नमस्कार मित्रो,
आज स्व-रचित ग़ज़ल आपके
लिए....
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नींद ख़ामोशियों पर छाने लगी,
इक कहानी फिर ठहर जाने लगी.
दर्द को रोका धीरे-धीरे मगर,
सैलाब दिल में लहर लाने लगी.
कब बदल जाए मौसम क्या पता,
तेज़ बारिश में धूप मुस्काने लगी.
हौसलों से हारती हैं मुश्किलें,
लौ दिए की अंधियारा मिटाने लगी.
आ रही वीरानियों में भी रौनक़ें,
बस्ती ख़ुद को फिर से बसाने लगी.
ज़ुल्म मिल करने लगे हैं रात-दिन,
अब तो क़ुदरत भी क़हर ढाने लगी.
ज़ख़्म कुरेदने का हुनर सीखकर ज़ुबां,
मुहब्बतें मिटा नफ़रतें फैलाने लगी.
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सुन्दर गज़ल सुन्दर बुलेटिन।
जवाब देंहटाएंशुभ संध्या...
जवाब देंहटाएंउम्दा ग़ज़ल...
बेहतरीन बुलेटिन...
सादर...
वआआह...
जवाब देंहटाएंसुन्दर बुलेटिन...
सादर...
बेहतरीन ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंहरेक शेर का अपना ख़ास अंदाज़।
ब्लॉग बुलेटिन सारगर्भित व पठनीय अंक।
सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाऐं।
मेरी रचना को शामिल करने के लिये सादर आभार।
बहुत सुन्दर ! कुदरत का क़हर तो हमसे बर्दाश्त हो भी जाएगा लेकिन कुर्सियों पर बैठे कुदरत के इन एक से एक बढ़कर नमूनों का क़हर बर्दाश्त करने की क़ुव्वत हम में नहीं है.
जवाब देंहटाएंआ रही वीरानियों में भी रौनक़ें,
जवाब देंहटाएंबस्ती ख़ुद को फिर से बसाने लगी.
वातः मज़ा आ गया।
बुलेटिन में मेरी भी ग़ज़ल को स्थान देने के लिए शुक्रिया।
एक उम्दा ग़ज़ल.
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार.
बहुत शुक्रिया। बढ़िया संकलन।
जवाब देंहटाएंKya baat hai
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