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बुधवार, 17 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (चौबीसवां दिन) कहानी




"भावों को वाणी मिलने से अक्षरों की संधि एवं मन मंथन उपरांत शब्द सृजन से निकसा सुधारस मेरी कविता है।" लिखने का शौक तो बचपन से था, ब्लॉग ने मेरी भावनाओं को आप तक पहुचाने की राह आसान कर दी. काफी भावुक और संवेदनशील हूँ. कभी अपने भीतर तो कभी अपने आस-पास जो घटित होते देखती हूँ, तो मन कुछ कहता है, बस उसे ही एक रचना का रूप दे देती हूँ. आपके आशीर्वाद और सराहना की आस रखती हूँ..."संध्या शर्मा के मन की कलम से उतरी ये पंक्तियाँ अपने ब्लॉग को विशेष बनाती हैं।  प्रतियोगिता मंच पर आज इनकी बारी -



चिड़ियों की चहचहाहट होते ही नींद से उठकर छुई खदान जाना और शाम ढले वापस आकर छुई-मिट्टी के एकसार ढ़ेले तैयार करके सुखाने के लिए रखना. यही दिनचर्या है उसकी. गर्मियों में काम दुगुना बढ़ जाता है, इन दिनों में और अधिक परिश्रम करके छुई इकठ्ठा करती है बरसात के लिए. चाहे कोई भी मौसम हो झुलसा देने वाली गर्मी हो, ठिठुरने वाली ठण्ड या फिर फिसलन भरी बरसात. काम तो करना है पेट की आग बुझाने के लिए. बारिश के दिनों में चिकनी सफ़ेद छुई खदान में जाना कोई आसान काम नहीं, जान हथेली पर रहती है. उसपर कुछ ज्यादा पैसे पाने की चाह उसे खदान में अधिक गहराई तक जाने को मजबूर कर देती. दो बरस पहले इस मजबूरी ने उसके सिन्दूर के लाल रंग को भी सफ़ेद छुई - मिट्टी बदल में दिया. अकेली रह गई है तब से एक मासूम बेटी के साथ.

बस्ती के चूल्हे भी अब बहुत कम ही रह गए हैं मिट्टी के. नहीं तो पहले हर घर में मिट्टी के चूल्हे, सुबह - शाम के भोजन बनने के बाद रात को राख- लकड़ी को साफ़ करके छुई - मिट्टी से पुतकर सौंधी -सौंधी खुशबू से महकते थे. ना रहे वह पहले वाले गोबर से लिपे सुन्दर आँगन जिसके बीचोंबीच तुलसी के चबूतरे में दीपक जगमगाते थे, इसलिए आजकल जंगल से लकड़ियाँ भी चुन लाती है वह.

कई दिनों से मिट्टी और लकड़ियाँ बेचकर अपना पेट भरने वाली माँ-बेटी आधा - पेट भोजन कर सो जाती हैं, क्योंकि आधी लकड़ियों से घर के चारों ओर बाड़ बना रही थी वह बेटी की सुरक्षा के लिए. भूख उनके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रही थी, मासूम का मुरझाया चेहरा माँ की तरह अपना दुःख छुपा नहीं सका.

कई दिनों बाद दोनों के चेहरों पर पहले जैसी शांति नज़र आ रही है. बेटी की सुरक्षा के लिए चिंता करती भोली माँ जान गई है कि भूखे रहकर जो सुरक्षा घेरा वह बना रही है, उन भूखे भेड़ियों के लिए कोई मायने नहीं रखता, इसलिए उसने आज बेटी को दे दिया है अपना लकड़ी काटने वाला हंसिया, और साथ में वह गुर जिससे वह काट कर रख दे अपनी ओर गलत निगाहें उठाने वाले का सिर. निश्चिन्त होकर गई रामरती। सिर्फ आज ही उन्हें सोना होगा आधा पेट क्योंकि अधपेट रहकर खरीदेगी एक नया हंसिया. आज की भूख उन्हें देगी भूख से मुक्ति और भूखे भेड़ियों से सुरक्षा.

20 टिप्‍पणियां:

  1. हरेक को अपनी सुरक्षा का हथियार उठाना होगा! सार्थक संदेश देती रचना !
    हार्दिक बधाई संध्या शर्मा जी!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  2. जरूरी है सुरक्षा
    कई दिनों से मिट्टी और लकड़ियाँ बेचकर अपना पेट भरने वाली माँ-बेटी आधा - पेट भोजन कर सो जाती हैं, क्योंकि आधी लकड़ियों से घर के चारों ओर बाड़ बना रही थी वह बेटी की सुरक्षा के लिए. भूख उनके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रही थी, मासूम का मुरझाया चेहरा माँ की तरह अपना दुःख छुपा नहीं सका.
    बेहतरीन कहानी
    सादर...

