पंखुडी
शब्द - एक कविता ,एक कहानी या जिंदगानी ?
दिल को जब दर्द हुआ और आँखें उसे निकाल न पायी तब वो थमे आँसू बन गए मेरे शब्द. दिल को जब खुशी हुई पर हँसी काफी न थी उसे जाहिर करने के लिए तो निकले मेरे शब्द.जब किसी और को दर्द हुआ,करना चाहती थी उसके लिए कुछ और कर न पायी तो निकले मेरे शब्द.जब भी मुझे जरूरत हुई एक साथी की तब तब साथ दिए मेरे शब्द."
!! तल्खियों से, कड़वाहटों से कहीं कोई खिड़की बंद तो नहीं !!
न बारिश
न सूरज
न तपन
न सिहरन
सिर्फ़ काले बादल
बेरंग आकाश
जैसे ज़िंदगी से ऊबा आदमी
ले रहा बस भर साँस
अजीब-सा मौसम
गमगीन-सा मौसम
आँखों से होठों तक आए
नमकीन-सा मौसम
जैसे अभी-अभी किसी को
कोई अपना छोड़ के गया
जैसे अभी-अभी कोई शोर
सुंदर सपना तोड़ के गया
छूटन का, बिछड़न का
तन्हा-सा अहसास
पेड़, पत्ते, बादल
सब लग रहे थे उदास
ये मौसम दिख रहा था
खिड़की से बाहर
मैं बैठी थी बंद शीशे के
भीतर कहीं अंदर
यूँ ही उठकर मैंने
ज्योंहि खिड़की खोल दी
शीतल-सी एक बयार आयी
जो अंदर तक कुछ घोल गयी
सारी टूटन, घुटन सब
बह गये शीतलता के संग
बारिश व सूरज से सूनी साँझ
दिखाने लगी कितने ही रंग
मौसम मनभावन हो गया
मन मेरा सावन हो गया
अंदर तक पावन हो गया
सबकुछ सुहावन हो गया
ऐसे ही अक्सर हम ख़ुद को
बंद खिड़कियों के भीतर पाते हैं
घूटते रहते हैं, टूटते रहते हैं
कभी संभलते कभी बिखर जाते हैं
शीशे की दीवार-सी कुंठा
ज़िंदगी औ हमारे बीच आ जाती है
बरसती रहती हैं ख़ुशियाँ पर
ज़िंदगी सूखी-सूखी रह जाती है
बारिश, सूरज, बादल
सबकी अपनी-अपनी भूमिका है
ये सब जीवन के चित्रपट की
अलग-अलग तूलिका है
ज़िंदगी कभी ऐसी नही होती
कि सिर्फ़ उसमें थकावट हो
हर पल एक नयापन लाता
ठहर के सुने पल की आहट वो
तल्खियों से, कड़वाहटों से
कहीं कोई खिड़की बंद तो नहीं
हवाओं की तरह खड़ी हैं ख़ुशियाँ
उसके आने का रास्ता तंग तो नहीं
!! सच्ची थी या झूठी थी पर ज़िंदगी वही अच्छी थी !!
