समय समापन की ओर है और अवलोकन यात्रा के मध्य में है, तो लेती हूँ कुछ ब्लॉग्स एकसाथ। निःसंदेह, इसके बाद भी मैं अतृप्त रह जाऊँगी, क्योंकि रह जाएंगे कुछ ब्लॉग्स, अनपढ़े रह जाएंगे कुछ दिग्गज ब्लॉगर। तो क्षमायाचना के साथ अपनी क्षमता के अनुसार लाती हूँ कुछ रचनाएं, जिनसे मिलकर आपकी यात्रा भी जारी रहे -
ऋता शेखर
सास और बहू का घर अलग अलग शहरों में था।
"मम्मी जी, आपने मलने के लिए सारे बर्तन बाई को दे दिए। बर्तनों पर खरोंच आएगी तो भद्दे दिखेंगे।" बर्तनों का अंबार देखकर सास के घर आई बहु आश्चर्य से बोल पड़ी।
"नहीं बहु, तेज रगड़ से ये और भी चमक उठेंगे, धातु के हैं न।"
"मम्मी जी, हमारे यहाँ तो आधे से अधिक बर्तन मुझे ही साफ करने होते हैं। काँच के शौफ़ियाना बर्तन, नॉन स्टिक तवा कड़ाही, ये सब बाई को नहीं दे सकती। खरोंच लगा देगी या काँच का एक भी गिलास या कटोरी टूट गयी तो डिनर सेट खराब हो जाएगा।"
"तभी तो आजकल के रिश्ते भी नर्म और नाजुक हो गए हैं। क्रोध या अहम की हल्की खरोंच भी उन्हें बदरंग कर सकती है।"
"क्यों, पहले रिश्ते बदरंग नहीं होते थे क्या मम्मी जी।"
"होते थे, पर उन रिश्तों को संभालने के लिए प्यार के साथ कठोरता से भी काम लिया जाता था और उनमें निखार बढ़ता जाता था। धातु के बर्तनों को अपने गिरने या रगड़े जाने की परवाह नहीं होती । "
संध्या आर्य
हर कठिन जगह पर जाना और देखना कि वहाँ लोग चींटीं की तरह कैसे रहते है और धरती को सीने से लगाकर आकाश की गहराई को मापने की इच्छा ,बस इतनी सी ख्वाहिश है ......."
दहलीज से बाहर उसने
कभी अपना पांव न रखा था
यही वजह थी कि खिडकी और रौशनदान वाली कवितायें
उसके रुह को छू लेती थी,
लकीरों मे कैद गौरैया
खुले आसमान का सपना
कभी देख नही पाती थी
उसे तो रौशनदान से
सुबह का सूरज देखने भर की आदत थी,
कविता के लिये
ज्यादा शब्दों की जरुरत नही होती
और कहानियों मे
वह उलझना नही चाहती
क्योंकि उसे अंधेरें का रहस्य पता है !
बात उन दिनों की है जब हम हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे... हर रोज़ सुबह फ़ज्र की नमाज़ के बाद रियाज़ शुरू होता था... सबसे पहले संगीत की देवी मां सरस्वती की वन्दना करनी होती थी... फिर... क़रीब दो घंटे तक सुरों की साधना... इस दौरान दिल को जो सुकून मिलता था... उसे शब्दों में बयां करना बहुत मुश्किल है...
इसके बाद कॉलेज जाना और कॉलेज से ऑफ़िस... ऑफ़िस के बाद फिर गुरु जी के पास जाना... संध्या, सरस्वती की वन्दना के साथ शुरू होती और फिर वही सुरों की साधना का सिलसिला जारी रहता... हमारे गुरु जी, संगीत के प्रति बहुत ही समर्पित थे... वो जितने संगीत के प्रति समर्पित थे उतना ही अपने शिष्यों के प्रति भी स्नेह रखते थे... उनकी पत्नी भी बहुत अच्छे स्वभाव की गृहिणी थीं... गुरु जी के बेटे और बेटी हम सब के साथ ही शिक्षा ग्रहण करते थे... कुल मिलाकर बहुत ही पारिवारिक माहौल था...
हमारा बी.ए फ़ाइनल का संगीत का इम्तिहान था... एक राग के वक़्त हम कुछ भूल गए... हमारे नोट्स की कॉपी हमारे ही कॉलेज के एक सहपाठी के पास थी, जो उसने अभी तक लौटाई नहीं थी... अगली सुबह इम्तिहान था... हम बहुत परेशान थे कि क्या करें... इसी कशमकश में हमने गुरु जी के घर जाने का फ़ैसला किया... शाम को क़रीब सात बजे हम गुरु जी के घर गए...
