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सोमवार, 2 जुलाई 2018

लिखे की यात्रा ... 4




वाणी गीत  ... मेरी भावनात्मक शाब्दिक यात्रा कुछ नामों से ही यूँ प्रभावित है, कि लगता है, मैं उन्हें जी रही हूँ या वे मुझे।  बिना कहे, बिना सुने इस यात्रा के स्वर मुखर होते हैं।  
सुना है, 
नाम गुम जाएगा 
चेहरा ये बदल जाएगा,
मेरी आवाज़ ही पहचान है  ... 

बदले चेहरे से जाने कितनी स्मृतियाँ टपकती हैं 
नाम को कौन मिटा पाया है,
वह भी यदि उसने कुछ दर्द लिखा हो,
उकेर दी हो कुछ बेचैनियाँ  ... 
हो जाते हैं कुछ लोग बेनामी,
पर,
कहीं तो रह जाती हैं उनकी स्मृतियाँ शेष,
कोई न कोई,
कहीं न कहीं 
ज़िक्र कर ही जाता है  ... !

...... किसी दूसरे के उसी नाम में वह नाम याद आता है, जिसे समय अपने सामयिक कमरे में पनाह देता है। 
नाम, चेहरे तो जाने कितने हैं इस यात्रा में, एक नाम, जिसकी शालीनता में, उसके तेजतर्रार प्रश्नों ने ख़ामोशी को अपना उत्तर बना लिया।  (यह मेरे निजी विचार हैं)



द्विरागमन.....



"We All are Dogs !"
कह दिया मैंने और उसकी प्रतिक्रिया को परखता रहा।  पिछले जितने समय से उसे जानता था उसे लगा था कि वह  बुरी तरह चिढ़ेगी , चीखेगी और कहेगी कि  इसमें क्या शक है ! 
मगर नहीं! एक सेकण्ड के लिए उसके चेहरे का रंग बदला और फिर से वही  स्निग्ध मुस्कराहट लौट आई थी।
बात चल रही थी उसके पति की .  अपनी धुन में डूबी हुई सी वह बता रही थी उसके पति के बारे में . वह मितभाषी है , ईमानदार है , दिल बहुत बड़ा है उनका …  
मैं उसे चिढ़ाना चाहता था या फिर उसका भ्रम दूर करना चाहता था  पता  नहीं क्यों . मैं देर तक  सोचता रहा था  उसके जाने के बाद कि  आखिर क्यों। … 
मैं जवाब नहीं जानता था या  जो जानता था उसे झुठलाना चाहता था। । पता नहीं , क्या , क्यों।
अचानक हंसी आ गयी मुझे। 

उस दिन पूछ लिया था था मैंने. आखिर तुम अपनी  जिंदगी से चाहती क्या हो।
पता नहीं!
तुम जिंदगी से खुश हो!
पता नहीं!
तुम नाराज हो!
पता नहीं!

मुझे झुंझलाहट होने लगी थी। तुम्हे कुछ पता भी  होता है !
अभी मैं इस समय यहाँ तुम्हारे साथ हूँ , तुम रखते हो न सब पता… 
और उसकी  खिलखिलाहट में मेरी झुंझलाहट जाने कहाँ ग़ुम  हो गयी।
मैं चिढ़ता हूँ खुद पर  उस पर-  गुस्सा हो तो खिन्न दिखना  चाहिये मगर  नहीं, उसे तो मुस्कुराना या  कहकहे ही लगाना है हमेशा। 
और आज मैं था जो हर बात पर कहता था.… पता नहीं !
इतनी देर से बात कर रहा हूँ उसके बारे में। 
वह कौन! कौन थी वह !कहाँ से आई थी ! कौन थी वह मेरी !
इस अनजान  शहर में चला आया था सबकुछ छोड़कर , या कहूँ छूट गया था …

अपने बारे में क्या लिखूं , उसकी ही बात करता हूँ.  इस  नए शहर की वसंत ऋतु की  एक दोपहर रही होगी . उस बाग़ की एक बेंच पर बैठा यूँ ही कर रहा था जिंदगी का हिसाब- किताब .  पता नहीं चला था कब सामने आ बैठी थी वह बेंच से थोड़ी दूर . पार्क की दूब पर बैठी तिनके तोड़ कर दांत में कुरेदती जैसे कुछ फंसा था  उसके दांत में ! 
नहीं , कुछ अटका हुआ जेहन में जैसे कुतरती जाती थी।

मेरी नजर कैसे पड़ी उस पर . शायद वहां खेलते दो बच्चों की बॉल उसके सर पर जा लगी थी . बच्चे डरे सहमे उसके पास जा खड़े हुए थे . उसने हलकी सी मुस्कराहट के साथ बॉल उठाई और दम  लगा कर दूर फेंक दी। बच्चे हुलस  कर बॉल के पीछे भागे और वह फिर उदास सी दूब कुतरती रही दांतों में जैसे कि  जिंदगी की मुश्किलात को कुतर देना चाहती हो।

