पल्लवी सक्सेना और उनका ब्लॉग
Search Results
Web results
मेरे अनुभव (Mere Anubhav): मृत होती संवेदनाएं
आज बहुत दिनों बाद एक मित्र के कहने पर कुछ लिख रही हूँ। अन्यथा अब कभी कुछ लिखने का मन नहीं होता। लिखो भी तो क्या लिखो। कहने वाले कहते है अरे यदि आप एक संवेदन शील व्यक्ति हो तो कितना कुछ है आपके लिखने लिए कितना कुछ हो रहा है, कितना कुछ घट रहा है और आप तो अपने अनुभव लिखते हो फिर क्यूँ लिखना छोड़ दिया आपने, क्या आस पास घट रही घटनाओं से आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अब क्या कहूँ किसी से कि मुझे किस चीज़ से कितना प्रभाव पड़ता है। मन तो करता है की समंदर किनारे जाऊँ और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाऊँ की मन की सारी पीड़ा समाप्त हो जाए। मन हल्का हो जाए। किन्तु अगले ही पल यह विचार आता है कि दर्द और पीड़ा इतनी अधिक तीव्र और गहरी है कि अपनी अंदर की चित्कार को यूँ समंदर की लहरों में घोल देने से भी मन शांत नहीं हो सकता मेरा, क्यूंकि जब आपको अपने भीतर ही कुछ जीवंत महसूस न हो तो आप क्या लिख सकते हो। भले ही लिखना भी एक तरह से आपने मन को हल्का करने का एक साधन ही है मेरे लिए। लेकिन जब चारों ओर शोर हो, चित्कार हो, शोक को, भय हो, पीड़ा हो,उदासी हो, तो कोई क्या लिखे कैसे लिखे । ऐसा लगता है सब मर रहे है। कोई जीवित नहीं है सभी केवल चलती फिरती लाशें है। जिनके पास शरीर तो है, किन्तु आत्मा नहीं है, पुतला है पर प्राण नहीं है। मुझे तो कभी-कभी ऐसा भी लगने लगता है कि मुरदों की दुनिया है जहां केवल चलती फिरती लाशें विचर रही हैं ।
संवेदनाएं तो अब किसी में शेष नहीं है। जिनमें है वह इस असंवेदन शील समाज में चंद आत्माय हैं। जो अपने अतिरिक्त अन्य लोगों के विषय में भी सोच लिया करते हैं। लेकिन इस असवेदन शील समाज के समंदर में ऐसे लोग मुट्टी भर ही होंगे जिनका आने वाले समय में कितना पतन होगा यह न उन्हें पता है न हमें, मुझे तो ऐसा भी लगता है कि बस अब बहुत होगया अब यह दुनिया समाप्त हो जानी चाहिए अथवा जब तक जैसा चल रहा है वह सब तो हमें झेलना ही है। क्यूंकि इस असंवेदन शील दुनिया में मंदिर में भगवान नहीं है, मस्जिद में कुरान नहीं है, गुरुद्वारे में गुरु नहीं है और गिरिजा घरों में इशू नहीं है। इसलिए हर विषय पर लोग जाती, धर्म, समुदाय को लेकर लड़े मर रहे हैं। न पीड़ित से किसी को मतलब है, न पीड़ित के परिवार से फिर चाहे वह पीड़ित किसी भी समस्या से पीड़ित क्यूँ ना हो। देखीए न बच्चे मर रहे हैं। प्रकृति क्रोधित है, क्षुब्ध है, रो रही है। इसलिए शायद हादसे बढ़ रहे हैं, हिंसा बढ़ रही है इंसान हैवान बन गया है। तभी तो बलात्कारी बढ़ रहे हैं।
अब कहीं मासूम सी हंसी किसी का मन नहीं मोह लेती, कोई नन्ही सी किलकारी किसी को सुख नहीं पहुँचती बल्कि उसके अंदर के जानवर को जगा देती है। अब किसी बुजुर्ग का चेहरा देखकर किसी के मन मे उनके प्रति मान-सम्मान या सदभावना नहीं आता। बल्कि उनके प्रति क्रूरता आती है। कदाचित इसलिए ही वृद्धाश्र्म धड़ल्ले से चल रहे हैं। ऐसी बेरहम दुनिया में जीने से क्या लाभ ! मेरा तो मन करता है प्रलय हो और सारी दुनिया डूब जाये। फिर एक नयी संरचना हो तो कदाचित कुछ अच्छा हो जाए। तब