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शुक्रवार, 30 जून 2017

मेरी रूहानी यात्रा ... ब्लॉग से अर्चना तिवारी




अर्चना तिवारी
सुंदर अँधेरा वन है सघन, मैंने दिया स्वयं को वचन, चिरनिद्रा न आये अभी, करना है कोसों दूर गमन....

कोसों दूर चलना है 
तुम्हें भी 
मुझे भी 
कहीं होंगी छोटी छोटी कहानियाँ 
कहीं बिखरी होगी नज़्म 
दूब पर बैठी होंगी कवितायेँ ओस सी 
उठो 
शब्द भावों का सूर्योदय देखो - 



उड़न परी : लघुकथा


“ममा, मैं सलवार-कुर्ता नहीं पहनूँगी, मुझे गर्मी लगती है इसमें।” दस साल की आहना ने ठुनककर कहा।

“बेटा ज़िद्द नहीं करते, जल्दी से पहन लो, रमा आंटी के यहाँ पार्टी में चलना है। अगर हम देर से जायेंगे तो उन्हें बुरा लगेगा।” शिखा ने बेटी को प्यार से समझाया।

“नहीं, मुझे नहीं जाना पार्टी-शार्टी में, मेरी सब फ्रेंड्स फ़्राक, स्कर्ट पहनती हैं, आप मुझे सिर्फ सलवार-कुर्ता पहनने को कहती हो । वे सब पार्क में खेलती हैं, आप मुझे वहाँ भी नहीं जाने देती हो, क्यों?” आज आहना के सब्र का बाँध जैसे टूट पड़ा था।

“क्योंकि तुम सलवार-कुर्ते में इतनी प्यारी लगती हो कि पूछो मत, रमा आंटी ने भी कल मुझसे यही कहा।” बेटी को बहलाते हुए शिखा बोली।

“एकदम झूठ !” आहना ने माँ की बात को समझते हुए, अपनी नाराज़गी को छुपाते हुए कहा।

“एकदम सच्ची।” अपने गले को चुटकी से पकड़ते हुए शिखा ने कहा। फिर दोनों खिलखिला पड़ीं।

लेकिन शिखा के चेहरे से साफ़ झलक रहा था कि उसके अंदर भीषण संग्राम छिड़ा हुआ है। शादी के तीसरे साल पति की अचानक मृत्यु और फिर छः साल की आहना के साथ दूर के रिश्तेदार के उस दुर्व्यवहार ने उसे झिंझोड़ डाला था। जैसे-जैसे आहना बड़ी हो रही थी उसके मन का भय दिन-ब-दिन उसे और जकड़ता जा रहा था। वह उसे हर तरह से दुनिया की नजरों से दूर, ढक-मूँदकर रखना चाहती थी। यही सब सोचकर वह आहना के खेलने-कूदने, पहनने-ओढ़ने पर पाबंदियाँ लगाती जा रही थी। अक्सर उसके साथ काम करने वाली सहेलियाँ भी उस पर पिछड़ी, दकियानूसी होने का आरोप लगातीं, किन्तु वह सब हँसी में उड़ा देती थी। हालाँकि कभी-कभी तो उसे स्वयं लगता कि वह अपने हाथों से अपनी मासूम बच्ची का गला घोंट रही है।

अचानक शिखा की तन्द्रा टूटी। वे पार्टी में पहुँच गए थे। वहाँ बड़ी रौनक थी। खुले वातावरण में मधुर संगीत और बेला की सुगंध, मन, मस्तिष्क दोनों को ताज़गी प्रदान कर रहे थे। रमा ने आहना और शिखा का स्वागत किया। अपनी बेटी वैष्णवी से मिलवाया। आधुनिक लिबास में वैष्णवी एक परी जैसी लग रही थी। उसे देख शिखा जैसे मन्त्रमुग्ध सी हो गई। वह वैष्णवी के रूप में आहना की कल्पना करने लगी और फिर अचानक ही उस भयावह हादसे की याद से सिहर उठी।

तभी मंच पर पार्टी आरम्भ होने की घोषणा के साथ रमा और वैष्णवी से केक काटने का अनुरोध किया गया। दोनों ने मिलकर केक काटा, सारा लॉन तालियों से गूँज उठा।

