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बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

हमारे ज़माने में ...'



' हमारे ज़माने में ...' अम्मा , पापा से सुनती थी , फिर हम भी कहने लगे - पापा , अम्मा के रहते टीवी आ गया , अम्मा के सामने आ गया है मोबाइल , कंप्यूटर , आई पॉड ... और मैं उनकी बेटी ,तो देख ही रही हूँ ! ... युगों का अर्थ मेरी समझ में आता है , समय का अंतराल समझ में आता है ... पर ज़माना क्या ? मैं जब बहुत छोटी थी यानि कथनानुसार अम्मा का ज़माना था तो अंडा १ रूपये दर्जन था . वो मैंने देखा , जाना तो मेरा भी जमाना था ... आप कहते हैं - नहीं . चलिए मान लिया . चौकलेट - २ रूपये में फ्रॉक का घेरा भर जाता था उसी अंडे के टाइम में तो वो मेरा ज़माना , क्योंकि चौकलेट मैं खाती थी . फिर हुआ ५ , ८, १० , .... अब २ रूपये में १ चौकलेट ... तो ? मेरा ज़माना ख़त्म ? मेरे बच्चे खाते हैं तो मैं भी खाती हूँ . !!! ये कहानी हो सकती है कि " हम जब छोटे थे तो ये कीमत थी , तब रेडिओ का क्रेज था , रिकॉर्ड प्लेयर आया तो उसका क्रेज हुआ , फिर टेप रेकॉर्डर , वीसीआर , ....... आविष्कार होते रहते हैं , क्रेज बदलता रहता है . सीखना चाहें , सिखानेवाला सही हो तो आज भी सीखते हैं , नहीं चाहा तो बीते कल में भी कई बहाने थे . मेरे भाई बहन एसेमेस नहीं करते , पढ़ने में भी कतराते हैं - पर मेरी अम्मा मुंह अँधेरे उठ सबको गुड मॉर्निंग का एसेमेस भेजती हैं !!! ज़माना उनका अगर नहीं , पर उत्कंठा तो उनके ही साथ है .
हम जब छोटे थे , जब युवा हुए .... तब तक कुछ सीमित दिन थे - बर्थडे , होली , दशहरा , नया साल , शादी .... जिसे हम मनाते थे , मिलते थे , आशीष लेते थे , प्यार देते थे - सीमित नौकरियां थीं . पैसे का भी दिखावा एक हद तक था ..................... फिर कई तरह की नौकरियां हो गयीं . पढ़ाई के लिए बच्चे घर से बहुत दूर , महानगरों में चले गए . समानता , आर्थिक सक्षमता के लिए , अपने अस्तित्व के लिए बेटियाँ भी चली गईं . ख़त्म हो गया होली के पुए का प्रचलन , .... कई जगहों पर दशहरे का एहसास ही नहीं होता ... हर जगह के अपने पर्व त्योहार , अपने तरीके ... तब उनको बाँधने के लिए , एक एक दिन को बंदनवार से सजाने का उपक्रम चला - जैसे टेडी डे , ये डे वो डे निकला ... हम जब इस उम्र में थे तो ये नहीं था , पर यदि यह आया है तो तुम भी देख रहे , हम भी देख रहे , हमारे बुज़ुर्ग भी देख रहे .... पसंद , नापसंदगी की बात अलग है ...
कभी अपने बच्चों की खातिर , कभी अपने बच्चों के बच्चों की खातिर हम इसमें शामिल होते हैं ... ख़ुशी हमें भी उतनी ही मिलती है . किसी भी चीज को या उत्सव को बिगाड़ना, ख़ास बनाना हमारे रहन सहन पर होता है /
प्रेम तो हर युग में था - विरोध भी हर युग में था . मरना भी हर युग में , भागना भी हर युग में था - पहले संख्या कम थी , आज अधिक है . पहले अखबारों तक सबकुछ था , अब तो ...........
खैर , मेरी नज़र में परिवर्तन अच्छा बुरा होता रहा है , होता रहेगा - शरीक हो गए तो आपका , नहीं तो दूसरे का . ' डिस्को ज़माना है ' - मैं नहीं जाती , पर मेरी उम्र की महिलाएं जाती हैं . ' शराब ' भी बौद्धिक स्तर का हो गया है , सिगरेट ..... कभी नानी , दादी समान महिला को बीड़ी पीते देख मुंह बाये (खोले ) खड़े रह जाते थे , अब लड़कियों को धड़ल्ले से सिगरेट का कश लेते देख मुंह खोले अवाक होते हैं . बीड़ी से सिगरेट तक का समय बदला है ....
कुछ लोगों के विचार मिले हैं , चलिए उनको जानिए और दो शब्द आप भी कहिये -