वहां का मंज़र देखकर पैरों तले की ज़मीन निकल गई... घर के बाहर सड़क पर वहां शामियाना लगा था... दरी पर बैठी बहुत-सी औरतें रो रही थीं... हम अन्दर गए, आंटी (गुरु जी की पत्नी को हम आंटी कहते हैं) ने बताया कि गुरु जी के बड़े भाई की सड़क हादसे में मौत हो गई है... और वो दाह संस्कार के लिए शमशान गए हैं... हम उन्हें सांत्वना देकर वापस आ गए...
रात के क़रीब डेढ़ बजे गुरु जी हमारे घर आए... मोटर साइकल उनका बेटा चला रहा था और गुरु जी पीछे तबले थामे बैठे थे...
अम्मी ने हमें नींद से जगाया... हम कभी भी रात को जागकर पढ़ाई नहीं करते थे, बल्कि सुबह जल्दी उठकर पढ़ना ही हमें पसंद था...हम बैठक में आए...
गुरु जी ने कहा - तुम्हारी आंटी ने बताया था की तुम्हें कुछ पूछना था... कल तुम्हारा इम्तिहान भी है... मैंने सोचा- हो सकता है, तुम्हें कोई ताल भी पूछनी हो इसलिए तबले भी ले आया... गुरु जी ने हमें क़रीब एक घंटे तक शिक्षा दी...
गुरु जी अपने भाई के दाह संस्कार के बाद सीधे हमारे पास ही आ गए थे...ऐसे गुरु पर भला किसको नाज़ नहीं होगा...जिन्होंने ऐसे नाज़ुक वक़्त में भी अपनी शिष्या के प्रति अपने दायित्व को निभाया हो...
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काको लागूं पायं।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय।।
हमारे गुरु जी... गुरु-शिष्य परंपरा की जीवंत मिसाल हैं...
गुरु जी को हमारा शत-शत नमन...और गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं...
आकाश के असीम पटल पर,
रूपसी प्रिया का करता चित्रांकन,
असंतुष्ट - सा, अस्थिर मति,
वह चंचल चित्रकार !!!
क्षण - क्षण करता नव प्रयोग,
किंतु छवि लगती अधूरी !
कभी लाल, कभी पीला, नीला....
अब.... गुलाबी, सुनहरा, सिंदूरी !!!
रंगों का मिश्रण, अद्भुत संयोजन,
अधीर हो करता चित्रांकन,
असंतुष्ट - सा, अस्थिर मति,
वह चंचल चित्रकार !!!
नारंगी, किरमिजी, जामुनी,
सलेटी, रुपहला, बादामी, बैंगनी,
घोल घोल रंगों को छिड़कता,
पुनः अपनी ही कृति को निरखता !
कूची डुबा - डुबा हर रंग में,
आड़ा,तिरछा,वक्र,करता रेखांकन !
असंतुष्ट - सा, अस्थिर मति,
वह चंचल चित्रकार !!!
जब ना बन पाई मनभाती छवि,
होकर उदास, वह चितेरा रवि
जलसमाधि को हुआ उद्युत,
तब प्रकटी संध्या, रूपसी अद्भुत !!!
लो अब पूर्ण हुआ चित्रांकन,
प्रिया को बाँधे प्रगाढ़ आलिंगन !
स्मितमुख विदा हुआ धीमे - धीमे,
वह बावरा, चंचल चित्रकार !!!
एक महीना कम है महसूस होता है मोतियों के ढेर को एक एक कर दिखाने के लिये। लाजवाब अवलोकन।
जवाब देंहटाएंआदरणीय रश्मि प्रभा जी की सूची में आज अपने ब्लॉग को देखकर आश्चर्यमिश्रित हर्ष हुआ। बहुत बहुत धन्यवाद आपका। ब्लॉग बुलेटिन के सभी चर्चाकारों को मेरी ओर से नववर्ष की शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंइस श्रृंखला में शामिल सभी ब्लॉग्स पर पहुँचना और उन्हें पढ़ना सुखद अनुभव रहा। रश्मि दी हर रोज नए नए मोती खोज लाती हैं। बहुत सुंदर सार्थक प्रयास है आपका। हम नए ब्लॉगर्स को इन सभी लोगों के ब्लॉग्स जरूर पढ़ने चाहिए ताकि पता चले कि ब्लॉग जगत में कितनी विविधता और प्रतिभा भरी पड़ी है। पढ़ने के लिए समय कम पड़ जाता है इतना सारा है पढ़ने को!!!!!
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