शायद यह जाती धर्म समुदाय समाप्त हो सकेंगे वरना वर्तमान में तो यह असंभव सी बात है। अन्यथा यूं तो साँसे मिली है सब को, सो लिए जा रहे हैं। स्वार्थ का है ज़माना सो स्वार्थी हो सभी बस जिये जा रहे हैं। मैं जानती हूँ यह सब पढ़कर आप को लग रहा होगा की जाने मुझे क्या होगया है जो मैं आज इतनी निराशा जनक नकारात्मक बाते लिखे जा रही हूँ। लेकिन मैं क्या करूँ यही तो चल रहा है मेरे चारों ओर समवेदनाएं इस हद तक मर चुकी हैं कि अब तो लगता है की जैसे ज्ञान विज्ञान प्रगति तकनीकें सब के सब मिलकर मानव जीवन का नाश करने में ही लगी है। प्रकृति का प्रकोप पेड़ों का कटना, जानवरों का मारना, पानी की कमी,सूखा ग्रस्त गाँव शहर,नगर किसान भाइयों का मरना खेती के हज़ार संसाधन होने के बावजूद किसानो पर कर्जा और वो न चुका पाने के नतीजे आत्महत्या।
यह सब कम नहीं था ऊपर से हम जैसे पढे लिखे लोगों का सोशल मीडिया पर जाकर गूगल से एक तस्वीर उठाना और दुख व्यक्त करते हुए आर.आई.पी लिख आना ही हमारे कर्म की इतिश्री और हमारी संवेदन हीनता को दर्शाता है। ऐसे समाज में किसी से क्या संवेदना की उम्मीद रखेगे आप और क्यूँ ? परीक्षा में अनुतीर्ण हुआ बच्चा जब आत्महत्या का सहारा लेता है तो हम में से ही कुछ लोग उस बच्चे की जाती धर्म समुदाय पहले देखने लगते है लेकिन उसकी उस समय क्या मनोदशा रही होगी जिसके कारण उसे जीवन मृत्यू से अधिक कठिन लगा होगा उसने मृत्यू को चुना होगा।
यही हाल इन दिनों मासूम बच्चियों का हुआ पड़ा है। दरिंदे बढ़ रहे हैं उन्हें सिवाए शरीर के कुछ नज़र नहीं आरहा बल्कि यदि में यह कहूँ की शरीर भी नहीं उन हैवानो को बस दो इंच का चीरा दिख रहा है ऐसे लोग तो जानवरों को भी नहीं छोड़ते। ऐसे लोगों को सिर्फ यह कहकर छोड़ देना की वह दरिंदे है, मानवता के नाम पर कलंक है, हैवान है, शैतान है उनको जल्द से जल्द सख्त से सख्त सजा मिलनी ही चाहिए हमारे कर्तव्यों की इति श्री नहीं है। सोश्ल मीडिया पर जाकर अपनी इस तरह की टिप्पणी दर्ज करा देने भर से ही हम अपना पक्ष साफ नहीं कर सकते। पर होता यही है सिर्फ सजा की गुहार लगाने से ऐसे दरिंदों को सजा नहीं मिलेगी। हमें ही हिम्मत दिखनी होगी गांधी के नहीं बल्कि भगत सिंह के कदमों पर चलना होगा। तब जाकर शायद कुछ हो पाये। लेकिन मेरा उन सभी लोगों से यह कहना है जो लोग इस तरह की घटनाओं पर पीड़ित व्यक्ति की जाती धर्म और समुदाय को देखने की हिमाकत करते हैं। वह यदि वास्तव में कुछ देखना चाहते हैं और मानवता के प्रति नाम मात्र की भी संवेदना रखते हैं तो सबसे पहले यह देखें कि बच्ची, बच्ची होती है हिन्दू की या मुसलमान की है से फर्क नहीं पड़ना चाहिए वह इंसान की बच्ची है या थी इस बात से फर्क पड़ना चाहिए। इस तरह की घटना जब भी हमारे सामने आती है तब हम में से कुछ धर्म के ठेकेदार सबसे पहले खबर में मसाला ढूंढ ने निकल पड़ते है कि अरे पीड़ित बच्ची हिन्दू थी या मुसमान, दलित थी या आदिवासी और घटना जब ही हमारे सामने आती है जब उसमें क्रूरता की पराकाष्ठा हो,या दर्शायी गयी हो। जैसे निर्भाया से लेकर ट्विंकल तक खबरें वही सामने आयी जो दर्ज कराईं गयी लेकिन जो किसी भी कारण से दर्ज न हो पायी उनका क्या ? क्या उनका दुख उनकी पीड़ा बकियों से कम थी। ???
