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रविवार, 7 जनवरी 2018

सोचती हूँ




धैर्य मेरी मुंडेर पर भी रहता है 
पर सही ढंग से बेतकल्लुफ होना मुझे नहीं आया - 
जब तुम्हें चंद स्पष्ट शब्दों के साथ टहलते हुए 
बढ़ते देखती हूँ 
तो .... अच्छा लगता है 
सोचती हूँ
कुछ बेतकल्लुफी उधार ले लूँ तुमसे
दोगे ?
मुस्कुराओ मत
मुझे पता है
तुम्हारी साँसों में दर्द का आना-जाना है
आश्चर्य मत करो - मैंने कैसे जाना !
जाहिर सी बात है
गम पे धूल वही डालते हैं
जो गम की बारीकी से गुजरते हैं


जिंदगी हमें आज़माती रही और हम भी उसे आज़माते रहे ...


नमन तुम्हें मैया गंगे
गिरिराज तुम्हारे आनन को
छूती हैं रवि रश्मियाँ प्रथम
सहला कर धीरे से तुमको 
करती हैं तुम्हारा अभिनन्दन
उनकी इस स्नेहिल उष्मा से
बहती है नित जो जलधारा
वह धरती पर नीचे आकर
करती है जन जन को पावन !

9 टिप्‍पणियां:

  1. वाह , आभार सहित कि आपको रचना पसंद आयी !

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  2. ग़ज़ब सोचती हैं आप। धैर्य तो मुंडेर के पास होता ही है।

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  3. बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति

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  4. सुन्दर सार्थक सूत्रों का संकलन आज का बुलेटिन !! मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार रश्मि प्रभा जी !

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  5. क्या खूब उकेरा है दर्द की लकीरों को वो भी  इतने सहज शब्दों मे

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  6. क्या खूब उकेरा है दर्द की लकीरों को वो भी  इतने सहज शब्दों मे

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