर

मजूरों के बच्चे

ऐसे ही तसलों मे पलते हैं

चल देर हों रही

चल भाई चलते हैं!!

देर आना कर

उठा फावड़ा

मिटटी भर

देर हुयी तो ठीकेदार का दाम रुकेगा

दुःख होगा उसे

बीवी के गहने ... बेटे की गाडी सब रुकेंगे

पाप लगेगा

उनका श्राप लगेगा

धीर धर

श्रद्धा से पुण्य कमा

जोर लगा सड़क बना

मत सोच की हमारे दुःख दर्द

ठीकेदार को

कब खलते हैं

चल हाथ बाधा

कंधा जोड़

चल भाई! काम पर चलते हैं!!"


और सपनों का कतरा कतरा कवि सिरहाने रखता जाता है या वह आईना जिसे कई लोग देखना नहीं चाहते

बीते हुए लोग

अपने हिस्से का चाँद

"मन की पतंग"

रंग मंच

ऊब

महान

"प्रश्न" हम इसे कवितायेँ कहते हैं , गौर से देखा जाए रुककर तो अपने अपने सार हैं - एक निष्कर्ष सीखने से पाने तक का .

14 टिप्‍पणियां:

  1. इनकी रचनाएँ पढ़ती रही हूँ. भावपूर्ण और प्रभावी लेखन है,
    बढ़िया बुलेटिन बना है .

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  2. amit .. amit ...amit.. aane waale bhavishy ka sabse behatasr sitara .....

    main jaanta hun ,,,usko ... uske uske lekhan mein kisi agyaat lok ki jhalak hain

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  3. एक बार फिर आप एक नया मोती चुन लाई है हम सब के लिए ... ब्लॉग को फॉलो कर लिया है ... आभार आपका दीदी !

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  4. अपने पसंद के लिंक्स की उम्दा प्रस्तुति ..... !!

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  5. वाह!!! अच्छी रचनाओं और रचनाकार से रु-बरु कराया आपने...

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  6. बहुत खूब...बेहतरीन प्रस्‍तुति ......आभार

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  7. परिचय की इस कड़ी में एक और बेहतरीन प्रस्‍तुति...आभार आपका

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  8. अमित जी को पढना सुखद रहा और उनकी गहन सोच का भी दर्शन हुआ……आभार परिचय कराने के लिये।

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  9. बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....


    इंडिया दर्पण
    की ओर से आभार।

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  10. aaderneeya rashmi jee..aapke tam blog padhe ..sabki apni mahak hai sabka apna swatantra astitva hai..aaj face book per aapke links padhte padhte yahan pahunch..bahut accha laga..utkrist rachan aaur utkrist sahityakaar se parichit hone ka suavsar mila ..sadar pranaam ke sath..aaj hee ye blog join kar raha hoon

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