क्या सूझा मुझे मैं अपनी जिंदगी के हिसाब किताब बंद कर उसकी ओर  देखने लगा।  एक अनचीन्ही सी मुस्कराहट लिए बैठी रहती है रोज उसी स्थान पर कभी मेरे आने से पहले , कभी आने की बाद से। कभी किसी को  देख मुस्कुरा देती मगर कुछ कहती नहीं  . कभी हाथ में पकडे काले क्लच के बटन को खोलती बंद करती , कभी घडी में समय देखती , कभी अँगुलियों पर कुछ गिनती। … एक सप्ताह  हो गया था मुझे उसे इसी प्रकार देखते। अपनी आँखों के सामने पड़ने वाले दृश्य से बिना  जाने कब हमसे  रिश्ता  बना लेते हैं .  जाने कब हमें उनकी आदत हो जाती है।  रोज देखते हुए उसे मुझे भी  उत्सुकता होने लगी थी . कौन है यह स्त्री ! किसी से बातचीत नहीं बस कभी अपने में खोयी तो कभी दूसरों को निहारती चुपचाप एक निश्चित समय तक ,. उसके बाद उठकर धीमे क़दमों से चल देती।

अपनी शांति को दरकिनार रख मेरा मन करने लगा  था  कुछ बातचीत करने को ,. किसी से भी  पास से गुजरते चने या आईसस्क्रीम वाले को रोक उससे जोर से बातें करता ,  मगर वह निस्पृह सी दूसरी और निगाह  किये जाने क्या तलाशती लगी मुझे।  बात करना चाहता था मैं उस ख़ामोशी से जो उस हरी दूब के मखमली लॉन  से  इस बेंच के दरमियान पसरी रहती थी. संकोच भी था कहीं वह मुझे  असभ्य न समझ बैठे।

मौका मिल गया था उस दिन बातचीत का जब फिर से एक बॉल आ टकराई थी उसके क्लच से होते हुए मेरी बेच तक !
मैंने मुस्कुराकर उसे नमस्कार कहा-  रोज देखता हूँ आपको यहाँ !
हूँ -  उसके शब्दों के रूखेपन में टोकने पर टरका  दी जाने वाली की नाराजगी ने मुझे आगे कुछ कहने से रोक लिया !
 भीतर कही जिद जोर मारने लगी . शायद मेरे भीतर का पुरुष  जानवर क्यों न कहूँ .  एक स्त्री की उपेक्षा को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। कहीं भीतर मेरे सम्मान को चोट तो नहीं लगी यह देखकर कि  मुस्कराहट का जवाब भी मुस्कुराहट से नहीं दिया  गया। अब मेरी जिद मेरी ख़ामोशी को पीछे धकेलते वाचालता में तब्दील होती जाती थी।  उससे बेखबर होने का दिखावा करता मैं कभी बॉल खेलने वाले बच्चों से  कभी कुल्फी या चना  वालों से जोर से बातें करता . बिना बात कहकहे लगाता मगर इतने दिनों बाद भी उन आँखों में पहचान या होठों पर मुस्कराहट नहीं उभरी। 
मैं समझ नहीं पाता  था , क्यों चाहता था मैं ऐसा। ऐसा कुछ ख़ास तो नहीं था उस स्त्री में . उसके सामान्य कद जैसा ही सामान्य पहनावे में लिपटा  .... किसी भी स्त्री को देखकर ही प्रभावित हो जाने वाला या उनके आगे पीछे चक्कर काटने जैसा चरित्र मेरा नहीं था. अपने  सैनिक जीवन के  औपचारिक  माहौल में जमने  वाली  अनौपरिक बैठकों में खूबसूरत ग्लैमरस तेजतर्रार  पार्टी की शान बनी तितलियाँ कम  नहीं देखी थी मैंने , देखने से लेकर मित्रता , साथ घूमना और वह सब भी जो सामान्य जीवन में अनैतिक माना जा सकता था … शायद एक सामान्य सी स्त्री द्वारा उपेक्षित किये जाने   ने ही मुझे कही भीतर नाराज किया था। जिस व्यक्ति को आप रोज देखते हो दिखते हो !  बात न करे पहचान आगे न बढ़ाये मगर सामने पड़ने पर मुस्कुराया तो जा सकता है !

उसे मुस्कुराता देखने की मेरी नाकाम कोशिशें मुझे चिढ़ाती जाती थी।  अपने व्यवहार की तबदीली पर हैरान मैं स्वयं पर झुंझलाता  था  और एक दिन जब यह झुंझलाहट हद से बढ़ी तो मैं पास से गुजरते कुल्फी वाले को जबरन रोककर उसे सुनाने की गरज से जोर से  बोल पड़ा , जब लोगो को किसी से बात नहीं करनी होती , किसी से घुलना मिलना पसंद नहीं होता तो घर से बाहर ही क्यों निकलते हैं।  सार्वजानिक स्थानों पर आने  की क्या आवश्यकता है , अपना कमरा बंद कर पड़े रहे न घर में !
इस बार पलटकर देखा उसने।  जाने कैसी सख्त निगाहें थी - सार्वजानिक स्थान किसी की बपौती नहीं , और  लोग  हर किसी से बातें करने के  लिए यहाँ आते भी नहीं।
मेरा तीर निशाने पर लगा था .  गुस्से से तिलमिलाती ही सही कुछ कहा तो उसने ! 