रमा ने माइक पर कहा, “देवियों और सज्जनों, मैं आप सभी का अभिवादन करती हूँ। मुझे यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि मेरी बेटी वैष्णवी ने आई. पी. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। वह अपने जीवन में इसी तरह सफल होती रहे, आप उसे आशीर्वाद प्रदान करें।”

तभी आगे बढ़कर वैष्णवी ने माँ के हाथ से माइक ले लिया और बोली, “लेकिन मैं आज जिस मुकाम पर हूँ, उस तक पहुँचाने के लिए मेरी माँ ने बहुत कष्ट सहे। बाधाओं और समाज की तमाम वर्जनाओं से मुकाबला करते हुए मेरी हर ख्वाहिश पूरी की। आज मैं आप सबको बताना चाहती हूँ कि जब मैं आठ बरस की थी तब एक ऐसे हादसे का शिकार हुई जिसे हमारा समाज किसी लड़की के जीवन को समाप्त करने के लिए पर्याप्त मानता है। लेकिन मेरी माँ ने मुझे उस अन्धकार से निकाला, कैसे, यह मैं अब भी समझने की कोशिश कर रही हूँ।....माफ करना माँ, मैंने आपकी डायरी पढ़ ली है...... ।’’ कहते हुए उसका गला रुँध गया।

पार्टी में एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया, और अगले ही क्षण तालियाँ गड़गड़ा उठीं। वैष्णवी अपनी माँ से लिपट गई। वहां मौजूद लगभग सभी की आँखें भीग गईं। और शिखा तो जैसे सुन्न ही पड़ गई। लेकिन अगले ही पल जैसे उसने कोई प्रण कर लिया था। वह आहना को गले लगाते हुए बोली, “कल हम अपनी आहना के लिए ढेर सारी फ़्राक और स्कर्ट्स लेने चलेंगे।”

“सच्ची ममा !” आहना का चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा। वह दुपट्टे को हाथ में फैलाकर ऐसे दौड़ने लगी जैसे वह उड़ान भरने जा रही हो।


जिंदगी हर सुबह की


ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह
रोज़मर्रा के काम जल्दी-जल्दी निपटाना
तैयार हो काम के लिए निकलना
ठीक स्कूटर निकालते वक़्त
एक स्कूल की वैन का घर के सामने रुकना
ड्राइवर का मुझे निकलते हुए देखना
बच्चों का खिड़की से झाँकना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।

घर से निकलते ही
कुछ दूरी पर छड़ी लिए एक बुज़ुर्ग का मिलना
चौराहे पर बस के इंतज़ार में खड़े
रोज़ाना उन्हीं चेहरों का दिखना
बगल से सर्राटा स्कूल बसों का निकलना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।

वही शहीद पथ, वही फ़्लाईओवर
वही बाईं ओर उगते सूरज का दिखना
वही रेलिंग, वही पंछियों के जोड़ों का बैठना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।

कोने वाली वही अंडे-दूध-ब्रेड की गुमटी
साईकिल पर जाते वही स्कूली बच्चे
झोपड़ी के बाहर सड़क के किनारे बैठे
कटोरे में चाय पीते फैन खाते बच्चे
पास ही कुत्तों के झुण्ड को
कूदते फाँदते देखना फिर अचानक
उनका स्कूटर के आगे आ जाना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।

वही उबड़-खाबड़ खड़न्जों का रास्ता
पानी के गड्ढों को पार कर
स्कूल पहुंचना
गुडमॉर्निंग की आवाज़ों का स्वागत करना
भागते हुए अंदर जाना
निगाह दीवार घड़ी की सात दस की सुइयों से टकराना
रजिस्टर पर पड़े वही बिना ढक्कन के पेन का होना
साइन करना और एक साँस में सीढियाँ चढ़ जाना
और स्टाफरूम में जाकर बैठ जाना
एक घूँट पानी गले से उतारना
और साँसों में स्फूर्ति का भर जाना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।

सोचती हूँ इन्हें शब्दों के डिब्बों में बंद कर लूँ
ताकि जब कभी जीवन अकेला सा लगे
हाथों से छूटता सा लगे
तो खोल कर बाहर निकाल लूँ इन खुशनुमा पलों को
फिर से अपने अंदर स्फूर्ति भरने के लिए
जीवन के बचे हुए सफ़र को तय करने के लिए
ताकि ये रहें हमेशा मेरे साथ, मेरे बाद।

