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शनिवार, 24 मार्च 2012

ब्लॉग की सैर - 5



ब्लॉग की सैर शुरू ही हुई थी कि ....... रूकावट के लिए खेद सहित स्पष्ट कर दूँ कि मेरी अपनी भी कुछ जिम्मेवारियां हैं . शहर एक हो तो राह निकल आती है, पर बात दूसरे शहर में जाने की हो तो कई व्यस्तताएं होती हैं . अब अपनी जगह हूँ तो फिर प्रयास है आपकी सुखद सैर का ....
"ज़िन्दगी के आखिरी लम्हे में भी सोलह साल की युवती ! जिस हसीं तसव्वुर को तुमने रोज-ऐ-अलविदा तक अपनी आंखों में कायम रखा, उसी तसव्वुर को आज मैं अपनी आंखों में सहेज कर रखने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा हूँ.... यह प्रयास चिरयौवन के नाम.......अमृता प्रीतम के नाम।"
" कुछ यूं सोचना कभी
कि तुम रेलिंग पर कुहनियाँ टिका
जाने कहा खोये हो
आंखें कहीं टिकीं हैं
शायद शून्य में
या वैजयंती के सुर्ख फूल पर ठहरी
ओस की बूँद पर
और मै पीछे से आकर
तुम्हारी आँखों पर
अपनी ठंडी हथेली रख देती हूँ
तुम चौंक कर पलटना
तब मैं न होऊंगी
कहीं पर भी नहीं

कुछ यूं भी सोचना कभी
कि आरामकुर्सी पर पड़े
तुम्हारी नींद से बोझिल पलकें
मुंद गईं हैं
मेज़ पर पड़ी डायरी के पन्ने
फडफडा रहे हो हवा से
तुम्हारी झपकी में खलल डालते
और मैंने तुम्हारा माथा चूमा हो
तुम आँखें खोलो तो देखो
कि मैं नहीं हूँ
कहीं भी नहीं

कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम खड़े हो
उस बरसाती नदी के पास
जो उफनकर बह रही हो
बलखाती
पत्थरों पर अपना आँचल झटकती
और तुम्हें लगे कि मेरी हंसी
खनकी है तुम्हारे कानो में
और मैं न मिलूँ तुम्हे
कही भी नहीं

कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम अकेले चले जा रहे हो
धुंध भरी राहों पर
खोये से
और अचानक मैं आकर
तुम्हारे गले में बाहें डाल
झूल जाऊं
तुम चौंक कर देखो
कि तुम्हारी शॉल
कंधे से थोड़ी ढलकी पड़ी है
और हवा में हिना कि खुशबू भरी हो
और तुम फिर भी न पाओ मुझे
कही पर भी नहीं

कुछ यूं भी सोचना कभी
कि तुम्हे मेरी बेतरह याद आये
और तुम
मेरे वजूद के कतरों की खातिर
अपनी दराजों की तलाशी लो
और कही किसी दराज़ में पड़ा मिले
तुम्हे मेरा आखिरी ख़त
उसे सीने से लगा लेना
बस पा लेना मुझे
मेरे बाद भी! "

"सुर कभी भी बेसुरे नहीं होते
चाहत जिसे हो मन्द्र की
तार सप्तक के स्वर
शोर सा करते लगते हैं ....

जब आदत हो ऊँचे बोलों की
सरगोशियों में मध्यम सुर
अक्सर अनसुने रह जाते हैं ..

दोष कभी भी नहीं रहा
वीणा के ढीले पड़ते तारों का
पंखुड़ियों को तो बिखरना ही था
गुनाहगार बनी बलखाती पुरवाई .."

माहेश्वरी कनेरी अभिव्यंजना: मेरी पहचान
"मेरी पहचान
कभी धीरे से, कभी चुपके से
अभी तूफान लिए ,कभी उफान लिए
कभी दर्द का अहसास लिए
कभी आस और विश्वास लिए
मेरी भावनाएँ ,अकसर आकर…
मेरे मन के साथ खेलने लगजाती हैं
तब मैं उन्हें शब्दों के जाल में लपेटे
पन्नों में यूँ ही बिखेर देती हूँ ।
इसे मेरे दिल का गुब्बार कहे
या फिर..
एक सुखद सा अहसास
जो भी हो ……..
वो मेरी कृति बन जाती है
अच्छी है या बुरी,
मेरे जीवन में गति बन आती है
ये कृति, मेरी आत्मा है, मेरे प्राण है
मेरी जिन्दगी है ,मेरी पहचान है..
बस , यही तो मेरी पहचान है….."