उस शाम से लेकर अब तक जाने कितनी शामें थी हम रोज ही आते मुस्कुराते  बातें करते .  वह बताती अपने बारे में , अपने पति , अपने बच्चों के बारे में , और मैं सुनता , कभी कुछ पूछ भी लेता … 
जाने कब  बीच की अनौपचारिकता की दीवार ढही मुझे या शायद उसे भी पता नहीं चला नहीं होगा  जब भी मैं उस दिन की तल्खी की बात सोचता हूँ।

आज वह गुस्से में तिलमिलाई नहीं  मगर उसके शब्दों में पर्याप्त तीखापन था - हंसी आ रही  है मुझे कि एक पुरुष मुझे यानि एक स्त्री को यह बता रहा है!
उसकी आँखों में अभी भी वही पहले से सख्ती जैसे कह रही हो मुझे कि हम स्त्रियां बेहतर जानती हैं कि तुम कुत्ते ही होते हो मगर अगले ही पल  फुर्ती से लौटी उसी स्निग्ध मुस्कराहट ने अपने शब्दों पर पर्याप्त  बल  देकर कहा - नहीं , वे ऐसे नहीं है ! सब ऐसे नहीं होते !
मत  मानो अभी  . एक दिन तुम मानोगी तब मुझे याद करोगी।
तुम्हे याद तो मैं यूँ ही कर लूंगी . कुत्तों के बहाने क्यों !
उसकी तिरछी नजरों के साथ  खिलखिलाहट  का अंदाज बात वहीं समाप्त कर देने जैसा था ! मगर बात समाप्त नहीं हुई  थी वहां।
मुझे लगता था कहीं भीतर से आती उसकी आवाज - तुम सब कुत्ते ही होते हो , सब एक जैसे।  गोश्त चूस लेने के बाद हड्डियां चुभलते रहने वाले कुत्ते , तुम्हारी भौंक बस हड्डी मुंह में रहने तक ही बंद रह सकती है।  
मैं काँप रहा था इस अनकही को सुनते . उसने तो कुछ कहा नहीं था।  कहीं मेरे मन की ही बात तो मेरे कानों में नहीं उड़ेली जा रही थी उसके अनकहे शब्दों में।  अपने आप को हमसे बेहतर और कौन जान सकता था! 
अपनी बेरहमी और बेशर्मी से घबराया मैं उसी बाग़ के दूसरे कोने पर लगे फूलों और बच्चों को देख मुस्कुरा दिया. अपने भीतर के पशु को छिपाते सांत्वना देता मनुष्य को !

मुझमे अभी बाकी है जिंदगी . रहेगी भी ! यकीन दिलाता स्वयं को।  वह थी ही ऐसी . बुरी तरह कुरेदती  अपने शब्दों से भीतर को बाहर खड़ा कर देती  जैसे कि आईने में अपना अक्स नजर आ रहा हो।



उस दिन जब वह लॉन की दूब को दांतों से कुरेदती ही तो मिली थी मुझे यहाँ , अपनी व्यग्रता को ही कुरेदती थी जैसे।  बाद के दिनों में मुझे बताया उसने।  मध्य आयु के स्त्री पुरुषों में जैसे परिवर्तन होते हैं  वैसी ही बेचैनियां लिए बढ़ती उम्र ...रिश्तों का ठहरापन ...मुट्ठी से फिसली उम्र के बीच कुछ भी अपने मन का न पा सकने की निराशा .,जाने क्या -क्या !