वाणी शर्मा के शब्दों में (http://teremeregeet.blogspot.in/ http://vanigyan.blogspot.in/ )

वार्तालाप के दौरान कई बार मुंह से फिसल ही जाता है , हमारे ज़माने में ऐसा होता था ,वैसा होता था , पिता के साथ धौल धप्पा करते उनके सिर चढ़े बच्चों को देख हममे से अक्सर आहें भर लेते हैं , हमारे ज़माने में कहाँ बच्चों की ऐसी हिम्मत होती थी कि पिता के सामने खड़े भी हो सके , हंसी मजाक तो दूर की बात थी . फिर झट से जीभ भी काट ली , ये क्या बुड्ढों के जैसे बातें करने लगे . वास्तव में हम लोंग ज्यादा समय वर्तमान में नहीं अपितु भविष्य या भूतकाल में ही जीते हैं ....

हमारे कंप्यूटर शिक्षा केंद्र पर कंप्यूटर चलाना सिखाने के अलावा कभी बायोडाटा अथवा कोई ज़रूरी कागज़ का प्रिंट निकालने का काम भी कर दिया जाता था . इसी दौरान एक दिन सेना से रिटायर्ड एक व्यक्ति का अपने कुछ ज़रूरी कागजों को संशोधित कर प्रिंट लेने के लिए आना हुआ . मुझे कंप्यूटर पर टाइपिंग अशुद्धियों को ठीक करते हुए देख कहने लगे , " आजकल तकनीक ने हर काम कितना आसान कर दिया है , हमारे ज़माने में तो टाईपराईटर पर एक- एक पेज बहुत सावधानी से टाईप करना पड़ता था , एक भी गलती हुई तो दुबारा पूरी मेहनत करनी होती थी ."
मैंने कहा , "क्या परेशानी है , आप अभी भी कंप्यूटर सीख सकते हैं और जमाना आपके साथ हो जाएगा ."
वे खुश हो गये ," हाँ , ये ठीक है .
फिर पूछने लगे कि क्या वास्तव में मैं सीख सकता हूँ , इसमें मुझे परेशानी तो नहीं आएगी . मैंने कंप्यूटर सीखने वाले दस बारह साल के बच्चों की ओर इशारा किया ,
देखिये, ये लोंग सीख रहे हैं , क्या आपका सामान्य ज्ञान दस बारह साल के बच्चों जितना भी नहीं है जो आप नहीं सीख सके .
वे आश्वस्त हो गये और कहने लगे कि वास्तव में आजकल तकनीक ने जीवन कितना सरल कर दिया है , अब तो बहुत लम्बा जीने को मन करता है . जीवन के प्रति उनकी ललक और आत्मसंतुष्टि को देखकर बहुत अच्छा लगा कि वे ज़माने के रंग में घुल मिल रहे हैं , जमाना उनके हाथ से फिसला नहीं है .