गुरुवार, 29 जून 2017

सांख्यिकी दिवस और पीसी महालनोबिस - ब्लॉग बुलेटिन

नमस्कार साथियो,
प्रतिवर्ष 29 जून को सांख्यिकी दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस दिन देश के प्रसिद्द वैज्ञानिक और सांख्यिकीविद प्रशांत चंद्र महालनोबिस का जन्म 1893 को कोलकाता में हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा उनके दादा गुरु चरन महालनोबिस द्वारा स्थापित ब्रह्मो ब्वायज स्कूल में हुई. प्रेसीडेंसी कालेज से भौतिकी में आनर्स करने के बाद वे उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए लंदन चले गए. वहां उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से भौतिकी और गणित विषयों से डिग्री प्राप्त की. ये एकमात्र छात्र थे जिनको भौतिकी में पहला स्थान प्राप्त हुआ था. उन्होंने अपने शिक्षक के कहने पर बायोमेट्रिका नामक किताब पढ़ी. इसे पढ़ने के बाद उनका रुझान सांख्यिकी की ओर हुआ. उन्होंने इस दिशा में सबसे पहला काम कालेज के परीक्षा परिणामों का साख्यिकीय माध्यम से विश्लेषण करने का किया. इसमें उन्हें सफलता भी मिली. इसके बाद महालनोबिस ने जुलोजिकल एंड एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया के निदेशक नेल्सन अन्नाडेल के कहने पर कोलकाता के ऐंग्लो इंडियंस के बारे में एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण किया. इस विश्लेषण का जो परिणाम आया वह भारत में सांख्यिकी का पहला शोध-पत्र कहा जाता है.


प्रशान्त चन्द्र महालनोबिस का सबसे बड़ा योगदान उनके द्वारा शुरु किया गया सैंपल सर्वे है. जिसके आधार पर आज बड़ी-बड़ी नीतियां और योजनाएं बनाई जा रही हैं. उनके द्वारा सुझाई गयी एक सांख्यिकीय माप को महालनोबिस दूरी के नाम से जाना जाता है. वे चाहते थे कि सांख्यिकी का उपयोग देशहित में हो. इसी कारण से उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं के निर्माण में अहम भूमिका निभाई. 17 दिसंबर 1931 को उनका सपना साकार हुआ जबकि कोलकाता में भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना की गई. आज कोलकाता के अलावा इस संस्थान की शाखाएं दिल्ली, बैंगलोर, हैदराबाद, पुणे, कोयंबटूर, चेन्नई, गिरिडीह सहित देश के दस स्थानों में हैं. सन 1959 में भारतीय सांख्यिकी संस्थान को राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया गया. प्रोफेसर महालनोबिस को 1957 में अंतर्राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान का सम्मानित अध्यक्ष बनाया गया. भारत सरकार ने 1959 में प्रोफेसर प्रशान्त चन्द्र महालनोबिस को पद्म विभूषण से सम्मानित किया. उन्हें ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा 1944 में वेलडन मेडल पुरस्कार दिया गया था तथा 1945 में रॉयल सोसायटी ने उन्हें अपना फेलो नियुक्त किया गया था.

प्रोफेसर प्रशांत चंद्र महालनोबिस एक दूरद्रष्टा भी थे. उन्हें विज्ञान में ब्यूरोक्रेसी पसंद नहीं थी. उन्हें अपने संस्थान से काफ़ी लगाव था और वे इसे एक स्वतंत्र संस्था के रूप में देखना चाहते थे. जब 1971 में इस संस्थान से जुड़े अधिकांश लोगों ने सरकार के साथ जाने का फैसला किया तो उन्हें आंतरिक कष्ट हुआ. वे इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके और 28 जून, 1972 को उनका देहांत हो गया. आर्थिक योजना और सांख्‍यि‍की विकास के क्षेत्र में प्रशांत चन्‍द्र महालनोबिस के उल्‍लेखनीय योगदान के सम्‍मान में भारत सरकार उनके जन्‍मदिन 29 जून को प्रतिवर्ष सांख्यिकी दिवस के रूप में मनाती है. इसका उद्देश्‍य सामाजिक-आर्थिक नियोजन और नीति निर्धारण में प्रो. महालनोबिस की भूमिका के बारे में जनता में, विशेषकर युवा पीढ़ी में जागरूकता लाना तथा उन्‍हें प्रेरित करना है.