नयी कापी, कलम, पेंसिल, औजारबॉक्स पढ़ने-लिखने का जो भी सामान नया था वो रात को ही सरस्वती माँ के सामने रख दिया था। एक-दूसरे की नजर बचा एक़बार तो सबने ही अपनी कापी और सबसे ऊपर रखी थी ताकि जब कल सरस्वती माता की आँखों से कपड़ा हटाया जाए तो सबसे पहले वे उसकी कापी देखे। किसी-किसी ने तो सबसे मुश्किल लगने वाले विषय की किताब भी रख दी थी कि सरस्वती माता इसे थोड़ा आसान बना देंगी।
वैसे माँ की आँखें तो कल पूजा के समय खोली जायेंगी पर आज भी उन्हें अकेला नही छोड़ा जा सकता। इसलिए सारे बच्चे चादर बिछा वही लुढ़क गए। सुबह बिना किसी के उठाए सबकी आखें भी खुल गयी। नहा-धोकर आज सबको ही पीला नहीं तो सफेद पहनना था। सरस्वती माँ को ख़ुश करने का ऐसा मौक़ा बार-बार नही आता। वो भी ऐसी माँ जो ख़ुश हो जाए तो माँ, पापा, स्कूल, घर हर जगह की ठुकाई से छुटकारा दिला दें। इसलिए कुछ भी ऐसा नही करना था कि मौका हाथ से चूक जाए।
छोटी बच्चियों को तो माँ ने पीली फ़्रॉक पहना दी। बड़ी लड़कियों में से किसी ने माँ-भाभी की साड़ी तो किसी ने पीला या सफेद सूट पहन लिया। लड़के तो हमेशा सफेद कुर्ता ही पहनते और साथ में पजामा। उससमय पूजा-पाठ में जींस माँ पहनने नहीं देती थी। वैसे स्कूल के बच्चों के पास होती में नहीं थी। ग़लती से किसी शहरवाले मामा-चाचा ने दी भी होती तो माँ उसे संभालकर पता नही किस तहख़ाने में रखती थी।
बच्चे ही नही घर में सब जल्दी नहा-धोकर तैयार हो जाते। दादी पूजा में समझाती और माँ रसोई में पुआ-खीर बनाने लग जाती। कुछ लड़कियाँ सारे फलों को धोकर काटती, हाँ बेर का फल नही काटा जाता। बेर माँ के भोग और बच्चों के प्रसाद का सबसे ज़रूरी हिस्सा होता। मानो माँ ने सारी विद्या उसी में भर दी है। जिसे बेर नही मिल पाता मानो वो मोक्ष से वंचित रह गया। प्रसाद के लिए बुनिया तो पापा घर पर ही हलवाई से बनवा देते थे। वैसे बाजार में भी पूजा के लिए सफाई से बनाया जाता था पर दादी का मन नहीं मानता था।
हरबार बाबा पूजा के लिए मिट्टी की छोटी मूर्ति मँगवा देते थे। मूर्ति क्या,लगता था जैसे अब माँ बोल पड़ेंगी। कितना कमाल है न कि जिस मूर्ति की पूजा कर पढ़े-लिखे लोग विद्या माँगते हैं उसे सजीव बनानेवाला मूर्तिकार अनपढ़ होता था। कम-से-कम हमारे गाँव में तो ऐसा ही था।
सारी तैयारी हो चुकी थी। धूप, अगरबत्ती, फूल, प्रसाद, गुलाल पूजा की सारी सामग्री तैयार थी बस अब पंडित जी का इंतजार था। पूजा पर बैठने के लिए भी सब तैयार थे। वैसे तो पूजा पर एक जने को ही बैठना था पर पूरे पंद्रह दिनों के संग्राम के बाद यह निर्णय लिया गया था कि जो सबसे बड़ा है वो आगे आसनी पर बैठेगा पर उसके पीछे कम्बल पर सारे बच्चे भी बैठेंगे। वो भी सारे मंत्र और बाक़ी विधि-विधान में उतने ही हक़ से हिस्सा लेंगे। बच्चों की टोली भी तैयार थी। पंडित जी आए और भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ जी की गति से पूजा कराने लगे। सिर्फ़ हमारा घर ही नहीं था उन्हें पचास जगह और भी जाना था। माँ की आँखों से पट्टी हटायी गयी। सबने जयकारा लगाया। सही में बोल रही थी आँखें। पढ़ रही थी हमें उनकी आँखें। उनकी आँखों में देख ऐसा लग रहा था कि वे सिर्फ़ मुझे ही देख रही है। पुचकार रही हैं। पता नही सजीवता उनकी आँखों में थी या हमारे मन में। माँ की आँखों से दुलार पा ही रहे थे कि पंडित जी ने शंख बजा पूजा समाप्ति की घोषणा कर दी।