जब सोचना शुरू किया कि वास्तव में हमारा जमा, तुम्हारा ज़माने का झगडा क्या है तो विचार पीछा करते हुए एक और पुराने ज़माने की ओर ले गये . ऋषि मुनियों के समय का ज़माना ,जहाँ प्रत्येक मनुष्य की आयु को कम से कम सौ वर्ष मानते हुए उसे चार आश्रमों में विभाजित किया गया था .
पहला ब्रह्मचर्य आश्रम जहाँ बालकों को अपनी संस्कृति और मर्यादाओं से परिचित करवाते तथा पालन करते हुए आने वाले जीवन के लिए उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से सुदृढ़ किया जाता था , इस समय वे गुरु के अधीन रहते हुए विद्यार्थी के रूप में अपना जीवन व्यतीत करते थे .
इसके बाद गृहस्थ आश्रम की शुरआत होती थी जिसमे सांसारिक गतिविधियों जैसे विवाह , संतानोत्पत्ति , जीवन यापन के लिए शासन , कार्य या व्यापार की जिम्मेदारी का वहन किया जाता था . जब युवा इन सांसारिक गतिविधियों में प्रवीण होकर जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए परिपक्व होते थे उस समय उनकी अगली पीढ़ी के लोंग तीसरे आश्रम वानप्रस्थ की तैयारी में लग जाते थे .
युवाओं को पूर्ण सत्ता हस्तांतरण जैसी यह व्यवस्था दो पीढ़ियों के टकराव की सम्भावना को जड़ से ही समाप्त कर देती थी . वानप्रस्थ आश्रम में सांसारिक गतिविधियों से हटकर वन में रहते हुए स्वाध्याय , सेवा , यज्ञ , दान आदि द्वारा जीवन का सार्थक उपयोग किये जाने की व्यवस्था सामाजिक ढांचे को संतुलित करती थी . इस समय बड़े बुजुर्ग वन में रहते हुए स्वयं को परिवार के भरण- पोषण अथवा नीति निर्धारण की जिम्मेदारी से मुक्त रखते थे . इस लिए उनका जमाना और नई पीढ़ी का जमाना अलग माना जाता था क्योंकि आश्रमों की व्यवस्था के कारण दोनों पीढ़ियों के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा थी . वे एक दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे , शासन अथवा गृहस्थी की जिम्मेदारी पूर्णतः युवा पीढ़ी के हाथों में होती थी जिसे वे अपने विवेक का पालन करते हुए अपनी सुविधानुसार ही उठाते थे . पूर्णतः स्वतंत्र होने के कारण उनकी अपनी नीतियाँ होती थी जो उन्हें अपनी अगली पीढ़ी से अलग करती थी और इस तरह दोनों के ज़माने भी अलग अलग ही निरुपित या सीमांकित होते थे .
उसके बाद संन्यास आश्रम का प्रारंभ होता था जिसमे कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर अक्सर सांसारिक गतिविधियों का पूर्णतः त्याग कर दिया जाता था .
समय के बदलने के साथ बढती सुविधाओं ने विभिन्न आश्रमों की अवधारणा अथवा संकल्पना को ही बदल दिया है . समय की मांग को देखते हुए अपनी जिम्मेदारियों के वहन में युवा , अधेड़ और वृद्ध के बीच कोई विभाजन रेखा नहीं रही है . भरण पोषण के लिए आवश्यक गतिविधियों के अतिरिक्त नीति निर्धारण में भी युवा , अधेड़ और वृद्धों की सामूहिक जिम्मेदारी और अहमियत है . इसलिए इस समय हमारा जमाना , तुम्हारा जमाना कहना ज्यादा उचित नहीं !
हमारा जमाना , तुम्हरा जमाना ..वास्तव में जमाना तो उस समय का ही होता है जिससे हम गुजर रहे होते हैं ,उस समय में गुजर रहे लोगों का नहीं !

वाणी शर्मा


विभा रानी श्रीवास्तव ( http://vranishrivastava1.blogspot.in/ )

आज इस सूचना क्रांति के दौर में.... !क्या ,हम बच्चों और युवा के तुलना में ,

कम जिज्ञासु है.... ?और हममे तार्किक संवेदनाशीलता की कमी है.... ?
20 वीं सदीं के आखिरी दशक में यह चमत्कार हुआ और 21 वीं सदीं में यह लगातार विराट रूप लेता जा रहा है..... !!
कई वेब-साइटें है ,जिनके बिना आज "इंटरनेट" और "आम जीवन" की कल्पना करना मुश्किल है.... !!
(1) विकिपीडिया :- शुरुआत : 15 जनवरी 2001 , निर्माता : जिम्मी वेल्स ,लैरी सैंगर , भाषाएं : 282 , लेख : 6 अरब से ज्यादा | वेबसाईट पर कुछ भी खोजें पहला लिंक विकिपीडिया का ही मिलेगा | यह एक मुक्त ज्ञानकोष है.... |
(2) हाटमेल :- शुरुआत : 4 जुलाई 1996 , निर्माता : शब्बीर भाटिया और जैक स्मिथ , अधिग्रहण : माइक्रोसाफ्ट | हाटमेल ने ही बेबमेल की शुरुआत की |
(3) फेसबुक :- शुरुआत : 4 फरवरी 2004 , निर्माता : मार्क जकरबर्ग | अमेरिका - इण्डिया जैसे देश में इसने गूगल कोभी पीछे छोड़कर सबसे पसंदीदा साईट होने का गौरव भी प्राप्त है ,इसी के वजह सेआज मै ये लेख्य लिखने बैठी हूँ.... Jइसने सोशल नेटवर्किंग को बदल डाला फेशबुक ने थर्ड पार्टी को मंजूरी देकर अपनी लोकप्रियता में तेजी से बढ़ोत्तरी की |