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बुधवार, 28 जून 2017

जन्म दिवस - पी. वी. नरसिंह राव और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा नमस्कार। 
Narsing-Rao.jpg
पामुलापति वेंकट नरसिंह राव (अंग्रेज़ी: Pamulaparti Venkata Narasimha Rao, जन्म- 28 जून, 1921, मृत्यु- 23 दिसम्बर, 2004) भारत के नौवें प्रधानमंत्री के रूप में जाने जाते हैं। इनके प्रधानमंत्री बनने में भाग्य का बहुत बड़ा हाथ रहा। 29 मई, 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गई थी। ऐसे में सहानुभूति की लहर के कारण कांग्रेस को निश्चय ही लाभ प्राप्त हुआ। 1991 के आम चुनाव दो चरणों में हुए। प्रथम चरण के चुनाव राजीव गांधी की हत्या से पूर्व हुए थे और द्वितीय चरण के चुनाव उनकी हत्या के बाद। प्रथम चरण की तुलना में द्वितीय चरण के चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा। इसका प्रमुख कारण राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर थी। इस चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हुआ, लेकिन वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। कांग्रेस ने 232 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। फिर नरसिम्हा राव को कांग्रेस संसदीय दल का नेतृत्व प्रदान किया गया। ऐसे में उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश किया। सरकार अल्पमत में थी, लेकिन कांग्रेस ने बहुमत साबित करने के लायक़ सांसद जुटा लिए और कांग्रेस सरकार ने पाँच वर्ष का अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूर्ण किया।

पी. वी. नरसिम्हा राव का जन्म 28 जून, 1921 को आंध्र प्रदेश के वांगरा ग्राम करीम नागर में हुआ था। राव का पूरा नाम परबमुल पार्थी वेंकट नरसिम्हा राव था। इन्हें पूरे नाम से बहुत कम लोग ही जानते थे। इनके पिता का नाम पी. रंगा था। नरसिम्हा राव ने उस्मानिया विश्वविद्यालय तथा नागपुर और मुम्बई विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने विधि संकाय में स्नातक तथा स्नातकोत्तर की उपाधियाँ प्राप्त कीं। इनकी पत्नी का निधन इनके जीवन काल में ही हो गया था। वह तीन पुत्रों तथा चार पुत्रियों के पिता बने थे। पी. वी. नरसिम्हा राव विभिन्न अभिरुचियों वाले इंसान थे। वह संगीत, सिनेमा और थियेटर अत्यन्त पसन्द करते थे। उनको भारतीय संस्कृति और दर्शन में काफ़ी रुचि थी। इन्हें काल्पनिक लेखन भी पसन्द था। वह प्राय: राजनीतिक समीक्षाएँ भी करते थे। नरसिम्हा राव एक अच्छे भाषा विद्वानी भी थे। उन्होंने तेलुगु और हिन्दी में कविताएँ भी लिखी थीं। समग्र रूप से इन्हें साहित्य में भी काफ़ी रुचि थी। उन्होंने तेलुगु उपन्यास का हिन्दी में तथा मराठी भाषा की कृतियों का अनुवाद तेलुगु में किया था।

नरसिम्हा राव में कई प्रकार की प्रतिभाएँ थीं। उन्होंने छद्म नाम से कई कृतियाँ लिखीं। अमेरिकन विश्वविद्यालय में व्याख्यान दिया और पश्चिमी जर्मनी में राजनीति एवं राजनीतिक सम्बन्धों को सराहनीय ढंग से उदघाटित किया। नरसिम्हा राव ने द्विमासिक पत्रिका का सम्पादन भी किया। मानव अधिकारों से सम्बन्धित इस पत्रिका का नाम 'काकतिया' था। ऐसा माना जाता है कि इन्हें राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की 17 भाषाओं का ज्ञान था तथा भाषाएँ सीखने का जुनून था। वह स्पेनिश और फ़्राँसीसी भाषाएँ भी बोल व लिख सकते थे।


आज भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और भारत में उदारीकरण के जनक श्री पी. वी. नरसिंह राव जी के 96वें जन्मदिवस पर हम सब उनके कार्यों और योगदान को स्मरण करते हुए उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते है। सादर।।


~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~ 















आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर ... अभिनन्दन।।  

मंगलवार, 27 जून 2017

मेरी रूहानी यात्रा ... ब्लॉग से




पंखुडी

शब्द - एक कविता ,एक कहानी या जिंदगानी ?


