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शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (उन्नीसवां दिन) कहानी




 खुश रह कर दूसरों को भी सदा खुश रखने का कुछ असंभव सा कार्य करते हुए खुशी पाने की भरसक कोशिश करता रहता हूं। आस-पास कोई गमगीन ना रहे यही कामना रहती है। श्री गगन शर्मा का यह परिचय उनकी कलम, उनकी सोच को गंभीर पहचान देती है।  
प्रतियोगिता के दरम्यान मुझे इस बात की ख़ुशी है कि सब अपने ब्लॉग को अर्थ दे रहे।  फिर क्यों रुके सब ? मेरा बस इतना कहना है कि चलते जाइये, जाने कब वह पुराना वृक्ष मिल जाए, जहाँ चिड़ियों का बसेरा है और एहसासों की मटकी से एक ग्लास एहसास गुटककर, तृप्त हो जाएँ। 
किसी भी घटना को देखने का अपना अपना नजरिया, अपनी अपनी मान्यता है, उसीका एक पहलू है - 


 जिस दिन अंगविच्छेद करवा शुर्पणखा लंका पहुंची थी,उसे देख क्या उसी समय विद्वान, पंडित, देश-प्रेमी तथा भविष्यवेता रावण को अपने राज्य, देश तथा सारे कुल का विनाश नजर आ गया था ! अपनी प्राण-प्रिय लंका का पराभव देखते हुए कैसे गुजारी होगी उसने वह रात, उद्विग्न और बेचैन हो कर !   

अभी भी सूर्योदय होने में कुछ विलंब था। पर क्षितिज की सुरमयी कालिमा धीरे-धीरे सागर में घुलने लगी थी।कदर्थित रावण पूरी रात अपने महल के उतंग कंगूरों से घिरी छत पर बेचैन घूमता रहा था। पेशानी पर बल पड़े हुए थे। मुकुट विहीन सर के बाल सागर की हवा की शह पा कर उच्श्रृंखलित हो बार-बार चेहरे पर बिखर-बिखर जा रहे थे। रात्रि जागरण से आँखें लाल हो रहीं थीं। पपोटे सूज गए थे। सदा गर्वोन्नत रहने वाले मस्तक को कंधे जैसे संभाल ही नहीं पा रहे थे। तना हुआ शरीर, भीचीं हुई  मुट्ठियाँ, बेतरतीब डग, जैसे विचलित मन की गवाही दे रहे हों। काल की क्रूर लेखनी कभी भी रावण के तन-बदन या मुखमंडल पर बढती उम्र का कोई चिन्ह अंकित नहीं कर पायी थी। वह सदा ही तेजस्वी-ओजस्वी, ऊर्जावान नजर आता था । पर आज की घटना ने जैसे उसे प्रौढ़ता के द्वार पर ला खड़ा कर दिया था। परेशान, चिंताग्रस्त रावण को अचानक आ पड़ी विपत्ति से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। एक ओर जगत में प्रतिष्ठा थी, इज्जत थी, नाम था, धाक थी । दूसरी ओर इस जीवन के साथ-साथ पूरी राक्षस जाति का विनाश था। 

कल ही की तो बात थी ! रोती-कलपती, उच्छिन्ना शुर्पणखा ने भरे दरबार में प्रवेश किया था ! सारा चेहरा खून से सना हुआ था ! हालांकि नाक-कान पर खरुंड जमने लगा था, पर खून का रिसना बंद नहीं हुआ था। जमते हुए रक्त ने जुल्फों को जटाओं में बदलकर रख दिया था। रेशमी वस्त्र धूल-मिटटी व रक्त से लथ-पथ हो चिथड़ों में बदल कर रह गए थे। रूप-रंग-लावण्य सब तिरोहित हो चुका था ! बचा था तो सिर्फ वीभत्स, डरावना, लहूलुहान चेहरा ! राजकुमारी को ऐसी हालत में देख सभा में सन्नाटा छा गया था ! सारे सभासद इस अप्रत्याशित दृश्य को देख, सकते में आ, खड़े हो गए थे ! सिंहासन से तुरंत उठ विशाल बाहू रावण ने दौड़ कर अपनी प्यारी बहन को सशक्त बाजुओं का सहारा दे अपने कक्ष में पहुंचा तथा रानी मंदोदरी की सहायता से उसे प्राथमिक चिकित्सा देते हुए सुषेण वैद्य को अविलंब हाजिर होने का आदेश दिया था। घंटों की मेहनत और उचित सुश्रुषा के उपरान्त कुछ व्यवस्थित होने के बाद शुर्पणखा ने जो बताया वह चिंता करने के लिए पर्याप्त था। 