ऐसे नजाने कितने किस्से कितने जुल्म है जिनके विषय में यदि विस्तार से बात करने निकलें तो शायद शब्द कम पड़ जाएँगे लेकिन हादसे खत्म न होंगे। चाहे हत्या के मामले में प्रद्युमान ह्त्या कांड हो या पुलवामा हत्या कांड हमारे हजारों जवान शहीद हो गए और लोग उनमें वर्दी ढूंढ रहे थे की कौनसे जवान थे क्या उन्हें जवानों का दर्जा हंसिल था क्या कागज़ पर भी उनकी गिनती जवानों में होती है क्या उनके शहीद होने पर उन्हें पेंशन वगैरा मिलती है अरे मैं कहती हूँ क्या फर्क पड़ता है कि वह आर्मी से थे या नेवी से बी एस फ के थे पुलिस वाले थे या किसी और सेना के थे, थे तो आखिर हमारे ही देश के जवान ना ? जो अपना परिवार छोड़कर हमारे लिए हमारे देश, हमारे शहर, हमारे नगर कि सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। माना के यह एक दुर्घटना थी जैसे अभी हाल ही में सूरत में हुई थी जिसमें कोचिंग जाने वाले मासूम बच्चे अग्नि कांड का शिकार हुए और हमने क्या किया रोते हुए नरमुंड के साथ एक बार फिर आर आई पी लिख आए और होगया।
सुना है आज कल एक हवाई जहाज भी गायब है। न जाने उसमें कितने लोग होंगे और नजाने उन सभी के परिवारों का क्या हाल होगा। कैसे एक अंजान डर के साय में गुज़र रही होगी उनकी ज़िंदगी हम और आप तो शायद ऐसी भयावा परिस्त्तिथी के विषय में सोच भी नहीं सकते। क्यूंकि हम इंसान हैं। किसी का दुख बाँट सकते हैं परंतु उस दुख को महसूस करने के लिए जब तक हम स्वयं उस दुख से नहीं गुजरते हम अनुमान भी नहीं लगा सकते कि उस व्यक्ति विशेष या उसके परिवार पर क्या बीत रही होती है। यह सब संवेदन हीनता नहीं है तो और क्या है दिन प्रति दिन के यह समाचार देखते, पढ़ते और सुनते हुए मेरा तो मन ही नहीं करता कि कुछ लिखूँ क्या लिखूँ और क्यूँ लिखूँ। जब कोई पढ़कर मेरी भावनाओं को समझने वाला ही नहीं है। जब मेरी बात सिर्फ मुझ तक ही रहनी है तो मैं मौन ही अच्छी।
उम्दा चयन
जवाब देंहटाएंबेहतरीन..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ पल्लवी बहन को
सादर
शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक लेख है पल्लवी जी | अनगिन प्रश्नों से भरे मन का दर्पण |संवेदनहीन होते समाज में आज दुःख की परिभाषा अपना दुःख है |सोशल मीडिया की घुसपैठ से जीवन में जो आत्ममुगधता आई है ये उसका ही परिणाम है |ब्लॉग बुलेटिन का विशेष रचनाकार बनने के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लिखती हैं आप पल्लवी जी ऐसे ही लिखते रहिये और अपने विचार लोगों तक पहुंचाते रहिए। वैसे मैं भी लिखने का शौक रखता हूँ। मेरे द्वारा लिखे गए कुछ एक लेख आप नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकती हैं।
जवाब देंहटाएंHealth Benefits of Carom Seeds in Hindi
Foot Care Tips In Hindi
Bahut hi bdiya post likhi hai aapne love from nunews
जवाब देंहटाएंNice post and great article maim good job
जवाब देंहटाएंnice