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सोमवार, 15 अक्टूबर 2018

कात्यायनी माँ




हर वर्ष माँ आती हैं,
निरुद्देश्य कभी नहीं,
हमेशा उदेश्य की ऊर्जा से परिपूर्ण। 
घट में रखे जल से वह अपनी प्यास बुझाती हैं,
मायके की दहलीज़ से,
अपना श्रृंगार करती हैं,
सार्थक संकल्पों को आशीष देती हैं,
क्षत विक्षत स्वाभिमान को एकत्रित कर,
फिर एक मूरत गढ़ती हैं,
हवन के धुंधलके में,
प्राण संचार करती हैं,
विदाई के खोइंछे से एक एक दाना पीछे लौटाती हैं 
देती हैं विश्वास,
फिर से मायके आने का  ... 


यूँ ही बैठे बैठे खयाल आया....
रावण के दस सिरों ने ही,
उसका बेडा गर्क करवाया।
'गर एक ही सिर की मानता सलाह,
तो बुराई का न बनाया जाता उसे ,
क्लास वन ठेकेदार इस तरह।
एक एक काम के लिए,
दस जनो की सलाह लेने की
भारी कीमत चुकानी पड़ी बेचारे को।
ले लो भैया।..अब तो,
शिक्षा रावण से ही ले लो।
एक काम करने के लिए ...
दस लोगों की सलाह लेने,
कभी घर से मत निकलो।

हमारे पास बेशक हाथ में हाथ थामने की,
साथ- संग बिताने की धरोहर न थी
पर लम्हे जो पीछे
बीत गए ऊँची हंसी में,
वहीँ तो हमारी खिली खिली चाहत रखी थी.
एकाकीपन की तान साधे हैं वे ही लम्हे
जिनमे हमारी हंसी के स्वर
खो गए कहीं
अब दर्दीला सन्नाटा गूंजता है वहाँ
एकाकी... अपनी ही ध्वनि सुनने जैसा
लापता हुई 'हम' वाली सरगम
निरर्थक शब्द बचे
'मैं' और 'तुम'
आपस में झगड़ लेना था इस से बेहतर कि
मैं ही करूँ सवाल, मैं ही तलाशूँ जवाब
सुनो,
मैं उठाऊं इस अनचाही पीड़ा को या
तुम सहेजो चाहत के बेअन्त दर्द,
इस अनंत पीड़ा के रिसते रक्त दोष से
न तुम बचोगे, न शुद्ध रह पाएंगे हम
चाहो तो कर लेना मेरे नाम की
एक परिक्रमा, रोज ढलती हुई संध्या में
मेरी तरह,
इसी से खोज पाओगे
तुम प्रीत के वे भूले और अबूझ स्वर
हाँ, तब तुम बेदाग़ नया प्रेम संगीत रचना। 

कुछ नाम रेत पर भी लिखे जाते हैं
पर नही होती मयस्सर उन्हें उम्र कोई
फिर भी उनकी छाप एक बारगी
छू जाती हैं रूह की पाकीजगी सी
फलक पर सबका नाम हो मुमकिन नही हैं ........

ईश्वर अपने क़लम से
कभी किसी की तक़दीर
अच्छी या बुरी नहीं लिखते
वो बनाना हमारे हाथ में है

हमारी किताबें रद्दी में बेचीं गई तब हम खुरदुरा आँगन बुहार रहे थे .....
जब हमने अपनी जिन्दगी का पहला सपना देखा
हम अबोध लडकियाँ थे
हम पूरे छत को अपने फ्रोक के साथ गोल गोल घुमा देते 
छत धुंधलाता फिर धम्म से गिर पड़ता
हमारी खिलखिलाहटें कोयले की चूल्हे की चिंगारी सी
हमारे सपने जरा फ़िल्मी होते पर हम सपने में भी अपनी छातियों पर दुपट्टा कसी लडकियाँ ही होते
हम पन्द्रह साल के थे और दबी जुबान से बातें करते
हम बड़ी बहनों से बड़े होने का गूढ़ अर्थ आँखे झपकाकर समझते
जो न समझ पाते उसके चिपक कर सो जाते उसका बड़ा होना हमारी धमनियों में बहता
हम आसान सी दिखने वाली लडकियाँ थे
जो कॉपियों में दिन रात देखे सपनों को उकेरती और सिरहाने छुपा लेती
हमारे कंधो पर चमकीले गोटे का पल्लू था ठीक तब जब हमनें "सुरंगमा 'तुम्हारे लिए 'गुनाहों का देवता 'जैसे उपन्यास की नाइकाए हमारे आँख के डोरे लाल कर गई
जब आलिंगन शब्द पढ़ते ही हमारी कनपटी तप गई थी
हम किसी और घर के दिवार पर अपने हाथ का छापा बना रहे थे
छ्मकने और छन से टूटने वाले सपने भी खालिस लड्किनुमा थे
टूटने जुड़ने बहकने दहकने भूलने बिसरने की सीढियाँ चढ़ते हमनें नाख़ून पर रंग सा बचाए रखा वो सपना
हम ढंग की औरत बनने की प्रक्रिया में आज भी
घुमा देना चाहते हैं छत को गोल गोल
हम तडप कर पढना चाहते हैं आलिंगन
हम और और गूढ़ अर्थ जानना चाहते है
बड़ी बहन सी उस करवट पीठ की जिन्दगी से
चिपक कर
कुछ लेना देना कुछ घुलना मिलना चाहते है
मीठे शरबत में निचुड़े निम्बू सा चुटकी भर खारे नमक का स्वाद भर सपना
हम जीना चाहते थे .....हम जीना चाहते हैं शायद...

3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ...
    कमाल की रचनाएँ हैं इस बुलेटिन में ...
    आभार मुझे भी जगह देने के लिए ...

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  2. दिल-दिमाग को भीतर तक छू लेने वाले शब्द..सभी रचनाकारों को बधाई..आभार !

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