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  3. वाह ! बहुत ही अच्छी और सही सन्देश कहती एक अच्छी कहानी | सिर्फ चूल्हे और रहन सहन बदलने से कुछ ना होगा | अपनी सुरक्षा को लेकर सभी की सोच भी बदलनी होगी |

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  4. प्रेरक और यथार्थपरक कहानी

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  5. हंसिया काम आए न आये पर उसके साथ उसके बढ़े हुए आत्मविश्वास उसे कभी हारने नहीं देंगे ..प्रासंगिक रचना

    ..

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  6. वाह ! बहुत ही सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी कहानी ! आत्म सम्मान और आत्म रक्षा के सुलगते सवालों का सार्थक सटीक एवं सही समाधान प्रस्तुत करती प्रेरक कहानी ! शुभकामनाएं संध्या जी !

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  7. बहुत ही सुंदर बात है कि बुलेटिन ऑफ बलाग ब्लॉग्स्पॉट.कॉम पर आपकी रचना को ब्लॉग रचना 2019 के रत्न से अवार्ड किया गया।
    बधाई हो

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  8. सही है। आत्मरक्षा के लिए बेटी को शस्त्र देती हुई माँ ने उसका आत्मविश्वास बढ़ाया और स्त्री के डरकर जिंदा रहने की परंपरा को खत्म किया। बढ़िया रचना।

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  9. प्रतियोगिता में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार दी और आभार ब्लॉग का भी जिसने हमारी भावनाओं को आप सब तक पहुंचाने की राह आसान कर दी .... रश्मि प्रभा दी व आप सभी का इस अमूल्य सराहना के लिए हार्दिक आभार...🙏

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  10. प्रेरक और आत्मविश्वास से लबरेज रचना

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  11. संध्या जी की इस लघुकथा ने दिल को झकझोर दिया। 20 - 30 वर्ष पूर्व अपने गुरीदेव के पी सक्सेना जी का लिखा एक नाटक सुना था आकाशवाणी लखनऊ से। समस्या वही जो इस कहानी में रेखांकित की गई है, किन्तु निदान वो नहीं जो संध्या जी ने सुझाया है। अगर ईमानदारी से अपनी बात कहूँ तो गुरुदेव की कहानी का अंत भावनात्मक अवश्य था, किन्तु संध्या जी ने व्यावहारिक हल सुझाया है। अगर गुरुदेव आज जीवित होते तो उनसे यह कहानी पढ़ने को कहता, कम से कम नन्ही शुबरातन आज ज़िन्दा तो होती।
    संध्या जी को मेरा सादर प्रणाम!

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    1. भैया हमने अपने परिचय में लिखा है अपने आसपास जो देखती महसूस करती हूँ शब्दों में ढाल देती हूँ। जबलपुर से हूँ, तो छुई खदान में जाने वाली महिलाओं की बहुत करीब से देखा-समझा है। आपकी सराहना सर-माथे पर। बहुत-बहुत खुश हूँ। आपको को हमारा भी सादर प्रणाम । आपसे बहुत छोटी हूँ सिर्फ स्नेह और आशीष की आकांक्षा है 🙏

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    2. भैया हमने अपने परिचय में लिखा है अपने आसपास जो देखती महसूस करती हूँ शब्दों में ढाल देती हूँ। जबलपुर से हूँ, तो छुई खदान में जाने वाली महिलाओं की बहुत करीब से देखा-समझा है। आपकी सराहना सर-माथे पर। बहुत-बहुत खुश हूँ। आपको को हमारा भी सादर प्रणाम । आपसे बहुत छोटी हूँ सिर्फ स्नेह और आशीष की आकांक्षा है 🙏

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  12. बहुत ही सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी कहानी !

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  13. लिखने का अन्दाज़ और भावनाओं की अभिव्यक्ति बहुत सुन्दर है साहित्य सृजन की शुभकामनाएँ.....येसे ही मुस्कराती रहे...संध्या जी !!

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  14. वाह!!संध्या जी ,बहुत खूब!!अपनी आत्मरक्षा के लिए उठाया गया कदम ,और एक माँ की सोच ....वाह !

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  15. जिंदगी इतने सारे दर्द भी नहीं समेटती।

    अच्छी कहानी।

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