 शुर्पणखाअपने भाईयों की चहेती, प्राणप्रिय, इकलौती बहन थी। बचपन से ही सारे भाई उस पर जान छिडकते आए थे। उसकी राह मे पलक-पांवडे बिछाये रहते थे। इसी से समय के साथ-साथ वह उद्दंड व उच्श्रृंखल होती चली गयी थी। विभीषण तो फिर भी यदा-कदा उसे मर्यादा का पाठ पढ़ा देते थे, पर रावण और कुम्भकर्ण तो सदा उसे बालिका मान उसकी जायज-नाजायज इच्छाएं पूरी करने को तत्पर रहते थे। यही कारण था कि पति के घर की अपेक्षा उसका ज्यादा समय अपने पीहर में ही व्यतीत होता था। यहां परम प्रतापी भाईयों के स्नेह का संबल पा शुर्पणखा सारी लोक-लाज, मर्यादा को भूल बरसाती नदी की तरह सारे तटबंधों को तोड दूनिया भर मे तहस-नहस मचाती घूमती रहती थी। ऋषि-मुनियों को तंग करना, उनके काम में विघ्न डालना, उनके द्वारा आयोजित कर्म-कांडों को दूषित करना उसके प्रिय शगल थे और इसमे उसका भरपूर साथ देते थे खर और दूषण।

इसी तरह अपने मद में मदहोश वह मूढ़मती उस दिन अपने सामने राम और लक्ष्मण को पा उनसे प्रणय निवेदन कर बैठी और उसी का फल था यह अंगविच्छेद ! क्रोध से भरी शुर्पणखा ने रावण को हर तरह से उकसाया था अपने अपमान का बदला लेने के लिए ! यहां तक कि पिता समान बडे भाई पर व्यंगबाण छोडने से भी नहीं हिचकिचाई थी। यही कारण था रावण की बेचैनी का ! रतजगे का और शायद लंका के पराभव का। रावण धीर, गंभीर, बलशाली सम्राट के साथ-साथ विद्वान पंडित तथा भविष्यवेता भी था। उसे साफ नजर आ रहा था, अपने राज्य, देश तथा सारे कुल का विनाश।  इसीलिये वह उद्विग्न था। राम के अयोध्या छोड़ने से लेकर उनके लंका की तरफ़ बढ़ने के सारे समाचार उसको मिलते रहते थे पर उसने अपनी प्रजा तथा देश की भलाई के लिए कभी भी आगे बढ़ कर बैर ठानने की कोशिश नहीं की थी। युद्ध का अंजाम वह जानता था। पर अब तो
घटनाएँ अपने चरमोत्कर्ष पर थीं। अब यदि वह अपनी बहन के अपमान का बदला नहीं लेता है तो संसार क्या कहेगा !  दिग्विजयी रावण जिससे देवता भी कांपते हैं, जिसकी एक हुंकार से दसों दिशाएँ कम्पायमान हो जाती हैं वह कैसे चुप बैठा रह सकता है ! इतिहास क्या कहेगा ! कि देवताओं को भी त्रासित करने वाला लंकेश्वर अपनी ही बहन के अपमान पर, वह भी तुच्छ मानवों  द्वारा, चुप बैठा रहा ? क्या कहेगी राक्षस जाति ! जो अपने प्रति किसी की टेढी भृकुटि भी बर्दास्त नहीं कर सकती, वह कैसे इस अपमान को अपने गले के नीचे उतारेगी ? उस पर वह शुर्पणखा, जिसका भतीजा इन्द्र को पराजित करने वाला हो ! कुम्भकर्ण जैसा सैकड़ों हाथीयों के बराबर बलशाली भाई हो ! कैसे अपमानित हो शांत रह जायेगी ?

रावण का आत्ममंथन जारी था। वह जानता था कि देवता, मनुष्य, सुर, नाग, गंधर्व, विहंगों मे कोई भी ऐसा नहीं है जो मेरे समान बलशाली खर-दूषण से पार भी पा सके। उन्हें साक्षात प्रभू के सिवाय कोई नहीं मार सकता ! ये दोनों ऋषीकुमार साधारण मानव नहीं हो सकते। अब यदि देवताओं को भय मुक्त करने वाले नारायण ही मेरे सामने हैं तब तो हर हाल में, चाहे मेरी जीत हो या हार, मेरा कल्याण ही है। फिर इस तामस शरीर को छोडने का वक्त भी तो आ ही गया है। यदि साक्षात प्रभू ही मेरे द्वार आये हैं, तो उनके तीक्ष्ण बाणों के आघात से प्राण त्याग मैं भव सागर तर जाऊंगा। प्रभू के प्रण को पूरा करने के लिए मैं उनसे हठपूर्वक शत्रुता मोल लूंगा ! पर किस तरह ! जिससे राक्षस जाति की मर्यादा भी रह जाये और मेरा उद्धार भी हो जाए ?