(4) टिवटर :- स्थान : सेन फ्रांसिस्को , कैलिफोनिया , शुरुआत : 2006 , निर्माता : जैक डोर्सी , नोह ग्लास , इवान विलियम्स , बिज स्टोन | क्या नेता , क्या अभिनेता , क्या धर्मगुरु , क्या खेलगुरु , क्या समाज सेवक , क्या आप , क्या हम , 140 अक्षरों के साथ दुनिया भर से जुड़ जाते है | सामाजिक संवाद के इस विस्फोट से दुनिया भर की सरकारें की नींद उडी रहती है | बड़े बदलाव का माध्यम बन रहा है | यह टिवटर का ही कमाल है , जिसने आम व्यक्ति और ख़ास व्यक्ति के बीच संवाद का भेद मिटा दिया है |

(5) यूट्यूब :- शुरुआत : फरवरी 2005 , स्थान : सेन ब्रुनो , कैलिफोनिया , निर्माता : चाड हर्ली , जावेद करीम ,स्टीव चैन , अधिकरण : गूगल (2006) | यूट्यूब ने मनोरंजन के मायने बदल दिए |इसके द्वारा हजारों वीडियो रोजाना अपलोड होते हैं और लाखों लोग उन्हें देखते है | मुफ्त का जो मिलता है |
(6) गूगल :- शुरुआत : 4 सितंबर 1998 , स्थान : माउन्टेन व्यू ,कैलिफोनिया , निर्माता : सर्जेई ब्रिन , लैरी पेज , पहला सार्वजनिक सेवा : 19 अगस्त 2004 | विश्व में ज्ञान को व्यवस्थित , सवर्त्र उपलब्ध और लाभप्रद बनाना गूगल का ही काम है | सही जानकारी लेनी हो , गूगल का जरुरत | जीमेल ,इमेल , ऑरकुट और हाल का गूगल बज्ज इन सेवाओं का जरुरत हमे नहीं है.... ?
(7) एमेजन :- शुरुआत : 1998 , स्थान : वाशिंगटन , निर्माता : जैफरी बिजोज | एमेजन ने लोगों की खरीदारी की आदत को बदल दिया | आज इंटरनेट पर आनलाइन शापिंग साइटें है ,आज हमारी जरूरत नहीं.... ?
ज्ञान की ज्योति , उत्साहवर्धक उपलब्धि , सृजनात्मक शक्ति इन सब का नशा की जरुरत हमारे जमाने का कैसे नहीं..... ?
"हम" मतलब न तो युवा और न बच्चे यानि बुढ़ा ,नहीं- नहीं ,बुढ़ा का मतलब तो लाचार और अस्वस्थ्य जिसने अपने सारे कार्य निर्वृत कर लिए है,और पूरी तरह से दुसरे पर निर्भर ,लेकिन हम तो उस स्थिति में नहीं पहुंचे तो फिर "हम" का मतलब "ठहराव ली शांत ,अनुभवी , सशक्त सोच वाले प्रौढ़" जिसे अपनी जिन्दगी अभी जीनी बाकी है.... कुछ कार्य करने बाकी है.... ? तो "हम" ही है , जो, इन बच्चों और युवाओं के बीच ताल-मेल बैठाये और साथ भी देना है ,पुल का काम जो करना होता है.... :) ये बच्चे-युवा हमारे अंश ही तो हैं.... |
कंप्यूटर की जानकारी और उसकी उपयोगिता के बारे जानना और उसका उपयोग करना हमलोगों की जरूरते में शामिल है | बढती आबादी हो या बढती महंगाई परिवार छोटा से छोटा होता गया और नौकरी के लालच में बच्चे बाहर चले जाते है | आज कंप्यूटर के वजह से हम अपनी और बच्चे की खैरियत की खबर रोज ले-दे सकते है ,कल की(12-2-2012)बात है ,मेरे लड़के के शादी के लिए लड़की का फोटो-बायोडाटा मेल से ही आया अगर मुझे कंप्यूटर की जानकारी नहीं होती तो मै क्या करती... ? ट्रेन का रिजर्वेशन करानी हो तो नेट की सुविधा ,न तो कही जाने की जरुरत और न लम्बी पंक्तियों का झंझट | किसी भी बात की जानकारी लेनी हो गूगल में सम्बन्धित शब्द डालते ही पूरी जानकारी मिल जाती है | शंका का निवारण तुरंत हो जाता है | गूगल से सम्बन्धित ही ब्लॉग बनाने की सुविधा है जिसमे अपनी अनुभूति की अभिवयक्ति बहुत आसानी से की जाती है, और हम करते भी है | अच्छा तब और लगता है जब उस पर हमारे दोस्तों का "कमेंट्स" आ जाता है, अपना लिखा न छपवाने की चिंता और न रचना लौट आने पर मायूसी | हमारे सृजनात्मक क्षमता विस्तार का विशाल सतह हमारे जमाने में ही है | "हम अकेले है लेकिन तनाव और अवसाद के लिए कोई जगह नहीं है,हमारे जिन्दगी में.... :)" बिना दूकान गये हमारे लिए हमारे उपयोग की वस्तुएं हमारे घर आ जाए तो हमारे लिए बहुत सुविधाहोगी समय के बचत के रूप में | हमारे मनोरंजन के लिए हमारे पसंद के जो भी चाहिए यूट्यूब से आसानी से उपलब्ध हो जाते है जो हमारी जरुरत भी है | इसलिए भी ये हमारे जमाने का ही है... |
कोई भाग-दौड़ नहीं ,जिन्दगी हो गई आसान.... :)
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार.... :) माफी माँगना है, " अधेड़ " कुछ जम नहीं रहा था .... SOORY....... :)


