समीर लाल जी, उड़न तश्तरी, - मेरा ख्याल है, ब्लॉग के बुनियादी समय से यह नाम उड़ान भर रहा है ... उनकी कलम आज भी यही कहती है,
"समीर लाल की उड़न तश्तरी... जबलपुर से कनाडा तक...सरर्रर्रर्र..."
तो चलते हैं सर्रर्ररर्रर्रर्र से उनके ब्लॉग तक इस कहानी का सिरा थामे -
सरौता बाई नाम था उसका. सुबह सुबह ६ बजे आकर कुंडी खटखटाती थी. तब से उसका जो दिन शुरु होता कि ६ घर निपटाते शाम के ६ बजते. कपड़ा, भाडू, पौंछा, बरतन और कभी कभी मलकिनों की मालिश. बात कम ही करती थी.
पता चला कि उसका पति शराब पी पी कर मर गया कुछ साल पहले. पास ही के एक टोला में छोटी सी कोठरिया लेकर रहती थी १० रुपया किराये पर.
एक बेटा था बसुआ. उसे पढ़ा रही थी. उसका पूरा जीवन बसुआ के इर्द गिर्द ही घूमता. वो उसे बड़ा आदमी बनाना चाहती थी.
हमें ७.३० बजे दफ्तर के निकलना होता था. कई बार उससे कहा कि ५.३० बजे आ जाया कर तो हमारे निकलते तक सब काम निपट जायेंगे मगर वो ६ बजे के पहले कभी न आ पाती. उसे ५ बजे बसुआ को उठाकर चाय नाश्ता देना होता था. फिर उसके लिये दोपहर का भोजन बनाकर घर से निकलती ताकि जब वो १२ बजे स्कूल से लौटे तो खाना खा ले.
फिर रात में तो गरम गरम सामने बैठालकर ही खाना खिलाती थी. बरसात को छोड़ हर मौसम में कोशिश करके कोठरी के बाहर ही परछी में सोती थी ताकि बसुआ को देर तक पढ़ने और सोने में परेशानी न हो.
poor lady
समय बीतता गया. बसुआ पढ़ता गया. सरौता बाई घूम घूम कर काम करती रही. एक दिन गुजिया लेकर आई कि बसुआ का कालिज में दाखिला हो गया है. बसुआ को स्कॉलरशिप भी मिल गई है. कालिज तो दूर था ही, तो स्कॉलरशिप के पैसे से फीस , किताब के इन्तजाम के बाद जो बच रहा, उसमें कुछ घरों से एडवान्स बटोरकर उसके लिये साईकिल लेकर दे दी. पहले दिन बसुआ अपनी माँ को छोड़ने आया था साईकिल पर बैठा कर. सरौता बाई कैरियर पर ऐसे बैठकर आई मानों कोई राजरानी मर्सडीज कार से आ रही हो. उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे. बहुत खूश थी उस दिन वो.
बसुआ की प्रतिभा से वो फूली न समाती. बसुआ ने कालिज पूरा किया. एक प्राईवेट स्कूल से एम बी ए किया. फिर वो एक प्राईवेट कम्पनी में अच्छी पोजीशन पर लग गया. हर मौकों पर सरौता बाई खुश होती रही. उसकी तपस्या का फल उसे मिल रहा था. उसने अभी अपने काम नहीं छोड़े थे. एम बी ए की पढ़ाई के दौरान लिया कर्जा अभी बसुआ चुका रहा था शायद. सो सरौता बाई काम करती रही. उम्र के साथ साथ उसे खाँसी की बीमारी भी लग गई. रात रात भर खाँसती रहती.
बसुआ का साथ ही काम कर रही एक लड़की पर दिल आ गया और दोनों ने जल्द ही शादी करने का फैसला भी कर लिया, सरौता बाई भी बहुरिया आने की तैयारी में लग गई.
एक दिन सरौता बाई ५.३० बजे ही आ गई. आज वो उदास दिख रही थी. आज पहली बार उसकी आँखों में आसूं थे. बहुत पूछने पर बताने लगी कि कल जब घर पर चूना गेरु करने का इन्तजाम कर रही थी बहुरिया के स्वागत के लिये, तब बसुआ ने बताया कि बहुरिया यहाँ नहीं रह पायेगी. वो बहुत पढ़ी लिखी और अच्छे घर से ताल्लुक रखती है और वो शादी के लिये इसी शर्त पर राजी हुई है कि मैं उसके साथ उनके पिता जी के घर पर ही रहूँ. वैसे, तू चिन्ता मत कर, मैं बीच बीच में आता रहूँगा मिलने.
