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रविवार, 19 मई 2019

चयन हमारा




मिली तो थी हमें स्वतंत्रता,
लेकिन हमें
किसी न किसी तरह 
पिंजड़े में रहना भाया !
उसकी तीलियों पर चोंच मारते हुए
हम खुद को पराक्रमी मानने लगे,
और वहम पाल लिया
कि हमारे अंदर स्वतंत्रता की चाह है
... !
लेकिन,
पिजड़े से बाहर निकलकर
कोई उड़ने की चाह नहीं होती,
हम कोई नया पिंजड़ा तलाशने लगते हैं,
आकाशीय विस्तार 
हमें भूलभुलैया सा प्रतीत होता है,
और हम रोने लगते हैं 
क़िस्मत का रोना
कभी नहीं समझना चाहते
कि जाने-अनजाने 
पिंजड़े का चयन हमारा ही है
अन्यथा,
धरती और आकाश 
हमेशा हमारे सहयात्री होते हैं ...

 
तू कभी ख़ुद के बराबर इधर नहीं आता
मैं भी आता हूं मगर टूटकर नहीं आता
तवील रात, बड़े दिन, पहाड़ सी शामें
अलावा चैन के कुछ मुख़्तसर नहीं आता
तू सोचता है कभी भूल जाएगा मुझको
मैं जानता हूं तुझे यह हुनर नहीं आता
घर से रूठे हुए हमलोग वहां तक आए
जहां से लौट के कोई भी घर नहीं आता
अपने कमरे में ये मासूमियत कहां होती
रोज़ खिड़की पे परिन्दा अगर नहीं आता
यहां से आप जहां जाएं, जिधर हम जाएं
किसी भी राह में कोई शजर नहीं आता

दौड़ती,भागती,
हाथ से छूटती उम्र के व्यस्ततम पलों में,
अचानक आता है तुम्हारा ज़िक्र...!
और मैं हो जाती हूँ 20 साल की युवती।
मन में उठती है इच्छा,
"काश ! तुम फिर से आ जाते ज़िन्दगी में,
अपनी सारी दीवानगी के साथ "
और इस तपते कमरे के चारों ओर
लग जाती है यकबयक खस की टाट।
और उससे हो कर आने लगते हैं,
सुगन्धित ठंढे छीटे।
तमाम सफेद षडयन्त्रों के बीच,
तुम्हारी याद का काला साया...
आह !
कितनी स्वच्छ है ये मलिनता।

1 टिप्पणी:

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