विभा रानी श्रीवास्तव


यशवंत माथुर
नहीं ज़माना सिर्फ और सिर्फ युवाओं का नहीं होता। मैं पूछता हूँ कि युवा आते कहाँ से हैं ? माँ-बाप-दादा-दादी-नाना-नानी ही बच्चे का पोषण करते हैं ,उसे चलना सिखाते हैं ,सही गलत की पहचान और हर वो चीज़ सिखाते हैं जो जीवन के काँटों पर चलने के लिए ज़रूरी होती हैं और यह क्रम सतत चलता है और चलता रहेगा इसलिए यह कहना कि ज़माना सिर्फ युवाओं का है गलत है हाँ समय के साथ युवा वर्ग का कुछ प्रभाव ज़रूर पड़ता है और यह प्रभाव भी यूं ही पड़ता उसके पीछे बड़ों की कुछ न कुछ सहमति भी होती है।
अब बात कंप्यूटर की --80 के दशक मे जिन लोगों ने जन्म लिया होगा वे निश्चित तौर पर ट्रांज़िस्टर / और टी वी के दौर मे भी गुजरे हैं और कंप्यूटर भी ऐसे लोगों ने बहुत जल्दी सीखा होगा तो वर्ष 98/99 या उसके बाद ही सीखा होगा।
किसी भी चीज़ की उपयोगिता किसी एक खास वर्ग /पीढ़ी तक ही सीमित नहीं कर देनी चाहिये उसका उपयोग व्यक्ति -व्यक्ति पर निर्भर करता है किन्तु यह भी सत्य है कि सही और स्थायी मार्गदर्शन हम से बड़े ही दे सकते हैं।


सादर / With Regards
यशवन्त माथुर / Yashwant Mathur
http://jomeramankahe.blogspot.com
http://nayi-purani-halchal.blogsppot.com
http://yashwantrajbalimathur.blogspot.com


प्रतीक माहेश्वरी ( http://bitspratik.blogspot.in/ )

मेरे ख्याल से ज़माना बचपन और युवा की ओर ज्यादा रुझान रखता है और इसमें भी युवाओं की ओर.. आज हम केवल तकनीक की बात नहीं करते हैं जब हम किसी ज़माने का विश्लेषण करते हैं | इसमें रहन-सहन, खाना-पीना, पहनावा, बात करने का तरीका, इत्यादि का भी समागम है | और इस बात पर किसी को भी आपत्ति नहीं होगी कि ज़माने के साथ रहन-सहन, खाना-पीना, पहनावा, बात करने का तरीका बदल जाता है जिसे पुरानी पीढ़ी के लोग अख्तियार नहीं करते हैं या फिर नहीं करना चाहते हैं |
इसलिए जो लोग इन सब में ढल जाते हैं, उनके लिए वो लोग जो नहीं ढल पाएं/पाना चाहते हैं इस ज़माने के नहीं रहते | वो लोग ज़रूर तकनीक इत्यादि में इसी ज़माने के साथ हैं पर उन्हें हम इस ज़माने का नहीं कह सकते |
इसलिए ज़माना तो हमेशा ही युवाओं का रहेगा..

