बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ - पिछली सरकार (हालांकि वर्तमान भी वही है) में एक योजना के अंतर्गत यह स्लोगन काफी प्रचारित रहा. स्त्रियों के कल्याण की अनेकानेक योजनाओं द्वारा प्रशासन ने स्त्रियों को यथोचित सम्मान और बराबरी का आधार मिलने की ओर भरसक प्रयत्न किये परंतु बिना सामाजिक सुरक्षा के इनका लाभ उन तक कैसे पहुँचेगा. समाज यदि स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर सजग और सतर्क नहीं है तब प्रशासन का दायित्व इस ओर बढ़ जाता है. कठोर कानून और त्वरित न्याय प्रक्रिया के सिवा इसका अन्य कोई उपाय नहीं है क्योंकि दिन ब दिन मनुष्यता पर पाशविकता हावी होती जा रही है . सोशल नेटवर्किंग में स्त्रियों/बालिकाओं से संबंधित घटनाओं पर सलेक्टिव चुप्पियां और सलेक्टिव मुखरता भयभीत करने वाली है. एक वृत या चेन सी बनती जा रही है अमानुषिक भयावह घटनाओं और उन पर प्रदर्शित प्रतिक्रियाओं की. निर्भया कांड के अपराधियों को भी भरसक प्रयास के बावजूद कठोर सजा न दी जा सकी, हालांकि इस घटना को सीढ़ी बनाकर लोग सत्ता तक अवश्य जा पहुँचे . उसके बाद इन घटनाओं की पुनरावृत्ति कहीं सत्ता पाने या गिराने के लिए एक औजार की तरह न प्रयुक्त होने लगे, आमजन की यही चिंता है. यदि बार- बार होने वाली नृशंस घटनाओं पर रोक न लगी और इस कारण स्त्रियों और बच्चियों में भय और निराशा का प्रसार हो रहा तो हम समाज और प्रशासन दोनों ही रूप में असफल माने जायेंगे इस परिप्रेक्ष्य में किसी भी सरकारी कल्याणकारी योजना का कोई अर्थ या उपयोगिता न होगी.
अपराधियों में भय और आमजन के जीवन में सुख, शांति और सुरक्षा के लिए संगठित समाज और कठोर कानून वाली त्वरित न्याय प्रक्रिया का होना आवश्यक है और समाज के एक अंग के रूप में इनके लिए प्रयास करना हमारी जिम्मेदारी भी.
शुभ हो!
अब कुछ लिंक्स...
धूप में निकलें तब पेड़ की छाया जरूरी है....
https://hardeeprana.blogspot.com/2019/06/blog-post.html
बेटियां गुड़िया सी हो या गुड़िया बिटिया सी... कविता में तंज और दुख दोनों ही अपने मन की स्थिति अनुसार प्रकट होते हैं....
https://onkarkedia.blogspot.com/2019/06/blog-post.html?m=0
कुली लाइंस से एक अंश : यह जहाज जगन्नाथ के मंदिर की तरह है. असुविधा ब्लॉग पर प्रवीण झा की पुस्तक का अंश पढ़ सकते हैं. रूचि अनुसार किताब को प्राप्त करने का पता भी मौजूद है...
https://asuvidha.blogspot.com/2019/06/blog-post_4.html?m=1
जरा मुस्कुराने से जाने कितनी बातें बदल जाती हैं...
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पर्यावरण अधिकारी ईमानदार हो सकें तभी संतुलन बना रहेगा इस दुनिया का...
https://www.hindi-abhabharat.com.xn----ztd4gfj7aay8etcbep4p.com/2019/06/blog-post.html?m=1
मुझे लगता है कुछ भी निर्धारित नहीं हो सकता, क्योंकि ऊपरी परिधान बदल डालने से न किसी की सोच परिष्कृत होती है, न अच्छे पैसों से किसी के भीतर दानवीरता जागती है, न किसी के दुख से किसी को मतलब है !
जवाब देंहटाएंएक सरकार स्लोगन दे सकती है, किसी की मानसिकता नहीं बदल सकती ।
हम ही कहाँ कुछ कर पाते हैं !
सोच को बदलना एक धीमी और लंबी प्रक्रिया है। मुझे लगता है कि सोच बदल तो रही है किंतु आदिम युग से चले आ रहे पाशविक गुण मनुष्य के अंदर से पूर्णतः नहीं मिट पाएँगे। आध्यात्मिक एवं नैतिक शिक्षा को बाल्यकाल से ही अनिवार्य किया जाने पर आंशिक सुधार हो पाए शायद।
जवाब देंहटाएंआदरणीया वाणीजी की शुक्रगुजार हूँ जो उन्होंने मेरी रचना को शामिल किया।
सुंदर लिन्क्स. मेरी कविता शामिल करने के लिए शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंबलात्कारियों पर लगाम कसने के लिए कानून का कड़ाई से पालन करना होगा एवं हमारे बेटे और बेटियों को नैतिक शिक्षा देनी होगी। सच में निंदनीय है और चिंताजनक भी समाज आखिर किस दिशा में अग्रसर है। सभी को गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है।
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