उस दिन फिर जल्दी -जल्दी करते भी तवे पर पराठे जल गए थे और उसका पति गुस्से में खाना खाए बिना ऑफिस निकल गया था ...नल से  पानी भांडे भरे बिना ही जा चुका  था ...बच्चों की डायरी में क्लास में पिछड़ते जाने का नोट !
वह देखती थी आस- पास स्त्रियों को सुबह जल्दी उठकर झाड़ू बुहारू लगाते , पूजा -पाठ करते , खाना बनाते ,  बच्चों को तैयार करते ख़ुशी -ख़ुशी और सबसे फारिग होकर कभी बाजार तो कभी पास पड़ोस में गप्प गोष्ठियां करते।  बड़ी ख़ुशी से अपनी गोपनीय बातें उजागर करते जैसे कि  आज धूप  में कुछ कार्य कर रही थी तो लाड़ में भरा पति दूध में ढेर सारे ड्राई ट्स घोल लाया उसके लिए ... कोई पिछली रात की बात खुसर फुसर में इस तरह करते कि  दूसरी महिलाएं झट कान लगा कर पूछ ले दुबारा।  कोई पति की शिकायत इस तरह करती मिल जाती जैसे कि  प्रशंसा कर रही हो ... हमारे ये तो कुछ काम ही नहीं  कराते घर का या की इन्हे तो कुछ पता ही नहीं रसोई  में कौन सी चीज कहाँ रखी  है ...कोई बताती छिपा  कर रखे गए पैसों से सोने के गहने / खरीददारी जिससे वह अपने उनको  चौंका देगी। सास की पदवी पा चुकी कुछ स्त्रियां अपने दुःख का पुलिंदा खोले बैठी होती।  उसका कभी इस गपगोष्ठी  में शामिल होना होता तो  चुपचाप बस सुन लेती क्योंकि उसके पास  या तो ऐसा कुछ सुनाने को होता नहीं  या फिर रिश्तों की गोपनीयता उजागर करना उसे अच्छा लगता भी नहीं। मंगोड़ियां , पापड़ बनाती हुई स्त्रियां , तो कभी लहंगा , ब्लाउज सिलती ये स्त्रियां खुश लगती थी अपनी जिंदगी से,  बहुत खुश !

किसने कौन सी किताब पढ़ी ...कौन सी फिल्म देखी... नया क्या सीखा सुन लेने को ही तरसती ! ऐसा नहीं था कि उन गोष्ठियों में स्त्रियां  पढ़ी लिखी नहीं थी।  अधिकांश संतोषजनक डिग्रियां प्राप्त थी , कुछेक कामकाजी भी मगर उनकी बातचीत का दायरा वहीँ तक सिमित था।  जल्दी ही वह ऊब जाती , अलबत्ता उसके पास समय भी नहीं होता था अधिक देर इनका हिस्सा बनने का ....

आम स्त्रियों से भिन्न शौक/मिजाज  रखने वाली निम्न अथवा उच्च  मध्यमवर्गीय स्त्रियों के मन का एक कोना किस तरह सूखा  अनछुआ सा रहता है .उससे नहीं मिलता तो शायद कभी जान भी नहीं पाता।  उसकी बातों ने , उसके चुप रह जाने ने , उसके चिल्ला पड़ने में , उसके हंसने ने , उसके मुस्कुराने ने मुझे बताया , समझाया। बस उसके आंसूं नहीं देखे मैंने . भरा गला और चेहरे की मुस्कराहट के साथ कुछ नमी जरूर थी कोरों पर मगर उसे आंसू नहीं कहा जा सकता था।

उसका नाम क्या था , क्या फर्क पड़ता है , भीड़ में शामिल भीड़ से अलग दिखने वाली कोई भी स्त्री हो सकती है वह. मध्यवय की मध्यमवर्गीय स्त्री जो अपने नाम का अपने होने का अर्थ ढूंढ रही हो वही स्त्री हो सकती है , हो सकती थी।

उस दिन जब मैं पहली बार उससे मिला था उस पार्क की बेंच पर बैठा उसे देखता दूर तक फ़ैली दूब  से तिनका तोड़ दांत में फंसाते जैसे कि  जिंदगी की तमाम नीरसता , व्यग्रता , बेचैनियों को खुरचती हो जैसे !

उस दिन बस मुस्कुराकर नमस्कार को नाराजगी से अनदेखा करने वाली स्त्री कभी इतनी घुली मिली होगी मुझसे कि  मैं उसके वय और परिवेश की स्त्रियों की मानसिक स्थिति का अंदाजा भी लगा सकूंगा  सोचा नहीं था मैंने।
उस दिन उसकी नाराजगी पर  मुस्कुराते हुए मैंने कहा था ,
शुक्र है आप बोली तो …
मैं अजनबियों से बात नहीं करती! त्योरियां अभी चढ़ी ही हुई थी।
मगर हम अजनबी नहीं है , कितने समय से तो एक दूसरे को देख  रहे हैं यहाँ !
क्या मतलब , मैं यहाँ किसी को देखने -दिखने नहीं आती।
जी , आप तो यहाँ लॉन की दूब  कुतरने आती हैं। मैंने लॉन के एक हिस्से से उखड़ी हुई दूब  की ओर इशारा किया।
इस बार वह कुछ झेंपी सी थोड़ी अधिक ही  मुस्कुराई।  पहली बार उसके चेहरे की ओर ध्यान से देखा मैंने , गेंहुए रंग पर कुछ गोल सा चेहरा, घनी पलकों वाली सम्मोहित करती सी बड़ी काली आँखें , मुस्कुराते गालों पर पड़े हुए भंवर... एक सामान्य चेहरे मोहरे से कुछ अधिक आकर्षक . बहुत  खूबसूरत  नहीं कहूँगा क्योंकि अपने इस जीवन काल में बहुत खूबसूरत लड़कियां देखी मैंने , लम्बे अंडाकार चेहरे वाली दूध सी गोरी लड़कियां , संतरी फांकों से गुलाबी होठों वाली पहाड़ी लड़कियां तो  लम्बी पतली तरासी हुई अँगुलियों से गालों पर उतर आई लटें संवारती सैंडिलों को खटखटाती आधुनिकाएं भी। वह इतनी खूबसूरत नहीं थी ! मगर उसकी छोटे बच्चों जैसी भोली कोमल मुस्कराहट बहुत प्यारी थी।   बेध्यानी में मैं एक बारगी उस  मुस्कराहट में अटक सा गया , मगर जब उसने भोंहे तरेर कर आँखें सिकोड़ी तब अपनी बेहूदगी पर लज्जित होता दूसरी ओर देखने लगा।