दिल को जब दर्द हुआ और आँखें उसे निकाल न पायी तब वो थमे आँसू बन गए मेरे शब्द. दिल को जब खुशी हुई पर हँसी काफी न थी उसे जाहिर करने के लिए तो निकले मेरे शब्द.जब किसी और को दर्द हुआ,करना चाहती थी उसके लिए कुछ और कर न पायी तो निकले मेरे शब्द.जब भी मुझे जरूरत हुई एक साथी की तब तब साथ दिए मेरे शब्द."


!! तल्खियों से, कड़वाहटों से कहीं कोई खिड़की बंद तो नहीं !!


न बारिश
न सूरज
न तपन
न सिहरन

सिर्फ़ काले बादल
बेरंग आकाश
जैसे ज़िंदगी से ऊबा आदमी
ले रहा बस भर साँस 

अजीब-सा मौसम
गमगीन-सा मौसम
आँखों से होठों तक आए
नमकीन-सा मौसम

जैसे अभी-अभी किसी को
कोई अपना छोड़ के गया
जैसे अभी-अभी कोई  शोर
सुंदर सपना तोड़ के गया

छूटन का, बिछड़न का
तन्हा-सा अहसास
पेड़, पत्ते, बादल
सब लग रहे थे उदास

ये मौसम दिख रहा था
खिड़की से बाहर
मैं बैठी थी बंद शीशे के
भीतर कहीं अंदर

यूँ ही उठकर मैंने
ज्योंहि खिड़की खोल दी
शीतल-सी एक बयार आयी
जो अंदर तक कुछ घोल गयी

सारी टूटन, घुटन सब
बह गये शीतलता के संग
बारिश व सूरज से सूनी साँझ
दिखाने लगी कितने ही रंग


मौसम मनभावन हो गया
मन मेरा  सावन हो गया
अंदर तक पावन हो गया
सबकुछ सुहावन हो गया


ऐसे ही अक्सर हम ख़ुद को
बंद खिड़कियों के भीतर पाते हैं
घूटते रहते हैं, टूटते रहते हैं
कभी संभलते कभी बिखर जाते हैं

शीशे की दीवार-सी कुंठा
ज़िंदगी औ हमारे बीच आ जाती है
बरसती रहती हैं ख़ुशियाँ पर
ज़िंदगी सूखी-सूखी रह जाती है

बारिश, सूरज, बादल
सबकी अपनी-अपनी भूमिका है
ये सब जीवन के चित्रपट की
अलग-अलग तूलिका है

ज़िंदगी कभी ऐसी नही होती
कि सिर्फ़ उसमें थकावट हो
हर पल एक नयापन लाता
ठहर के सुने पल की आहट वो

तल्खियों से, कड़वाहटों से
कहीं कोई खिड़की बंद तो नहीं
हवाओं की तरह खड़ी हैं ख़ुशियाँ
उसके आने का रास्ता तंग तो नहीं



!! सच्ची थी या झूठी थी पर ज़िंदगी वही अच्छी थी !!



नयी कापी, कलम, पेंसिल, औजारबॉक्स पढ़ने-लिखने का जो भी सामान नया था वो रात को ही सरस्वती माँ के सामने रख दिया था। एक-दूसरे की नजर बचा एक़बार तो सबने ही अपनी कापी और सबसे ऊपर रखी थी ताकि जब कल सरस्वती माता की आँखों से कपड़ा हटाया जाए तो सबसे पहले वे उसकी कापी देखे। किसी-किसी ने तो सबसे मुश्किल लगने वाले विषय की किताब भी रख दी थी कि सरस्वती माता इसे थोड़ा आसान बना देंगी।

