बड़े शहर,
ऊँचे घरों के भीतर
अब नहीं कुनमुनाती सुबह की किरणें,
मोटे पर्दों से उन्हें भीतर आने की इजाज़त नहीं ।
सुबह की किरणें आज भी
छोटे घरों की खुली खिड़कियों से छनकर,
घर के कोने कोने में,
लक्ष्मी की तरह अपने पदचिन्ह बनाती है,
और बच्चों के सर पर
गुनगुनी हथेलियाँ रख कहती है,
फिर होगी रात,
फिर सोना और देखना सपने,
अभी तो उठो
और जीवन का लक्ष्य साधो ।
तुम्हारे साथ चलते हुए
चुनूँगी मैं वो सीधे रास्ते
जिसपर बेशक़ हों हजार-हजार गड्ढे
चाहे हो ऊंची-नीची , ऊबड़-खाबड़
और पथरीली सड़क ..
चुनूँगी मैं वो सीधे रास्ते
जिसपर बेशक़ हों हजार-हजार गड्ढे
चाहे हो ऊंची-नीची , ऊबड़-खाबड़
और पथरीली सड़क ..
मैं चल लूँगी , तुम्हारा हाथ थामकर
बिना डरे , बिना रुके
उन सभी दुर्गम रास्तों पर जो सीधे हों
बिना डरे , बिना रुके
उन सभी दुर्गम रास्तों पर जो सीधे हों
कि !
मैं डरती हूँ उन मोड़ों से
जहाँ से अक्सर मुड़ जाया करती हैं
दो ज़िंदगियाँ ....अलग-अलग रास्तों पर !!!
मैं डरती हूँ उन मोड़ों से
जहाँ से अक्सर मुड़ जाया करती हैं
दो ज़िंदगियाँ ....अलग-अलग रास्तों पर !!!
ए - जज्बाएं - दिल गर मैं चाहूं
हर चीज मुकाबिल आ जाए
दो ग़ाम चलूं मंजिल की तरफ
और सामने मंजिल आ जाए
इस जज्बा -ए - दिल के बारे में
एक मशविरा तुमको देती हूं
ए शमां भड़ककर गुल होना
जब रंग पे महफ़िल आ जाए
हर चीज मुकाबिल आ जाए
दो ग़ाम चलूं मंजिल की तरफ
और सामने मंजिल आ जाए
इस जज्बा -ए - दिल के बारे में
एक मशविरा तुमको देती हूं
ए शमां भड़ककर गुल होना
जब रंग पे महफ़िल आ जाए
नहीं जानते शमां को भड़ककर गुल होने में क्या मजा आया होगा, यह तो वही जाने ----- हम तो बस इतना जानते हैं कि जिन राहों पर शमां हमें छोड़ गई थी, हम अब भी उन्हीं रास्तों पर खड़े हैं ----- लगता है वो शमां अचानक से आकर फिर मेरी राहों को रोशन करेगी और हौले से आकर कहेगी -------"पगली ---!! मैं कहीं गई थोड़े ही थी--- मैं तो यहीं थी , तुम्हारे पास" -
बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबुलेटिन में मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंशानदार बुलेटिन...
सादर...
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार बुलेटिन।
बुलेटिन में मेरी भी पोस्ट शामिल करने के लिए धन्यवाद |
पठनीय सूत्रों का परिचय देता सुंदर बुलेटिन..आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर बुलेटिन प्रस्तुति 👌
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