उस दिन बातचीत का  वह सिरा पकड़ने के बाद हम अब तक बातों के पालने बुनने लगे थे। अपनी शिक्षा , बच्चों की बातें , शरारतें , अपने शौक , राजनीति , खेल , फ़िल्में जाने कितनी दुनिया जहां की बातें करते हम।  कई बार मैं खुल कर हँसता उसकी बेवकूफियों भरी बातों पर , कभी चिढ़ता भी तो कभी सरल सहज सी बातों में उसकी दार्शनिकता ढूंढ लेने पर  अचंभित भी होता।  सामान्य से  दिखने वाले लोग सामान्य से अधिक ही चौंकाते हैं कई बार।  हालाँकि आम स्त्रियों की तरह ही उसे गुलाबी रंग बहुत पसंद था , गीत- संगीत भी ,  फूलों और बच्चों से भी उसका प्यार वैसा ही था जैसा की  स्त्रियों को होता है, मगर कहीं कुछ अलग था, अलग लगता था, बस बता नहीं सकता क्या। .... यही कहूँगा पता नहीं !

तो  आज जब मैंने कहा कि  हम सब कुत्ते हैं ! तब भी वह मुस्कुराई मगर मैं जान गया था कि उसने क्या कहा था।

तुम लड़कियां अजीब होती हो , सोचती कुछ हो , कहती कुछ हो और करती कुछ उससे अलग ही हो !

खुद का पता है ! तुम सब एक जैसे होते हो तुम्हारा शब्द इस्तेमाल नहीं करुँगी मगर ! वैसे तुम्हारी जानकारी के लिए मैं बता दूँ कि मैं लड़की नहीं हूँ .अपने पति के दो प्यारे बच्चों की अम्मा हूँ!  अपने मातृत्व के गर्व से गर्दन टेढ़ी कर वह इतरा- सी जाती।
क्यों ! क्या अम्माएं लड़कियां नहीं होती ! सीधे अम्मा ही जन्म लेती हैं !
 तुम्हे कैसे पता यह सब  , तुम्हारी तो शादी नहीं हुई न ! वह तीखी नजर से देखती!
पता चल जाता है ! मैं चिढ़ाता उसे !
कैसे पता चल जाता है , बताओं न … उसे अपने शब्दों  के द्विअर्थी होने का भान ही नहीं होता   मगर जब मैं शरारत से मुस्कुराता तो खिसिया सी जाती … तुमसे तो बात करना ही बेकार है , दिमाग में भूसे की तरह बस एक ही चीज भरी होती है।
अच्छा ! कौन सी एक चीज !
वह  इस तरह दांत पीसती मानो कच्चा ही चबा जाएगी।

सब जानता था मैं उसके बारे में ! उसका छोटा सा घर ... प्यार करने वाला पति ...स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे मगर अपने बारे में कभी कुछ कहा नहीं मैंने।
एक दिन जिद पर अड़ ही गयी ...
तुम बहुत आत्मकेंद्रित हो . कभी अपने परिवार और बच्चों के बारे में बात ही नहीं करते।
मैं क्या कहता … कई बार पूछने पर एक दिन झूठ बोल दिया मैंने।  मेरी शादी नहीं हुई अब तक !
उसे हैरानी जरूर हुई थी मगर वह इसे  सच मान बैठी थी।

क्यों नहीं की शादी अब तक तुमने ! किसी ने  धोखा दिया क्या !
क्या बताता कि  मुझे धोखा किसी और  ने नहीं स्वयं मेरी किस्मत ने दिया था।