कोई भी काम हो तो फोन नम्बर भी दिया है कि इस पर फोन लगवा लेना. उसे चिन्ता लगी रहेगी. बहुत ख्याल रखता है बेचारा बसुआ. जाते जाते कह रहा था कि अब तो मेरा खर्च भी तुझको नहीं उठाना है. बसुआ पढ़ लिख गया है तो तू एकाध घर कम कर ले और हफ्ते में एक टाईम की छुट्टी भी लिया कर. अकेले के लिये कितना दौड़ेगी भागेगी आखिर तू. और अब इस उम्र भी तू पहले की तरह काम करेगी तो सोच, मुझे कितनी तकलीफ होगी. आखिर बेटा हूँ तेरा.
तब से सरौता बाई रोज ५.३० बजे आने लगी.
पता चला कि उसका पति शराब पी पी कर मर गया कुछ साल पहले. पास ही के एक टोला में छोटी सी कोठरिया लेकर रहती थी १० रुपया किराये पर.
एक बेटा था बसुआ. उसे पढ़ा रही थी. उसका पूरा जीवन बसुआ के इर्द गिर्द ही घूमता. वो उसे बड़ा आदमी बनाना चाहती थी.
हमें ७.३० बजे दफ्तर के निकलना होता था. कई बार उससे कहा कि ५.३० बजे आ जाया कर तो हमारे निकलते तक सब काम निपट जायेंगे मगर वो ६ बजे के पहले कभी न आ पाती. उसे ५ बजे बसुआ को उठाकर चाय नाश्ता देना होता था. फिर उसके लिये दोपहर का भोजन बनाकर घर से निकलती ताकि जब वो १२ बजे स्कूल से लौटे तो खाना खा ले.
फिर रात में तो गरम गरम सामने बैठालकर ही खाना खिलाती थी. बरसात को छोड़ हर मौसम में कोशिश करके कोठरी के बाहर ही परछी में सोती थी ताकि बसुआ को देर तक पढ़ने और सोने में परेशानी न हो.
poor lady
समय बीतता गया. बसुआ पढ़ता गया. सरौता बाई घूम घूम कर काम करती रही. एक दिन गुजिया लेकर आई कि बसुआ का कालिज में दाखिला हो गया है. बसुआ को स्कॉलरशिप भी मिल गई है. कालिज तो दूर था ही, तो स्कॉलरशिप के पैसे से फीस , किताब के इन्तजाम के बाद जो बच रहा, उसमें कुछ घरों से एडवान्स बटोरकर उसके लिये साईकिल लेकर दे दी. पहले दिन बसुआ अपनी माँ को छोड़ने आया था साईकिल पर बैठा कर. सरौता बाई कैरियर पर ऐसे बैठकर आई मानों कोई राजरानी मर्सडीज कार से आ रही हो. उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे. बहुत खूश थी उस दिन वो.
बसुआ की प्रतिभा से वो फूली न समाती. बसुआ ने कालिज पूरा किया. एक प्राईवेट स्कूल से एम बी ए किया. फिर वो एक प्राईवेट कम्पनी में अच्छी पोजीशन पर लग गया. हर मौकों पर सरौता बाई खुश होती रही. उसकी तपस्या का फल उसे मिल रहा था. उसने अभी अपने काम नहीं छोड़े थे. एम बी ए की पढ़ाई के दौरान लिया कर्जा अभी बसुआ चुका रहा था शायद. सो सरौता बाई काम करती रही. उम्र के साथ साथ उसे खाँसी की बीमारी भी लग गई. रात रात भर खाँसती रहती.
बसुआ का साथ ही काम कर रही एक लड़की पर दिल आ गया और दोनों ने जल्द ही शादी करने का फैसला भी कर लिया, सरौता बाई भी बहुरिया आने की तैयारी में लग गई.
एक दिन सरौता बाई ५.३० बजे ही आ गई. आज वो उदास दिख रही थी. आज पहली बार उसकी आँखों में आसूं थे. बहुत पूछने पर बताने लगी कि कल जब घर पर चूना गेरु करने का इन्तजाम कर रही थी बहुरिया के स्वागत के लिये, तब बसुआ ने बताया कि बहुरिया यहाँ नहीं रह पायेगी. वो बहुत पढ़ी लिखी और अच्छे घर से ताल्लुक रखती है और वो शादी के लिये इसी शर्त पर राजी हुई है कि मैं उसके साथ उनके पिता जी के घर पर ही रहूँ. वैसे, तू चिन्ता मत कर, मैं बीच बीच में आता रहूँगा मिलने.