वैसे माँ की आँखें तो कल पूजा के समय खोली जायेंगी पर आज भी उन्हें अकेला नही छोड़ा जा सकता। इसलिए सारे बच्चे चादर बिछा वही लुढ़क गए। सुबह बिना किसी के उठाए सबकी आखें भी खुल गयी। नहा-धोकर आज सबको ही पीला नहीं तो सफेद पहनना था। सरस्वती माँ को ख़ुश करने का ऐसा मौक़ा बार-बार नही आता। वो भी ऐसी माँ जो ख़ुश हो जाए तो माँ, पापा, स्कूल, घर हर जगह की ठुकाई से छुटकारा दिला दें। इसलिए कुछ भी ऐसा नही करना था कि मौका हाथ से चूक जाए।

छोटी बच्चियों को तो माँ ने पीली फ़्रॉक पहना दी। बड़ी लड़कियों में से किसी ने माँ-भाभी की साड़ी तो किसी ने पीला या सफेद सूट पहन लिया। लड़के तो हमेशा सफेद कुर्ता ही पहनते और साथ में पजामा। उससमय पूजा-पाठ में जींस माँ पहनने नहीं देती थी। वैसे स्कूल के बच्चों के पास होती में नहीं थी। ग़लती से किसी शहरवाले मामा-चाचा ने दी भी होती तो माँ उसे संभालकर पता नही किस तहख़ाने में रखती थी।

बच्चे ही नही घर में सब जल्दी नहा-धोकर तैयार हो जाते। दादी पूजा में समझाती और माँ रसोई में पुआ-खीर बनाने लग जाती। कुछ लड़कियाँ सारे फलों को धोकर काटती, हाँ बेर का फल नही काटा जाता। बेर माँ के भोग और बच्चों के प्रसाद का सबसे ज़रूरी हिस्सा होता। मानो माँ ने सारी विद्या उसी में भर दी है। जिसे बेर नही मिल पाता मानो वो मोक्ष से वंचित रह गया। प्रसाद के लिए बुनिया तो पापा घर पर ही हलवाई से बनवा देते थे। वैसे बाजार में भी पूजा के लिए सफाई से बनाया जाता था पर दादी का मन नहीं मानता था।

हरबार बाबा पूजा के लिए मिट्टी की छोटी मूर्ति मँगवा देते थे। मूर्ति क्या,लगता था जैसे अब माँ बोल पड़ेंगी। कितना कमाल है न कि जिस मूर्ति की पूजा कर पढ़े-लिखे लोग विद्या माँगते हैं उसे सजीव बनानेवाला मूर्तिकार अनपढ़ होता था। कम-से-कम हमारे गाँव में तो ऐसा ही था।

सारी तैयारी हो चुकी थी। धूप, अगरबत्ती, फूल, प्रसाद, गुलाल पूजा की सारी सामग्री तैयार थी बस अब पंडित जी का इंतजार था। पूजा पर बैठने के लिए भी सब तैयार थे। वैसे तो पूजा पर एक जने को ही बैठना था पर पूरे पंद्रह दिनों के संग्राम के बाद यह निर्णय लिया गया था कि जो सबसे बड़ा है वो आगे आसनी पर बैठेगा पर उसके पीछे कम्बल पर सारे बच्चे भी बैठेंगे। वो भी सारे मंत्र और बाक़ी विधि-विधान में उतने ही हक़ से हिस्सा लेंगे। बच्चों की टोली भी तैयार थी। पंडित जी आए और  भगवान विष्णु  के वाहन गरुड़ जी की गति से पूजा कराने लगे। सिर्फ़ हमारा घर ही नहीं था उन्हें पचास जगह और भी जाना था। माँ की आँखों से पट्टी हटायी गयी। सबने जयकारा लगाया। सही में बोल रही थी आँखें। पढ़ रही थी हमें उनकी आँखें। उनकी आँखों में देख ऐसा लग रहा था कि वे सिर्फ़ मुझे ही देख रही है। पुचकार रही हैं। पता नही सजीवता उनकी आँखों में थी या हमारे मन में। माँ की आँखों से दुलार पा ही रहे थे कि पंडित जी ने शंख बजा पूजा समाप्ति की घोषणा कर दी।

सबसे पहले पंडित जी को प्रसाद पाने का आग्रह किया गया पर उन्होंने मना कर दिया। अब वे भी क्या करे एक पेट और इतने घरों में आग्रह। इसलिए उनका प्रसाद बाँध दिया गया दक्षिणा के साथ।