क्यों करोगे तुम लोग शादी ! तुम्हारी आवारगी पर बंधन जो लग जाएगा इसलिए ही न .... मगर इस बंधन से तुम लोगो को क्या फर्क पड़ता है . घर में उसे बिठाकर बाहर तुम्हारी मटरगश्तियाँ तो उसी प्रकार चलती हैं . घर  में तुम लोगों को सती सावित्री , शांतचित्त , सुघड़ गौ सी स्त्री चाहिए मगर घर से बाहर तुम उनकी तारीफों में मरे जाते हो जो स्मार्ट , तेजतर्रार , महफ़िलों की शान लगती हो।
ओह अच्छा ! तुम्हारा पति भी करता है यही सब !
शटअप  , वो ऐसे नहीं है . बहुत मेहनत करते हैं हमारी छोटी सी गृहस्थी की गाडी खींचने को !
अच्छा , तो तुम कैसे जानती हो पुरुषों के बारे में यह सब ....
लो इसमें जान लेने का क्या है , दिखता  है न हर तरफ !
 मैं गोल घुमाता बात बदल देता , वह कई बार कोशिश तो करती कि मेरे जीवन का कोई सिरा  पकड़ सके। मगर सैनिक जीवन के अभ्यास ने ही शायद इतनी दृढ़ता दी थी कि मैं अपने गम भुलाकर दूसरों को हंसा सकता था।
मैं उसे हँसते देखना  चाहता था हमेशा , क्यों पता नहीं ! और सिर्फ उसे ही नहीं ., मैं सभी को खुश देखना चाहता था हमेशा।  खुशियों की कितनी छोटी सी उम्र देखी थी मैंने ! मैं जानता था उनकी अहमियत और हैरान हुआ करता था जब लोगो को  छोटे मामूली मसलों पर टन भर मुंह लटकाये देखता था।
 उससे भी शायद मेरी इसलिए ही अधिक बनती थी कि  वह मुस्कुरा सकती थी फूलों को खिलते देख , बच्चों की हंसी के साथ खिलखिला सकती थी , कितनी ही बार चहकते देखा मैंने उसे जब वह किसी की छोटी सी भी मदद कर पाती , कभी रसोई में अपने नए प्रयोग पर ही खुश हो लेती।
 एक दो बार ही अनमना सा देखा मैंने उसे - दो छोटे बच्चों को खेलते देख मुग्ध निहारते कुछ उदास सी ! मैंने लक्ष्य किया उसकी उदासी को तो बोल पडी , मुझे बच्चों की याद आ रही है ! हर दिन मुझे हैरान करने की उसकी यह  हरकत थी।  रोज घर से गायब रहना एक घंटे के लिए , इस पार्क में यूँ ही बैठे , अब तक जान नहीं पाया था मैं।
 तो घर चली जाओ , यहाँ क्यों बैठी हो।
 नहीं , अभी नहीं जाना है मुझे घर।  बच्चों को कुछ देर अकेले भी रहना चाहिए न !


इस रहस्य की गुत्थी मुझसे सुलझती न थी. एक दो बार लेकर भी आई थी वह उन्हें साथ ही ., दो छोटे से बहुत ही  प्यारे बच्चे थे उसके .,मोनू और स्वीटी।   पहले कुछ दिनों में जितनी चुप उदास -सी दिखी ... वह स्त्री स्वयं वही नहीं थी।


उससे बतियाते मैं जानने लगा था कि वह अपने पति और बच्चों के साथ अकेले रहती थी।  उसके सास ससुर इतने नाराज थे कि एक ही शहर में रहने के बावजूद उससे कभी मिलने नहीं आते ...बच्चों के जन्म से लेकर उनके स्वास्थ्य खराब होने पर भी। बताया नहीं था उसने बस , उसकी बातों से जाना।
एक दिन पूछ  लिया था मैंने -
तुम्हारा प्रेम विवाह हुआ है क्या  !
हां, प्रेम विवाह के बाद हुआ है।
प्रेम विवाह के बाद प्रेम!
बुद्धू , प्रेम मुझे विवाह के बाद हुआ !!
अच्छा , उससे पहले किसी से प्रेम नहीं हुआ ! सच बताओ , तुम्हे विवाह से पहले कभी प्रेम नहीं हुआ।
वह कुछ देर खामोश रही।
प्रेम क्या होता है आखिर ! दो व्यक्ति एक साथ रहने और साथ जीने में ख़ुशी महसूस करते है , इसके अतिरिक्त प्रेम क्या होता है !
 मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूँ जब कुछ अच्छा नही लगता ...  घबराहट होती है !भूख- प्यास मिट जाती है ... पढने में मन नही लगता ... रात में नींद नहीं आती  दिन में सपने देखने लगते हैं लोग !
वह प्यार होता है।  मुझे तो लगता था कि ये लक्षण ब्लड प्रेशर के होते हैं या अनिमिक होने के !
इस उम्र में तुम यह कह सकती हो , मगर मैं उस उम्र की बात कर रहा हूँ जब यह सब होता है ! क्या तुम्हे कभी कोई अच्छा नहीं लगा। तुम भी अच्छी खासी खूबसूरत हो ...तुम्हे भी तो किसी ने पसंद जरुर किया होगा .
अच्छा  क्यों नहीं लगा।  हम अपने जीवन में बहुत लोगो से मिलते हैं जो हमें अच्छे लगते हैं.  हम उनसे और  वो हमसे आकर्षित होते हैं.  सब हमारे जीवन में शामिल नहीं होते .  इससे प्रेम का क्या सम्बन्ध !
अभी तुमने कहा न दो व्यक्ति एक साथ रहने जीने में ख़ुशी महसूस करें , वही प्रेम है !