कोई भी काम हो तो फोन नम्बर भी दिया है कि इस पर फोन लगवा लेना. उसे चिन्ता लगी रहेगी. बहुत ख्याल रखता है बेचारा बसुआ. जाते जाते कह रहा था कि अब तो मेरा खर्च भी तुझको नहीं उठाना है. बसुआ पढ़ लिख गया है तो तू एकाध घर कम कर ले और हफ्ते में एक टाईम की छुट्टी भी लिया कर. अकेले के लिये कितना दौड़ेगी भागेगी आखिर तू. और अब इस उम्र भी तू पहले की तरह काम करेगी तो सोच, मुझे कितनी तकलीफ होगी. आखिर बेटा हूँ तेरा.
तब से सरौता बाई रोज ५.३० बजे आने लगी.
बढ़िया कहानी..
जवाब देंहटाएंसरौता बाई माँ है...
माँ पना कैसे छोड़ देती..
सादर
बिलकुल सच हैं ये कहानी नहीं | मेरे घर भी बचपन में कुछ कुछ सरौता बाई जैसी ही काम पर आती थी |
जवाब देंहटाएंउफ़ बेहद मार्मिक यथार्थ का चित्रण है
जवाब देंहटाएंदिल को मरोड़ने वाली अत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी ! कलयुगी बेटे की रुग्ण मानसिकता और स्वार्थीपन के चलते एक भोली भाली माँ को उसकी तपस्या का यही फल मिलना था ! बहुत सुन्दर एवं प्रभावी अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंसमाज की हकीकत
जवाब देंहटाएंकई चलचित्र बने हैं इस आधार को लेकर
कलछुल से मरोड़ता है कुछ दिल में
सधा लेखन
मर्मस्पर्शी कहानी । समीर जी के ब्लॉग से तो कुछ हास्य व्यंग्य की उम्मीद थी ।
जवाब देंहटाएंमार्मिक कहानी..माँ ने अपना प्रेम लुटाया, अब उस प्रेम की कीमत तो नहीं माँगेगी, मांग ही नहीं सकती, उसका जीवन जितना गुजर गया एक लक्ष्य की पूर्ति के लिए था, पुत्र को समर्थ बनाया उसने, अपना कर्त्तव्य पूरा किया. पुत्र यदि उस प्रेम को लौटा नहीं पा रहा तो यही मानना होगा उसका सामर्थ्य ही नहीं है.
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक कहानी। परछी, बैठालकर जैसे ठेठ जबलपुरिया शब्दों ने लेखन को जीवंत बना दिया है। शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकटु सच्चाई ...
जवाब देंहटाएंइस कहानी से किस किसको जोड़ूँ समझ नहीं आ रहा। कहानी के किरदार आसपास ही बिखरे पड़े हैं। आदरणीय समीर सर अभिवादन स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंबहुत मर्मस्पर्शी कहानी , ये दुनियाँ में कितनी सरौता होंगी । और अब उसके जैसे बेटों की कमी नहीं है । अभिभावकों द्वारा किया गया त्याग , समर्पण और परिश्रम उनके फर्ज का हिस्सा होता है ।
जवाब देंहटाएंकितनी मार्मिक कथा!! ऐसे ही बेटों के चलते वृद्धाश्रम फलफूल रहे।
जवाब देंहटाएंहम सबके आसपास के सरौता बाई है ।
जवाब देंहटाएंसजीव चित्रण।
समीर जी के बारे में कुछ भी कहने के लिए मैं बौना हूँ... एक कड़वा सच यह भी है समाज का...!
जवाब देंहटाएंअत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी समीर लाल जी बहुत ही लोकप्रिय लेखक व हर ब्लाग पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले चर्चित टिप्पणीकार है
जवाब देंहटाएंसमाज की कड़वी महीकाल से रूबरू कराती है कहानी ... संवेदना लिए, मार्मिक और आज में स्वार्थी युग का सुंदर चित्रण ...
जवाब देंहटाएंसमीर जी को बधाई
यथार्थबोध की बेहद मार्मिक कहानी
जवाब देंहटाएंआज की कड़वी सच्चाई व्यक्त करती सशक्त कहानी। माँ बाप जो करते हैं वो उनका फर्ज होता हैं लेकिन बच्चों के लिए फर्ज नाम का कोई शब्द ही नहीं बना हैं शायद।
जवाब देंहटाएंक्या कहें!... कुछ औलादें सिर्फ़ 'औलाद' कहलाकर ही अपने फ़र्ज़ की इतिश्री समझती हैं! उनको वक़्त जवाब देता है!
जवाब देंहटाएंदिल को छूने वाली कहानी!
बहुत बधाई आपको समीर जी!
~सादर
अनिता ललित