जिन बातों को हम पहले स्तब्ध होकर सुनते थे , (वो भी एक ख़ास उम्र में )वहाँ खुले विचारों का प्रवेश
चलिए आज के ब्लोग्स पर --------
जानलेवा हो चुका है ! स्तब्ध होने के लिए कुछ बचा ही नहीं है ...
हमारे बचपन में परियां उतरती थीं नभ से , चौकलेट खिलौने देती थीं ... आज के बच्चों को ड्रग्स , अश्लील माहौल ,
भ्रमित सोच दी जा रही है . आज साफ़ नज़र आता है कि हमने एक मासूम बचपन जिया , पर आज के विकृत, विषैले
माहौल में बच्चों के चेहरे अजीबोगरीब हो गए हैं . इतनी सुविधाएँ , इतना गुरुर दे दिया गया है कि उनकी सोच ही असहज
हो गई .
बच्चा एक पौधे के समान होता है , जिसकी समय समय पर काट छांट ज़रूरी होती है , एक आधार दिया जाता है उसके सही
विकास का ... आज का सबसे प्रमुख आधार है - पैसा और अंग्रेजियत ! हम तो अपने समय में इकन्नी में कई ख्वाब संजोते
थे , और माता पिता उस पर भी नज़र रखते थे .... आज अपनी ज़िम्मेवारियों से निजात पाने के लिए , अपनी धाक के लिए
अभिभावक पैसों की बरसात कर देते हैं , उसकी हर सोच पर 'ऐंठ' का मुलम्मा चढ़ा देते हैं और बर्बादी के आगे कहते हैं ...
'हमने क्या कमी की !' काश कमी की होती तो बच्चे की सोच भी धीरे धीरे परिपक्व होती .
२ साल के बच्चों की अदा ... लगता है कोई फ़िल्मी पर्दा आँखों के आगे टंग गया हो . उम्र देखते हुए हँसी आती है , प्यार भी
आता है , पर पलक झपकते यही अदा जानलेवा हो जाती है !
अब तो आलम ये है कि परियों की कहानी पर बच्चा कहता है---'सब झूठ है, सब झूठ है !' वाकई सारी मासूमियत झूठी हो गई ,
सरेआम है जहाँ हर बात , वहाँ कल्पनाओं के पंख खो गए !!!
"अभिभावकों को चाहिए कि वह कम से कम कुछ एक बातों का ख़्याल ज़रूर रखें जैसे उनके बच्चे उनके द्वारा दी गई ऐसी इंटरनेट जैसे सुविधाओं का कोई गलत फायदा तो नहीं उठा रहे हैं। इसके लिए ज़रूर है अपने बच्चों को दी गई इस प्रकार की सुविधा जहां जितना जानकारी का भंडार वहाँ उतनी ही सावधानी की भी जरूरत है। उस सुविधा से संबन्धित आपको भी सम्पूर्ण जानकारी हो और समय-समय पर आप भी उनके सिस्टम की जांच करते रहें। ताकि आपको उनके द्वारा किये गए कार्यों की सही जानकारी मिलती रहे और उनके मन में भी आपके प्रति हल्का सा डर भी बना रहे, ताकि वो गलत रास्ते पर न चले जायें। क्यूंकि अक्सर ऐसी उम्र में बच्चों का मन एक बे लगाम घोड़े की तरह होता है, जो ज़रा सा मौका पाते ही बस बेखबर दौड़ता चला जाता है। बिना यह जाने कि जिस राह पर वह जा रहा है वो सही है या नहीं, उसे सही वक्त पर सही दिशा दिखाना अभिभावकों की अहम ज़िम्मेदारी है। क्यूंकि यदि वक्त रहते ऐसा न किया गया तो नतीजा हानिकारक हो सकता है और आपके बच्चे आपके हाथों से बेकाबू हो सकते हैं "
"भगत सिंह तुम बड़े बेहया हो,
ठीक निराला के कुकुरमुत्ता की तरह,
तुम उग आते हो वहां भी,
जहाँ संभावनाओं की संभावनाएं भी दम तोड़ देती है,
जहाँ आशाओं का हलक सूखने लगता है,
उम्मीद के जन्नांगों में पत्थर डाल दिए जाते है,
उत्साह के कोख में,
निराशा की नाजायज औलाद ठूंस दी जाती है,
जहाँ चरित्र का सूरज पिघल कर,
विस्की, रम और बियर हो जाता है,
जहाँ राष्ट्र का हीरो,
बन जाता है सेल्समैन,
और बेचता है कोंडोम से ले कर विस्वास तक,
सबकुछ.........