अचकचा गई वह।  शब्दों के जाल में उलझा दिया था मैंने।  उलझन भरी नजरों से थोडा नाराजगी से कहा उसने , मुझे नहीं पता ये सब ! मुझे इस तरह का कोई प्रेम नहीं हुआ बस।  मैं उसे ही प्रेम मानती हूँ जो जिम्मेदारी बन जाता है।
वह कुछ जल्दी में थी उस दिन। जल्दी जाना था उसे।  उसके पति शहर से बाहर जा रहे थे कुछ दिन के लिए . उनके सामान की पैकिंग करनी थी और भी घर के कुछ काम भी।  मुझे हैरानी हुई कि उसका पति उसकी कजिन के विवाह में अकेला ही जा रहा था।
कमाल है ! कजिन तुम्हारी है और पति तुम्हारा जा रहा है शादी में।  तुम क्यों नहीं जा रही।
मैं नहीं जा सकती। कम से कम एक सप्ताह लगेगा . बच्चों की पढाई का नुकसान होगा। वह कुछ उदास सी थी।
ऐसा भी क्या कि बच्चों को कुछ दिन की छुट्टी नहीं दिला सकती।
एक्जाम होने वाले है उनके कुछ दिनों में ही।
हाँ , मगर इसमें क्या हुआ ! तुम अपने सास ससुर के पास छोड़ सकती हो बच्चों को।
नहीं छोड़ सकती , वे नहीं आते हमारे घर !
मैंने उसकी ओर गौर से देखा तो वह एकदम से गड़बड़ा गयी .
मेरा मतलब है कि बच्चे कभी रहे नहीं है अकेले  इसलिए नहीं छोड़ सकती उनको कहीं।
वह कुछ नहीं बोली।  मगर मैं चाहता था कुछ कहे वह ! क्यों नहीं जाना चाहती है वह , क्यों नहीं जा सकती है !!
बस नहीं जा सकती , काफी है तुम्हारे लिए।
मुझे पता चल गया क्यों नहीं जाना चाहती हो तुम।  उसके जाने के बाद एक सप्ताह पार्क में मुझसे मिलने ज्यादा देर आ सकोगी … उसे खीझा कर बुलवाने का हुनर मैं सीख गया था !
खिझी बहुत अधिक वह मगर बोली कुछ और ही।
मैं तुम्हारा सर फोड़ दूँगी।
हा हा हा , मेरे सर तक तुम्हारा हाथ पहुचेगा भी  !! मैं सीधा तन कर खडा हो गया।  वह मेरे कंधे से भी छोटी थी।
मुझे बात ही नहीं करनी है तुमसे और उस दिन वह  नाराज होकर पैर पटकते चली गयी।

वह सचमुच नाराज हो गयी थी।  उस पूरे एक सप्ताह वह पार्क में आई ही नहीं . मैं पहली बार थोडा बेचैन हुआ। किससे पूछूं उसके बारे में।  आस पास खेलते बच्चों से , या आइसक्रीम वाले से।  मैं नहीं जानता था कहाँ रहती है वह . कभी मैंने पूछा नहीं . कभी उसने बताया भी नहीं। पहली बार मैंने सोचा ! कई बार उठ कर उन बच्चों के बीच गया मगर कदम फिर फिर कर लौट आते।  क्या पूछूं बच्चों से  , क्या कहेंगे बच्चे ! कौन थी वह जिसके बारे में मैं जानना चाह रहा था।  पता नहीं  कौन क्या सोचेगा . मैं चुप ही बैठा रहा मगर मुझे बेचैनी होती रही। इस बार मुझे खुद पर भी गुस्सा आ रहा था . मैंने उसे उदास देखा था कुछ परेशान भी और मैंने उसे चिढाना जारी रखा था . मुझे नहीं करना चाहिए था ऐसा .

क्यों नहीं आई वह ! सब ठीक तो है या हो सकता है वह भी अपने पति और बच्चों के साथ चली गयी हो विवाह में।  या कही मुझसे सचमुच नाराज तो नहीं हो गयी है।  ईश्वर जानता था मैंने सिर्फ उसे खिझाने के लिए ही कहा था।  जब कभी वह अनमनी नजर आती या अधिक चुप रहती नजर आती मैं जानबूझकर कुछ ऐसा कहता कि उसे गुस्सा आ जाये और चिल्लाते हुए लड़ पड़ती और लड़ते हुए उदासियाँ उस ज्वालामुखी चेहरे के डर के मारे दुबकी रहती . लड़ते हुए ही जाने कब मुस्कुराने भी लगती।   मुझे उसे मुस्कुराते देखना बहुत अच्छा लगता था।  मैं टटोलता हूँ खुद को , उसे ही क्यों , मुझे सबको मुस्कुराते देखना अच्छा लगता है।

