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गुरुवार, 1 नवंबर 2018

नींद ख़ामोशियों पर छाने लगी - ब्लॉग बुलेटिन


नमस्कार मित्रो,
आज स्व-रचित ग़ज़ल आपके लिए....
++

नींद ख़ामोशियों पर छाने लगी,
इक कहानी फिर ठहर जाने लगी.

दर्द को रोका धीरे-धीरे मगर,
सैलाब दिल में लहर लाने लगी.

कब बदल जाए मौसम क्या पता,
तेज़ बारिश में धूप मुस्काने लगी.

हौसलों से हारती हैं मुश्किलें,
लौ दिए की अंधियारा मिटाने लगी.

आ रही वीरानियों में भी रौनक़ें,
बस्ती ख़ुद को फिर से बसाने लगी.

ज़ुल्म मिल करने लगे हैं रात-दिन,
अब तो क़ुदरत भी क़हर ढाने लगी.

ज़ख़्म कुरेदने का हुनर सीखकर ज़ुबां,
मुहब्बतें मिटा नफ़रतें फैलाने लगी. 


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9 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ संध्या...
    उम्दा ग़ज़ल...
    बेहतरीन बुलेटिन...
    सादर...

    जवाब देंहटाएं
  2. वआआह...
    सुन्दर बुलेटिन...
    सादर...

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन ग़ज़ल।
    हरेक शेर का अपना ख़ास अंदाज़।
    ब्लॉग बुलेटिन सारगर्भित व पठनीय अंक।
    सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाऐं।
    मेरी रचना को शामिल करने के लिये सादर आभार।

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  4. बहुत सुन्दर ! कुदरत का क़हर तो हमसे बर्दाश्त हो भी जाएगा लेकिन कुर्सियों पर बैठे कुदरत के इन एक से एक बढ़कर नमूनों का क़हर बर्दाश्त करने की क़ुव्वत हम में नहीं है.

    जवाब देंहटाएं
  5. आ रही वीरानियों में भी रौनक़ें,
    बस्ती ख़ुद को फिर से बसाने लगी.

    वातः मज़ा आ गया।
    बुलेटिन में मेरी भी ग़ज़ल को स्थान देने के लिए शुक्रिया।

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  6. बहुत शुक्रिया। बढ़िया संकलन।

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