भावनाओं के घने वृक्ष
और मैं
सारी थकान मिट जाती है
दूर दूर तक फैली ज़िन्दगी दिखाई देती है
ज़िन्दगी को सुनती हूँ
आँखों में भरती हूँ
इस संजीवनी के बारे में जितना कहूँ
कम ही होगा ...
एक वटवृक्ष फेसबुक से - https://www.facebook.com/ krishna.kalpit
बुरे दिन
जब अच्छे दिन आ जायेंगे
तब बुरे दिन कहाँ जायेंगे
तब बुरे दिन कहाँ जायेंगे
क्या वे किसानों की तरह पेड़ों से लटककर आत्महत्या कर लेंगे या किसी नदी में डूब जायेंगे या रेल की पटरियों पर कट जायेंगे
नहीं, बुरे दिन कहीं नहीं जायेंगे
यहीं रहेंगे हमारे आसपास
अच्छे दिनों के इन्तिज़ार में नुक्कड़ पर ताश खेलते हुये
यहीं रहेंगे हमारे आसपास
अच्छे दिनों के इन्तिज़ार में नुक्कड़ पर ताश खेलते हुये
बुरे दिन ज़िंदा रहेंगे
पताका बीड़ी पीते हुये
पताका बीड़ी पीते हुये
बुरे दिनों के बग़ैर यह दुनिया बरबाद हो जायेगी
लगभग नष्टप्राय लगभग आभाहीन लगभग निष्प्रभ
लगभग नष्टप्राय लगभग आभाहीन लगभग निष्प्रभ
बुरे दिनों से ही
दुनिया में यह झिलमिल है, अभागो !
दुनिया में यह झिलमिल है, अभागो !
कविता एकमात्र कला है दुनिया में
जैसे कोई बाघ डुकर रहा हो
कोई हाथी चिंघाड़ता हो
शेर दहाड़ रहा हो जैसे
कोई हिरण कुलाँचे भरता हो
कभी सुना है ध्रुवपद
जैसे किसी निर्जन में सांय सांय सन्नाटा
इसके बाद गिरता है कोमल-ध्रुपद का कलरव
और पखावज
जैसे कुमैत-अश्वों की टोली हो दौड़ती हुई टप टप
संगीत मनुष्य से जानवर बनने की कला है
जंगली-जानवर वन्य-जीव बेख़ौफ़-स्वतन्त्र-उन्मुक्त
ध्यान से सुनो नारद ऋषि की बात
मयूर षड़ज में बोलता है
गायें ऋषभ में रंभाती हैं
सारस मध्यम में बोलता है
बकरी गंधार में
कोयल पंचम सुर में कूकती है
घोड़ा धैवत में धावता है
और हाथी निषाद में
जितने भी राग मनुष्य ने बनाये
वह उनसे अच्छा जानवर गा सकते हैं
सुर साधने से पहले
जंगली बेर खाना मत भूलना
जो जितना जानवर होगा उतना बड़ा गायक होगा
कविता एकमात्र कला है दुनिया में
जिसके लिये मनुष्य होना ज़रूरी होता है !
(१)
मैं एक अधूरे उपन्यास की पाण्डुलिपि हूँ
मैं एक अधूरे उपन्यास की पाण्डुलिपि हूँ
अठारवाँ शहर और सैंतीसवाँ घर छोड़ते हुये यह पाण्डुलिपि मुझे किताबों के बोझ से दबी फिर नज़र आई जबकि अब मुझे इससे नफ़रत-सी हो चली है जिसके पन्ने पीले पड़ गये हैं गत्ता फट गया है और जिसे मैं पिछले बत्तीस बरसों से किसी गुप्त दस्तावेज़ की तरह छिपाये हुये शहर-दर-शहर घूम रहा हूँ
यह पाण्डुलिपि फाड़ कर फेंकी भी नहीं जाती
आख़िर जितनी भी कमज़ोर है मेरी अपनी ज़िंदगी है
आख़िर जितनी भी कमज़ोर है मेरी अपनी ज़िंदगी है
(२)
इस उपन्यास का प्रथम अध्याय १९९० में जयपुर के अशोक मार्ग स्थित ओ-आठ नंबर के घर के ऑउट-हॉउस में बारिश के दिनों में लिखा गया था और मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं दरवाज़ा खोलकर अपनी लकड़ी की संदूकची पर काग़ज़ रखकर पूरी तल्लीनता से लिखता रहता था तो कमरे में मोर घुस आते थे
इस उपन्यास का प्रथम अध्याय १९९० में जयपुर के अशोक मार्ग स्थित ओ-आठ नंबर के घर के ऑउट-हॉउस में बारिश के दिनों में लिखा गया था और मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं दरवाज़ा खोलकर अपनी लकड़ी की संदूकची पर काग़ज़ रखकर पूरी तल्लीनता से लिखता रहता था तो कमरे में मोर घुस आते थे
एक मोरपँख अभी भी इस पुरानी पाण्डुलिपि में फँसा हुआ है
(३)
जितने पूरे हुये
उससे अधिक अधूरे उपन्यास हैं दुनिया में
जितने पूरे हुये
उससे अधिक अधूरे उपन्यास हैं दुनिया में
जितनीं लिखी गईं
उससे अधिक कहानियाँ बिखरी हुई हैं संसार में
उससे अधिक कहानियाँ बिखरी हुई हैं संसार में
(४)
बहुत अविस्मरणीय किस्से कहानियाँ आख्यान लिखे गये
लेकिन हिंदी में अभी नया उपन्यास लिखा जाना बाक़ी है
बहुत अविस्मरणीय किस्से कहानियाँ आख्यान लिखे गये
लेकिन हिंदी में अभी नया उपन्यास लिखा जाना बाक़ी है
(५)
उपन्यास फ़ुटपाथ पर पैदल चलने की कला है
उपन्यास फ़ुटपाथ पर पैदल चलने की कला है
(६)
सात क़दम धीरज से चलना होता है
सात क़दम धीरज से चलना होता है
उसके बाद
आठवाँ घर उपन्यास का है
आठवाँ घर उपन्यास का है
(७)
मैं कविता के कंटकाकीर्ण पथ पर लहू-लुहान होता रहा
जबकि मुझे धँसना था गद्य-गह्वर में
मैं कविता के कंटकाकीर्ण पथ पर लहू-लुहान होता रहा
जबकि मुझे धँसना था गद्य-गह्वर में
जब तक जीवन है तब तक बची रहती है आस
बचा रहता है अधूरा उपन्यास !
बहुत ही सुंदर और प्रभावशाली.
जवाब देंहटाएंरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
वाह बहुत कुछ है रूहानी ।
जवाब देंहटाएंसम्पूर्ण कुछ भी नहीं इस संसार में ....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
SUNDAR....
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