उस पूरे सप्ताह मुझे बहुत अकेलापन लगा।  गलत है यह . मैं खुद को धिक्कारता था।  मैं सब बन्धनों से छूट चूका हूँ , मुझे किसी को याद नहीं करना ., याद नहीं आना है।  मगर क्या सचमुच छूटा जा सकता था !!
 मैं याद करता था उस मनहूस दोपहर को जिसने मेरी जिंदगी का रुख बदल दिया था।  हलकी सर्दी के दिन उस पार्क की बेंच पर धूप का टुकड़ा मुझे आकर सहलाता रहा . मैं याद करता रहा जो मैं भूल जाना चाहता था , मगर भूला नहीं था।
सैनिकों के जीवन में छुट्टियाँ उनकी पूरी एक उम्र होती है।  कब जाने कौन सी छुट्टी उनके जीवन की आखिरी हो जाए , उस छुट्टी के बाद कभी लौट नहीं पाए जीवन। हर जवान जी लेना चाहता है उन पलों को यादगार लम्हों की तरह। अचानक घर जाकर निशा को चौंका देना चाहा था मैंने . मगर उससे पहले ढेर सारी खरीददारी करनी थी मुझे . लाल किनारे वाली सफ़ेद साडी  बंगला साहित्य को सनक तक पसंद करने वाली निशा . बहुत भाता था उसे उसी बंगला स्टाईल में साडी पहनना , उसके लम्बे बालों और बड़ी आँखों के बीच चेहरे की बड़ी बिंदी उसे ठेठ बंगाली लुक देती थी . कई बार यकीन करना मुश्किल हो जाता कि वह बंगाल से नहीं थी , बंगाली नहीं थी .  "आमी तुमाको भालो वासी " दुकानदार ने चौंक कर देखा था मेरी ओर . सेल्सगर्ल द्वारा खोल कर दिखाई जाने वाली साडी में जाने कब निशा आ खड़ी हुई थी . सेल्सगर्ल ने भी पूछा,  कुछ कहा आपने सर!,
हाँ हाँ वो .... इस साडी को पैक कर दो . मैं घबरा गया था . क्या सोचा होगा उन लोगों ने . कैसी चुभती अर्थपूर्ण निगाहें थी दुकानदार की मगर सेल्सगर्ल बहुत प्यारी संजीदा सी लड़की थी.
 वह समझ गयी थी ,"सर , मैम पर बहुत जचेगी यह साडी , अच्छी पसंद है आपकी !"
घर परिवार से दूर रहने वाले जाने कितने पथिक घर की उड़ान भरने से पहले यहाँ भटकते आ जाते होंगे . माँ , बहन, पत्नी,  प्रेयसी के लिए कुछ उपहार में खरीदते उनकी आँखों को पढना सीख जाती है ये बालाएं . कई बार उनसे सलाह भी ले लेते हैं जैसे अपनी पसंद से दे दीजिये बहन को क्या अच्छा लगेगा ... क्या ले जाना चाहिए माँ के लिए , प्रेयसी को कौन सा रंग सुहाएगा . अनजान दुनिया के कुछ पल के साथी जाने पहचाने अपनों के लिए किस अपनेपन से जुट जाते हैं . ना , सिर्फ व्यापार या मजबूरी नहीं . उनके चेहरे की नम आत्मीयता बेगानों में भी संवेदनाओं के बचे होने की पूरी गारंटी देती हैं . और जब अपनी नन्ही परी  तृषा के लिए परियों वाली ड्रेस और गुडिया सिंड्रेला लेते तो जैसे वात्सल्य का समन्दर उछाले भरता उनकी ममता को सहलाते रहा .
मेरी नन्ही परी , आ रहा हूँ मैं !  फोन पर अपनी तुतलाती जुबान में जाने क्या सुनाती रहती थी .  उसकी माँ से ही जान पाता था कि कभी वह लोरी सुना रही होती है तो कभी मम्मा की शिकायत . उस दिन उसकी प्यारी शरारतें बताते सुनते हम दोनों के गले भर आये थे . कागज़ पेन लेकर बैठी उसकी तृषा अपने पिता को ख़त लिख रही थी . उसकी माँ का सिखाया गीत गाते.
पापा , जल्दी आ जाना . अच्छी सी गुडिया लाना .

4 टिप्‍पणियां:

  1. क्या कहूँ.... कभी -कभी लगता है कि वह क्या था जो हमसे इतना लिखवा लेता था/है!!
    लंबा लिखने की आदत ऐसी छूटी कि यह कहानी अधूरी ही लिखी रह गई है. या तो ध्यान केंद्रित नहीं होता या फिर इस कहानी का दूसरा सिरा भूला हुआ है....
    मगर सच में अपना लिखा पढ़ा आपकी नजर से तो कहानी अधूरी होकर भी बहुत रोचक लगी...
    आभार और बहुत सारा प्यार Rashmi Prabha जी ..😘

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  2. एक और सुन्दर मील का पत्थर यात्रा का।

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  3. सच कह रही हो वाणी लिखना तो दूर अब लम्बी पोस्ट पढ़ी भी नही जाती कितनी ही कहानियां अधुरी है
    सुंदर यात्रा

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