तुम वहां भी उग आते है,
किसी हारे हुए की आखरी हार से पहले,
किसी भूखे आदमी की आखरी आह! से पहले,
किसी ख़ामोशी के एकदम खामोश हो जाने से पहले,
तुम उग आते हो,
भगत सिंह तुम बड़े बेहया हो,
कितनी बार चढ़ाया है तुम्हे फांसी पर,
बरसाई हैं लाठियाँ,
सुनाई है सज़ा,
जलाई है बस्तियां,
तुम्हारे अपनों की....
कितनी बार भड़काए गए हैं,
दंगे,
तुम्हारे गाँव में,
कस्बों में,
शहरों में,
कितनी बार काटा गया है तुहारा अंगूठा,
चुना है तुमने ही,
शोषण के लिए,
कितनी बार अवसाद की अँधेरी कोठरी में,
की है तुमने आत्महत्या,
भगत सिंह न जाने कितनी बार,
न जाने कितने तरीकों से,
तोड़ा मरोड़ा गया है तुम्हे,
पर तुम उग आते हो,
किसी मजदूर के हांथों के ज़ख्म भरने से पहले,
किसी निर्दोष के आंसू सूखने से पहले,
किसी जलती हुई झोपडी की राख़ बुझने से पहले,
किसी बेदम इंसान का लोकतंत्र पर से विस्वास उठने से पहले,
तुम उग आते हो,
भगत सिंह तुम बड़े बेहया हो,
बेहया लोग ख़तरनाक़ होते हैं,
हया इंसान को डरपोक और दोगला बना देती है,
तुम्हारे सपने मरे नहीं है,
इसलिए तुम बेहया हो,
औए शायद इसीलिए ख़तरनाक़ भी,
सीलन वाली अलमारी पर,
सबसे किनारे रखी,
सबसे कम कीमत की,
सबसे रद्दी कॉपी पर,
तुम उग आये हो,
मजदूरों के कंकाल,
किसानों की लाश,
और जवानों के गुस्से पर,
लिखी गयी कविता,
में तुम उग आये हो,
भगत सिंह तुम बड़े बेहया हो,
भगत सिंह--तुम्हारा--अनंत "
रचना रवीन्द्र: विषय
"बचपन में सोचा करती थी पढते समय
क्यों होते हैं इतने विषय
भाषा, गणित, विज्ञान, समाज शास्त्र...
मात्र एक जीवन ही तो जीना है
क्या करूंगी ये सब सीख कर
फिर न जाने कब कैसे
भर आया जीवन में
काव्य, रस, अलंकार, छंद
जी भर कर जिया मैंने उनको
धीरे धीरे गणित ने अपने पांव जमाए
फिर क्या था
बस जोड़ती घटाती रही
खोया और पाया
मजबूत होता रहा तर्क शास्त्र
अक्सर जब देखो
घर में
कहीं सुसज्जित, कहीं बेतरतीब
रखा, पड़ा, पसरा हुआ कुछ न कुछ
कभी हनन, कभी खनन, कभी संरक्षण, सौंदर्य
याद कराता भूगोल
घूम कर पीछे देखती हूँ तो
एक लंबा इतिहास
कितना इतिहास बाकी है नहीं जानती
पर जान गयी हूँ
जो न पढ़े होते ये विषय
तो कैसे जान पाती
विषयों पर जीवन की पकड़
जीवन पर विषयों की पकड़
और एक सुखद जीवन के लिये
दोनों का साथ."
अरुण कुमार निगम (हिंदी कवितायेँ): पहले - सी अब नजर न ...
"
चूँ - चूँ करती , धूल नहाती गौरैया.
बच्चे , बूढ़े , सबको भाती गौरैया .
कभी द्वार से,कभी झरोखे,खिड़की से
फुर - फुर करती , आती जाती गौरैया .
बीन-बीन कर तिनके ले- लेकर आती
उस कोने में नीड़ बनाती गौरैया.
शीशे से जब कभी सामना होता तो,
खुद अपने से चोंच लड़ाती गौरैया.
बिही की शाखा से झूलती लुटिया से
पानी पीकर प्यास बुझाती गौरैया.
साथ समय के बिही का भी पेड़ कटा
सुख वाले दिन बीते, गाती गौरैया.
दृश्य सभी ये ,बचपन की स्मृतियाँ हैं
पहले - सी अब नजर न आती गौरैया."
शाद्वल: स्लेट पर लिखी चिठ्ठी स्मृति सिन्हा
" हमारी अजीब-सी जोड़ी...तुम बहुत बोलते हो..मै बहुत सुनती हूँ..अच्छा लगता है..पर सोचती हूँ कभी तुम भी सुन लेते...पर कैसे? मै तो बोल ही नहीं सकती! कई बार सोचती हूँ कि तुम मेरी चुप्पी को पढ़ लेते..वैसे ही जैसे मैं तुम्हे पढ़ लेती हूँ,तब भी जब तुम कुछ नहीं कहते.