राजीव चतुर्वेदी

Shabd Setu: तू अगर खुदा है तो खुद्दार मैं भी हूँ

"मेरे हक को तू नकार दे

मेरे हौसले का हिसाब दे

जो फासला था दरमियां

वह आज भी घटा नहीं

तू अगर खुदा है तो खुद्दार मैं भी हूँ

में मजहबों में बंटा नहीं इबादतों से हटा नहीं

तू है देवता तो ये बता ये रास्ता क्यों अजीब है

गुनाह तो मेने नहीं किया फिर ये क्यों मेरा नसीब है

जहान में तू जहां भी है मुझे आज तक तू दिखा नहीं कभी तू कहीं मिला नहीं

तेरे बिना में कल भी था तेरे बिना में अब भी हूँ

ये वहम था मेरे जहन का जो आज तक मिटा नहीं ."


पी सी गोदियाल अंधड़ !: हद-ए-झूठ !
"रंगों की महफिल में सिर्फ़ हरा रंग तीखा,बाकी सब फीके !
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है ,
मगर झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे !!

झूठ भी ऐंसा कि एक पल को, सच लगने लगे !
दिमाग सफाई के धंदे में,इन्होने न जाने कितने युवा ठगे !!
गुनाहों को ढकने के लिए, खोजते है रोज नए-नए तरीके !
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है,
मगर झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे !!

जुर्म का अपने ये रखते नही कोई हिसाब !
भटक गए राह से अपनी,पता नही कितने कसाब !!
पाने की चाह है उस जन्नत को मरके,जो पा न सके जीके !
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है ,
मगर झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे !!

इस युग में सत्य का दामन, यूँ तो छोड़ दिया सभी ने !
असत्य के बल पर उछल रहे है,आज लुच्चे और कमीने !!
देखे तो है बड़े-बड़े झूठे, मगर देखे न इन सरीखे !
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है ,
मगर झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे !!

दहशतगर्दी के इस खेल में मत फंसो मिंया जरदारी !
पड़ ना जाए कंही तुम्ही पर तुम्हारी यह करतूत भारी !
करो इस तरह कि कथनी और करनी में, तुम्हारी न फर्क दीखे !
सच तो खैर, इस युग में कम ही लोग बोलते है,
मगर झूठ बोलना तो कोई इन पाकिस्तानियों से सीखे !!"

बगीचे और भी हैं ....

19 टिप्‍पणियां:

  1. आभार रश्मि जी ! अपनी एक पुरानी रचना इस बुलेटिन पे देख अच्छा लगा !

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  2. रश्मि जी बहुत सुन्दर ब्लांग की सैर करवाने के लिए आभार..मेरी रचना को स्थान देने के लिए आप का कोटि-कोटि धन्यवाद...

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  3. दी , खुद को यहाँ देख अच्छा लगा ......... सादर !

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  4. रश्मिजी ..इतना सुन्दर पढ़ाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ...!

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  5. बहुत सुन्दर गुलदस्ता सजाया है।

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  6. सुंदर रचनायें पढवाने के लिये आभार...

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  7. aaj blog buletin ki sair karne ka avsar mujhe bhi mila bahut achchi rachnaon ko padhvaya aapne.bahut bahut aabhar.

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  8. वाह रश्मि दीदी वाह ... अभी अभी एक सैर से लौटा हूँ ... और आपने एक और सैर का निमंत्रण दे दिया ... जय हो ...

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  9. अपनी पोस्ट को यहाँ देखकर अच्छा लगा रश्मिजी!
    आभार!

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  10. वाह वाह !!!! एक से एक बेहतरीन रचनाएँ!!!!

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  11. पिछले एक हफ़्ते इन्टरनेट बन्द था..... अच्छा लगा आज वापस बुलेटिन पर आकर... अभी पूरा बैक लाग निपटाते हैं.....
    शानदार बुलेटिन ...

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बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!