सबसे पहले पंडित जी को प्रसाद पाने का आग्रह किया गया पर उन्होंने मना कर दिया। अब वे भी क्या करे एक पेट और इतने घरों में आग्रह। इसलिए उनका प्रसाद बाँध दिया गया दक्षिणा के साथ।
पूरा दालान भर गया था। आस-पास के बच्चे, बूढ़े सब आ गए थे। बच्चे सबको प्रसाद देने लगे। वैसे प्रसाद देना एक़बार में ख़त्म नहीं होता था क्योंकि पूरे दिन कोई-न-कोई माँ के दर्शन करने और प्रसाद लेने आता ही रहता था। इसमें न देनेवाले को कोई परेशानी थी न लेनेवाले को कोई झिझक। जब भीड़ खत्म-सी हो गयी तो दादी ने सब बच्चों को माँ का चढ़ाया गुलाल लगाया क्योंकि आज से होली की भी शुरुआत हो जाती है। सबको प्रसाद देकर दादी उन्हें खाने के लिए आँगन में भेज देती तब तक सरस्वती माँ के पास वो ही बैठती। एक तो माँ अकेली न रहे और दूसरा कि कोई बिना प्रसाद लिए न लौट जाए।
किसी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था तो भूख वैसे भी तेज़ लगी थी उसपर इतने सारे पकवान बने थे। सबने छककर खाया, पुआ, पूरी, सब्ज़ी, चावल, दाल, कढ़ी, पकौड़े,चटनी और भी जाने कितनी चीजें। पर हाँ, खीर तो नमकीन खाना खत्म के बाद ही दिया जाता क्योंकि बाबा कहते थे कि नमक के साथ दूध नहीं खाना चाहिए, ज़हर बन जाता है।
गाते, बजाते, हँसते, बतियाते दिन बीत गया। हाँ, इसबीच अखंड दीप में घी ख़त्म न हो जाए इसका सबने पूरा ध्यान रखा था। यह अखंड दीप विसर्जन के समय तक जलना होता है। इसका बीच में बुझ जाना अच्छा नहीं माना जाता।
आज रात तो कोई भी बच्चा नहीं सोया। एकदिन सोओ और ज़िंदगी भर रोओ इससे क्या फ़ायदा। इसी रात में तो सरस्वती जी सारी विद्या देनेवाली थी तो कोई कैसे सो सकता था। जगने के लिए सब अंताक्षरी खेल रहे थे लेकिन आज की अंताक्षरी में कोई फ़िल्मी गाना नही गाया जाता। हाँ भजन टाइप गाना हो तो चलेगा। नहीं तो कविता, भजन, मीरा-सूर के पद, रहीम-कबीर के दोहे, रामचरितमानस की चौपाइयाँ यह सब होता।
सुबह-सुबह फिर सब नहा कर तैयार थे पर आज सफेद या पीले कपड़ों की मरामारी नहीं थी। आज तो उलटे सबने पुराने कपड़े पहने थे और सफेद तो बिल्कुल ही नहीं। विसर्जन के समय ऐसी होली मचनी थी कि वो कपड़ा दुबारा शायद होली में ही पहन पाए। पंडित जी ने विसर्जन की पूजा सम्पन्न कर दी। बड़े ही उत्साह से सब माँ को लेकर छोटी नदी के पास गए। पर मूर्ति का विसर्जन करना बड़ा मुश्किल हो रहा था क्योंकि दो दिन पहले की मूर्ति अब माँ बन चुकी थी। अगले साल आने की प्रार्थना कर विसर्जन कर दिया गया मूर्ति का, माँ का।
घर आकर किसी को अच्छा नहीं लग रहा था। सूना-सूना लग रहा था तभी जब बाबा के जाने के बाद मूर्ति के बदले सरस्वती जी की एक बड़ी-सी शीशे की फ़्रेम वाली फ़ोटो मँगवा दी गयी पूजा के लिए तो किसी ने विरोध नही किया। शायद सुकून था कि इन्हें विसर्जित नही करना पड़ेगा।
विसर्जन के बाद आकर सबके सब सो गए। जब उठे तब जाकर सबने पूजा घर से अपनी-अपनी कापी, कलम, औजारबॉक्स, पेंसिल जिसका जो सामान था ले आए। सबने संभाल के रख लिए। अब ये सिर्फ़ सामान नही थे ये आशीर्वाद थे। इन कापी-कलम पर कोई लिखता नहीं। ख़त्म हो जाता इसलिए। पूजा की कलम से परीक्षा में ही लिखा जाता था। कापी में तो सरस्वती जी और अपने नाम के अलावा कभी कुछ नही लिखा जाता।
सच्ची थी या झूठी थी , जो भी थी पर ज़िंदगी तो वही अच्छी थी। जब फ़रवरी महीना सरस्वती पूजा के लिए होता था चौदह फ़रवरी भर के लिए नहीं।
सुन्दर प्रस्तुति उम्दा चयन।
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