फिर एक दिन सोचा...बहुत-बहुत सोचा...फिर बहुत सोच-सोचकर ..कई बार पोंछ-मिटा कर,अंततः एक चिठ्ठी लिख ही डाली...लेकिन स्लेट पर. ताकि उसे थोडा और edit कर सकूं...एक-एक शब्द सोच-समझकर ताकि तुम शब्द दर शब्द मेरे मन को पढ़ सको.
इस बीच कितने काम थे.इसी सब में भूल गई.न जाने कैसे पानी के कुछ छींटे पड़े और स्लेट पर लिखी उस चिठ्ठी के कुछ शब्द धुल गए.सोचा -कोई बात नहीं बाद में ठीक कर दूँगी. फिर पास रखे फूलदान की धूल झाडी.कपडा स्लेट से जा लगा.कुछ और शब्द मिट गए.सोचा-कोई बात नहीं,ये भी ठीक कर दूँगी.
इस बीच अचानक तुम न जाने कहाँ से आये और वो आधी-अधूरी चिठ्ठी पढ़ ली.मैंने क्या लिखा...तुमने क्या पढ़ लिया! मैंने क्या चाहा...तुम क्या समझ बैठे!
उफ़!अब तुम्हे कैसे समझाऊँ..ये तो roughwork थी! काश!मैंने स्लेट मेज़ पर रखकर न छोड़ी होती...या फिर उसे छिपा दिया होता पक्की चिठ्ठी लिखने तक...या फिर... मैंने तुम्हे चिठ्ठी ही न लिखी होती...काश!!! "
मेरे बचपन की गलियाँ ......(अब कहाँ हैं ??) - अपनों का साथ अंजू चौधरी
"मेरे बचपन की गलियाँ
अब मुझे नहीं पहचानती
वहाँ की धूप -छाँव जो
थी जीवन मेरा ...
अब भर देती हैं मन के
भीतर क्रंदन ही क्रंदन
बंदिशे जो अब और तब
भी लगती थी
मुझ पर ..
तान कर सीना मैं चलूँ
अपनी पिहिर की गलियों में
वो बात अब भी नज़र नहीं आती |
वहाँ के मेरे अनुपस्थित वर्ष
भर गए मौन मेरे इस सूने
जीवन में ...
और
जानती हूँ कि मृत्यु तक
मुझे ऐसे ही जीना होगा
सिर्फ ये ही सोच सोच कर
कि काश ......काश
ना रोका जाता मुझे
बाहर जाने से ,
ज्यादा पढ़ने से ,
स्वछंद विचरण से ,
बराबरी करने से ,
मुहँ खोलने से ,
जन्म से अब तक ,
ना रोका जाता
मुस्कुराने से ,
और बाद में
जीने दिया जाता मुझे
मेरी ही बेटी के संग
बिन गर्भपात के ,
मेरी ख्वाहिशों को
यूँ ना रौंदा जाता
किसी के अहम की खातिर
मुझे दर्द की सूखी नदी ना
दी जाती ...
मेरे अपनों के रहते हुए भी मैं ,
मूक तमाशा बनती रही,
मेरे सपनो का कत्ल हुआ ,
क्यूँ कि दुनिया के दूसरे छोर पर
समाज उनकी प्रतिक्रिया की
प्रतीक्षा कर रहा था ,
तभी मेरे मौन ने
अपनी ही गलियों से
एक दूरी बना ली
और बन कर अनजान
मैंने अपनी ही सोच की
एक अलग ही दुनिया बसा ली ||"
इतनी खुशबू हथेलियों में भर जाती है कि मुक्त हाथों लुटाना अच्छा लगता है ... आप भी अपने आस पास दें और कहें प्रकृति आज भी फूलों से भरी है .... और हिंदी की गरिमा आज भी है .......... आगे और भी है
आभार दीदी ।
जवाब देंहटाएंकुछ प्रस्तुतियां दुबारा पढने को मिलीं ।
कमाल के हीरक-कण चुनकर आप ले आती हैं दीदी!!
जवाब देंहटाएंवाह !!!!! बहुत कमाल के लिंक्स,...रश्मी जी बधाई.///
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,
रुचिकर बुलेटिन।
जवाब देंहटाएंएक बार फिर बढ़िया लिंक्स से रूबरू करवाया आपने ... आभार रश्मि दी !
जवाब देंहटाएंbahut badhiyaa.....
जवाब देंहटाएंइन सुन्दर रचनाओं के बीच खुद को देखना अच्छा लगा :)
जवाब देंहटाएंआभार!!
वाकई सारी मासूमियत झूठी हो गई , बिल्कुल सच कहा है आपने ...बेहतरीन लिंक्स संयोजन ...आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिंक्स मेरी रचना को भी यहाँ स्थान देने के लिए आभार...
जवाब देंहटाएंsundar..
जवाब देंहटाएंवाह! आज का बुलेटिन तो लाजवाब रहा अच्छे लिंक्स मिले
जवाब देंहटाएंआभार