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शनिवार, 3 नवंबर 2018

सच को सफाई की जरूरत नहीं




शतप्रतिशत सच बोलने से क्या ! .... लोग उसे झूठ के छिलके सा उतार देते हैं 
चुप रहकर सोचता है आदमी - सच को सफाई की ज़रूरत नहीं 
छिलके उतारनेवाले कहते हैं - देखा ... बोलती बंद हो गई 
:) आप साबित नहीं कर सकते और दूसरा कारण,निष्कर्ष देता है .... मानने का तो सवाल ही नहीं होता !रश्मि प्रभा

 
॥ महानगर ॥
धूल और कोहरे की मैली चादर छाई है आसमान पर
लोग कहते हैं अब अरेबिया से तेल नहीं,
रेत उड़ कर आता है दिल्ली में।
आधार-कार्ड गले में लटकाए ग़रीबों के घरों में,
जगह नहीं है बैठने की, पर रेल-पेल है बच्चों की।
मनुष्यों की तरह ही वंश-बेल फैल रही है वाहनों की
अमीरों के दरवाज़ों पर खड़ी हैं
हीरों सी कीमती कई-कई कारें
जिनके लिए न सड़के हैं और न गराज़।
महानगर के थके हारे आदमी को
इस बार भी अनमनी-सी प्रतीक्षा है दीपावली की।
संबंधों को बचाए रखने की एक छोटी सी कोशिश
यहाँ सभी करते हैं त्यौहारों पर।
थैलों में मिठाईयों और मेवों के डिब्बे भरें
लोग तिल-तिल मर कर, उन्हें देने जा रहे हैं,
मीलों दूर गुड़गाँव से नोयड़ा तक,
उपहार से ज़्यादा कीमत का फूँकते हुए तेल।
आसमान पर मलते हुए धुँए की कालिख
सड़क पर चींखते हुए वाहन,
दौड़ नहीं रहे, घिसट रहे हैं।
मँहगाई के बोझ से दबे,
द्वेष और ईर्ष्या के प्रजातंत्र में,
हर आदमी अपनी तरह से व्यस्त है
लक्ष्मी के स्वागत की तैयारी में;
जो अपने उल्लू पर बैठ कर छिप गई है
कहीं संसद के बरामदों
या साउथ ब्लॉक के गलियारों में।
लोग हमारी तरह
सैंकड़ों मील दूर बैठ कर
प्यार क्यों नहीं करते;
जिसे जिया जा सकता है
मन की हरी-भरी लताओं में।
शोर और भीड़ से परे
एकांत में सुना जा सकता है
प्रिय के मधु-रंजित शब्दों को।
सुनेत्रा,
प्रेम, महकते फूल पर चमकता रहता है,
ओस की बूँद-सा,
तितली के पंखों पर चटख रंगों सा
और आसमान में भीगे इंद्र-धनुष-सा।
शुक्र है,
इन विषम स्थितियों में भी
प्रेम किसी प्रदूषण
या राजनीति का शिकार नहीं होता!

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। सुन्दर सूत्र।

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  2. बहुत ही अच्छी प्रस्तुति, आभार आपका

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  3. बहुत सुन्दर सूत्रों से सुसज्जित आज का बुलेटिन ! मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार रश्मिप्रभा जी ! ज्योति पर्व की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं !

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  4. बहुत ही अच्छी प्रस्तुति, आभार आपका

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