तभी गगन की सारी कालिमा जैसे सागर में विलीन हो गयी ! तम का मायाजाल सिमट गया ! भोर हो चुकी थी ! कुछ ही पलों में आकाश में अपने पूरे तेज के साथ भगवान भास्कर के उदय होते ही आर्यावर्त के दक्षिण में स्थित सुवर्णमयी लंका अपने पूरे वैभव और सौंदर्य के साथ जगमगा उठी। जैसे दो सुवर्ण-पिंड एक साथ चमक उठे हों ! एक आकाश में तथा दूसरा धरा पर। परंतु भगवान भास्कर की चमक में जहां  एक ताजगी थी, जीवंतता थी, उमंग थी ! वहीं लंका अपनी बाहरी चमक के बावजूद मानो उदास थी, अपने स्वामी की परेशानी को लेकर। 

तभी रावण ने ठंडी सांस ली, जैसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच कोई ठोस निर्णय ले लिया हो। उसने छत से चारों ओर दृष्टि घुमा अपनी प्रिय लंका को निहारा और आगे की रणनीति पर विचार करता हुआ मारीच से मिलने निकल पड़ा।

21 टिप्‍पणियां:

  1. मेरा रुकना नहीं हुआ था ब्लॉग तो मेरे जिंदगी का ऑक्सीजन

    रावण पर लेखन पढ़ना अच्छा लगा
    सधी लेखनी के लिए बधाई

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    1. विभा जी, "उडान" जारी रहनी चाहिए इससे मिलने वाली ऊर्जा औरौं को भी हौसला देती है।

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  2. अपनी लेखनी अपनी सोच ...बहुत बढ़िया

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  3. रावण के सन्दर्भ में जब भी पढ़ा या सुना तो यही कि महाज्ञानी और महाबलशाली होने के बावजूद भी उसका अहंकार ही उसके विनाश का कारण बना । उसके अन्तर्द्वन्द्व पर आपका तार्किक लेख अच्छा लगा । सादर आभार इस चिन्तन प्रधान लेख हेतु ।

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    1. मीना जी, प्रभु के प्रति पूरी आस्था होने के बावजूद ऐसा लगता रहा कि कुछ चरित्रों के प्रति न्याय नही हो पाया, उनमें सबसे ऊपर रावण है ¡ बहुत-बहुत आभार

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  4. गगान भैय्या को नमन
    शानदार लेखन
    अपार खोजी दृष्टि
    सादर

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  5. यशोदा जी, आपने तो संकोच में डाल दिया :-)
    हार्दिक आभार ¡ कुछ अलग सा पर सदा स्वागत है

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  6. पहले कहां परिवार में कोई प्यार, ममत्व, कृतज्ञता, आभार जता पाता था, खुल कर ! सदा एक संकोच पसरा रहता था बड़ों और छोटों के बीच ! औपचारिकता जैसा महसूस होता था ! आज की पीढ़ी खुशनसीब है और साथ ही हम भी जो अब समय के साथ वैसी कोई वर्जना नहीं बची है, अंतर्द्वंद्व की स्थितियां ख़त्म हो चुकी हैं ! इसीलिए आज खुल कर ब्लॉग बुलेटिन परिवार, जिसका मैं भी सदस्य हूँ, को अनेकानेक धन्यवाद, आभार, शुभकामनाएं ! सफर ऐसे ही जारी रहे सदा, हमेशा, सर्वदा

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  7. आपके आलेख के माध्यम से रावण के अहंकारी एवम क्रूर व्यक्तित्व से इतर उसके विचारशील व मानवीय रूप के दर्शन करना बड़ा ही सुखद लगा ! मन के आक्रोश एवं क्षोभ पर जैसे शीतल जल के छींटे पड़ गए हों ! हार्दिक शुभकामनाएं !

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  8. गगन शर्मा जी के साथ भी बड़ा पुराना नाता है। इनकी रचनाओं में कुछ अलग सा फ्लेवर होता है। जैसे इस कहानी में रावण के दृष्टिकोण से , रावण की मानसिक स्थिति को ध्यान में रखकर एक यथार्थ चित्रण। शब्दों का चयन और भावनाओं का चित्रण बहुत ही सटीक और सधा हुआ है।

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  9. आदरणीय गगन शर्मा जी के ब्लॉग पर कई रचनाएँ पहले भी पढ़ी हैं। ब्लॉग के नाम की ही तरह आप 'कुछ अलग सा' लिखते हैं।

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  10. रावण के कारण उस समय समाज में आतंक का वातावरण फ़ैल गया था..वह इतना बलशाली था कि राम के सिवा कोई उससे टक्कर नहीं ले सकता था, किंतु वह भी तो इसी समाज की उपज था, सुंदर गठी हुई भाषा और गहन चिन्तन से ओतप्रोत लेखन..

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  11. साधना जी, बहुत-बहुत धन्यवाद, ऐसे संबल सदा सहारा देते हैं, बहुत जरुरत रहती है इनकी !

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  12. सलिल जी, भले ही मिलना ना हुआ हो पर ऐसा नहीं लगता जैसे हम अपरिचित हों। अभी तो फिलहाल इंतजार ही है उस पल का ! पर ''कुछ अलग सा'' पर सदा स्वागत है

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  13. मीना जी, हौसला बढ़ाने का हार्दिक आभार व बहुत-बहुत धन्यवाद,

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  14. अनिता जी, रचना अच्छी लगी यही उसकी सार्थकता है। बहुत-बहुत आभार व धन्यवाद ! आशा है आगे भी संबल मिलता रहेगा।

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  15. अतिसुन्दर! बहुत अच्छा लगा आपको पढ़कर!
    इस सधे हुए लेखन के लिए आपको बहुत बधाई !

    ~सादर
    अनिता ललित

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  16. अनिता जी, हार्दिक धन्यवाद ! आपका सदा स्वागत है

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