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मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

अरे हम क्या कर सकते हैं




घबराहट सी होने लगी है
पढ़ते और लिखते हुए
 .... 
अरे हम क्या कर सकते हैं !
कुछ नहीं कर सकते !

डर लगता है रास्तों पर !!

जहां जाना है 
जहां से घर लौटना है
सब कुशलता से हो 
रक्षा मन्त्र ही पढ़ती रहती हूँ ...

नहीं सुनना मुझे कोई चीख
अपनी दबी चीखें क्या कम थीं 
या हैं।?
जो चीखों के मध्य बैठ जाऊँ   !

हर चेहरा भयानक लगता है 
सारे के सारे रास्ते 
अवरुद्ध लगते हैं 
अपनेपन की खुशबू जाने कब 
कहाँ 
खत्म हो गई !
 दरवाज़े पर घण्टी बजती है
तो खोलने से पहले रूह कांपती है
सतर्क हो जाती हूँ 
.... चेहरे को एक नहीं
कई बार धोती हूँ
कहीं भूले से भी किसी लकीर में
जाति धर्म झलकें 
और कोई पढ़ ले !

मुझे खुद नहीं पता
मेरी जाति क्या है
मेरा धर्म क्या है !
बचपन से जो सुना 
वह बस यूं ही कहा गया
अब जाना है अच्छी तरह
कि बार बार वही दुहराया जाता है
जिस बात पर यकीं न हो
"हिन्दू,मुस्लिम,सिक्ख,ईसाई
आपस में हैं भाई-भाई"
कोई किसी का कुछ भी नहीं 
कुछ भी नहीं ... 

अजनबियों के देश में
हर कदम पर डर लगता है !
घर के दरवाजे बंद
गाड़ी के शीशे बन्द 
. अकेले चलते हुए 
बहुत डर लगता है
खुद अपना चेहरा भी 
अपना अपना नहीं लगता
बड़ा अजीब
डरा डरा सा लगता है
बच्चे को कोई प्यार से देखता है 
छूने को हाथ बढ़ाता है 
तो शक़ दबोच लेता है गला 
... 
किसी आधार कार्ड में 
चरित्र की पहचान नहीं 
दुर्घटना के बाद 
पुलिस,कोर्ट,सज़ा  ... 
जिसे जाना था वो गया
और सजा तब,
जब उसका कोई अर्थ नहीं रहा  
... 
खैर,
दो फांसी 
कोई एक शैतान तो कम हो जाए 
!!!


आदत या अधिकार
तुम्हें पंसद थी आज़ादी
और मुझे स्थिरता
तुम्हें विस्तार
मुझे सिमटना
तुम
अंतरिक्ष में हवाओं में
मैदानों में पहाड़ों पर
कविता लिखते रहे
मैं
नयनों पर इश्क़ पर
मेहदीं पर सिंदूर पर
भाग्य सराहती रही
तुम देहरी के बाहर हरापन उगाते रहे
मैं आँगन के पेड़ों को पहचानती रही
बातें आदत की थी या अधिकारों की
खूँटे हम दोनों के थे
फ़र्क़ सिर्फ रस्सी की लम्बाई में थे

5 टिप्‍पणियां:

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