आभार,
प्रतीक माहेश्वरी
लफ़्ज़ों का खेल


43 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ...बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ... आभार आपका ।

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  2. बस इतना ही कहना है ज़माना हमसे है .... हम ज़माने से नहीं :):) ... बढ़िया प्रस्तुति

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  3. इस ज़माने वाली बात ने पापा से हुई एक लम्बी बहस याद दिला दी ..मैं बोली आप आज हो तो ये भी तो आपका ज़माना है पर उनका कहना था ..जिस समय आप सबसे उर्जावान होते है वही आपका समय होता है ...एक उम्र के बाद चाहकर भी आप उतनी ऊर्जा नहीं पा सकते ....उस समय मैं उनसे असहमत थी आज भी हूँ

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  4. बहुत अच्छे लगे सभी के विचार ! बढ़िया विषय और सार्थक चिंतन !

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  5. बात अपने ही जमाने की मुझे भाती रही
    मैं उड़ा आकाश में पर बैल गाड़ी वाह वा!!


    अच्छी चर्चा हुई दी... अच्छे लिंक्स मिले...
    सादर आभार.

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  6. गहन विमर्श के साथ शानदार लिंक संयोजन्।

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  7. शानदार विषय. और शानदार विमर्श.वाकई. समस्या, संशय और भावनाएं हर युग में थीं और हमेशा रहेंगी.समय के साथ स्वरुप बदलता है पर मूल तो वही है.
    बहुत अच्छा लगा यह बुलेटिन.

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  8. गहन विमर्श के साथ अच्‍छी प्रस्‍तुति,अच्छी चर्चा....आभार आपका ।

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  9. एक बढ़िया विषय पर सार्थक चिंतन ...

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  10. अरे बड़ा मन कर रहा है लंबे चौड़े पन्ने पर अपने भी विचार लिख डालूँ :-)
    क्यूंकि मेरा ज़माना तो पंचायत विभाग की गाड़ी पर पर्दा लटका कर उपकार फिल्म देखने से लेकर आज मल्टीप्लेक्स में ROCkSTAR देखने तक चला आ रहा है...
    सो जब तक हम है..हमारा ज़माना है...
    बढ़िया सभी के विचार...
    बेहतरीन लिंक...
    शुक्रिया.

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  11. बहुत अच्छा लगा आज का बुलेटिन।
    धन्यवाद आंटी!

    सादर

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  12. इस ज़माने में उस ज़माने की बातें ... वो भी इतनी सारी ... क्या बात है ... बढ़िया बुलेटिन लगाया रश्मि दी !

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  13. ये तो कमाल है, लिखना समाप्त हुआ और छप भी गया.... रश्मि प्रभा जी Soory तो आपके लिए था....

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  14. हर ज़माने में बस जिनका जमता है उनके जमाने की बात है।

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  15. आज का बुलेटिन बड़ा अलग लगा और गुदगुदा सा गया...
    लिंक्स का संयोजन बढ़िया...

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  16. बहुत अच्छे लगे सभी के विचार !

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  17. मेरी नज़र में परिवर्तन अच्छा बुरा होता रहा है , होता रहेगा - शरीक हो गए तो आपका , नहीं तो दूसरे का . ' डिस्को ज़माना है ' - मैं नहीं जाती , पर मेरी उम्र की महिलाएं जाती हैं . ' शराब ' भी बौद्धिक स्तर का हो गया है..............बिलकुल सही ....! अक्सर ज़माना....ज़माने की बात हर युग में हर पीढ़ी द्वारा की जाती रही है ..../ हम भी कहते सुनते दोनों है....पर ज़माना तो हमारे साथ ही होता है .....

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  18. मेरी नज़र में परिवर्तन अच्छा बुरा होता रहा है , होता रहेगा - शरीक हो गए तो आपका , नहीं तो दूसरे का . ' डिस्को ज़माना है ' - मैं नहीं जाती , पर मेरी उम्र की महिलाएं जाती हैं . ' शराब ' भी बौद्धिक स्तर का हो गया है..............बिलकुल सही ....! अक्सर ज़माना....ज़माने की बात हर युग में हर पीढ़ी द्वारा की जाती रही है ..../ हम भी कहते सुनते दोनों है....पर ज़माना तो हमारे साथ ही होता है .....

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  19. रश्मी जी,..बहुत अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई .

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  20. वाह ... सबके संस्मरण पढ़ के मज़ा आया ...

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  21. bahut kamaal ki buletin. khaas mudde par khaas jaankaari bhi mili. waqt ke badlaav ko sweekaar kar angikaar kar lena hi sukhmaye. aabhaar.

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  22. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    And also friends you get lyrics of different languages song as like Punjabi, Tamil, Telugu and Haryanvi etc

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