मैं एक नारी हूँ,
जन्मों से अपनी बेड़ियाँ तोड़ती आई हूँ
और सिद्ध किया है
कि आरम्भ मुझसे
समापन मुझमें ।
माँ बनकर
जन्म मैं देती हूँ,
धरती बनकर
अपनी आगोश में लेती हूँ
अपने दायरे में बहते जल को
कई नदियों का नाम देती हूँ,
सागर से मिलकर
उसे सार्थक करती हूँ ।
समाज ने मुझे एक दिन दिया
जबकि मैं युगों में हूँ
सीता बन
राम के पुरुषार्थ को
अर्थवान बनाया,
लव कुश को सौंपने का साहस दिखाया ।
द्रौपदी बन
आपसी बैर को
बेवजह की खामोशी को,
कुरुक्षेत्र का सत्य दिया,
जहाँ कृष्ण ने गीता सुनाया ।
मैं ही मृत्यु बनी,
मैं ही जीत बनी,
सूर्य का ग्रहण बनी,
वाणों की शय्या बनी ...
यशोधरा बन
सिद्धार्थ के बुद्ध मार्ग में मौन हुई
राहुल को सौंपकर
कर्तव्य की इति बनी ।
यह एक दिन
मुझे दुहराता है,
मैं स्वयं का आकलन
स्वयं करती हूँ,
हाथों में लिए
अपना ही जल,
संकल्प उठाती हूँ,
और छींटे बिखेर देती हूँ उनपर
जो कन्या पूजन का ढोंग करते हैं,
और वृद्धाओं के आशीष को,
मूल्यहीन बनाते हैं !
मैं शिव के तांडव की धमक बन,
डमरू की आवाज़ बन
करती हूँ उनका हिसाब,
जो धरती के सौंदर्य के संग
करते हैं खिलवाड़ !
मेरे शरीर,
मेरी आत्मा,
मेरे अस्तित्व को रौंदकर,
जो दर्प से हँसते हैं,
मैं उनका विनाश बनती हूँ,
ना उन्हें शीघ्रता से मौत देती हूँ,
मोक्ष तो कदापि नहीं ।
गंगा में जितनी बार वे डुबकी लगाते हैं,
मैं गंगा,
उतनी बार उन्हें श्राप देती हूँ ।
मैं नारी,
कोमल हूँ,
ममतामई हूँ,
कमज़ोर नहीं ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति शानदार रचनाएं
जवाब देंहटाएंअति उत्तम
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंनारी की वास्तविक पहचान को शब्द देती सुंदर भूमिका और पठनीय सूत्रों से सजा बुलेटिन ! बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंअति उत्तम कविता
जवाब देंहटाएंnewsbuzzz
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