पूरा दालान भर गया था। आस-पास के बच्चे, बूढ़े सब आ गए थे। बच्चे सबको प्रसाद देने लगे। वैसे प्रसाद देना एक़बार में ख़त्म नहीं होता था क्योंकि पूरे दिन कोई-न-कोई माँ के दर्शन करने और प्रसाद लेने आता ही रहता था। इसमें न देनेवाले को कोई परेशानी थी न लेनेवाले को कोई झिझक। जब भीड़ खत्म-सी हो गयी तो दादी ने सब बच्चों को माँ का चढ़ाया गुलाल लगाया क्योंकि आज से होली की भी शुरुआत हो जाती है। सबको प्रसाद देकर दादी उन्हें खाने के लिए आँगन में भेज देती तब तक सरस्वती माँ के पास वो ही बैठती। एक तो माँ अकेली न रहे और दूसरा कि कोई बिना प्रसाद लिए न लौट जाए।

किसी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था तो भूख वैसे भी तेज़ लगी थी उसपर इतने सारे पकवान बने थे। सबने छककर खाया, पुआ, पूरी, सब्ज़ी, चावल, दाल, कढ़ी, पकौड़े,चटनी और भी जाने कितनी चीजें। पर हाँ, खीर तो नमकीन खाना खत्म के बाद ही दिया जाता क्योंकि बाबा कहते थे कि नमक के साथ दूध नहीं खाना चाहिए, ज़हर बन जाता है।

गाते, बजाते, हँसते, बतियाते दिन बीत गया। हाँ, इसबीच अखंड दीप में घी ख़त्म न हो जाए इसका सबने पूरा ध्यान रखा था। यह अखंड दीप विसर्जन के समय तक जलना होता है। इसका बीच में बुझ जाना अच्छा नहीं माना जाता।

आज रात तो कोई भी बच्चा नहीं सोया। एकदिन सोओ और ज़िंदगी भर रोओ इससे क्या फ़ायदा। इसी रात में तो सरस्वती जी सारी विद्या देनेवाली थी तो कोई कैसे सो सकता था। जगने के लिए सब अंताक्षरी खेल रहे थे लेकिन आज की अंताक्षरी में कोई फ़िल्मी गाना नही गाया जाता। हाँ भजन टाइप गाना हो तो चलेगा। नहीं तो कविता, भजन, मीरा-सूर के पद, रहीम-कबीर के दोहे, रामचरितमानस की चौपाइयाँ यह सब होता।

सुबह-सुबह फिर सब नहा कर तैयार थे पर आज सफेद या पीले कपड़ों की मरामारी नहीं थी। आज तो उलटे सबने पुराने कपड़े पहने थे और सफेद तो बिल्कुल ही नहीं। विसर्जन के समय ऐसी होली मचनी थी कि वो कपड़ा दुबारा शायद होली में ही पहन पाए। पंडित जी ने विसर्जन की पूजा सम्पन्न कर दी। बड़े ही उत्साह से सब माँ को लेकर छोटी नदी के पास गए। पर मूर्ति का विसर्जन करना बड़ा मुश्किल हो रहा था क्योंकि दो दिन पहले की मूर्ति अब माँ बन चुकी थी। अगले साल आने की प्रार्थना कर विसर्जन कर दिया गया मूर्ति का, माँ का।

घर आकर किसी को अच्छा नहीं लग रहा था। सूना-सूना लग रहा था तभी जब बाबा के जाने के बाद मूर्ति के बदले  सरस्वती जी की एक बड़ी-सी शीशे की फ़्रेम वाली फ़ोटो मँगवा दी गयी पूजा के लिए तो किसी ने विरोध नही किया। शायद सुकून था कि इन्हें विसर्जित नही करना पड़ेगा।

विसर्जन के बाद आकर सबके सब सो गए। जब उठे तब जाकर सबने पूजा घर से अपनी-अपनी कापी, कलम, औजारबॉक्स, पेंसिल जिसका जो सामान था ले आए। सबने संभाल के रख लिए। अब ये सिर्फ़ सामान नही थे ये आशीर्वाद थे। इन कापी-कलम पर कोई लिखता नहीं। ख़त्म हो जाता इसलिए। पूजा की कलम से परीक्षा में ही लिखा जाता था। कापी में तो सरस्वती जी और अपने नाम के अलावा कभी कुछ नही लिखा जाता।

सच्ची थी या झूठी थी , जो भी थी पर ज़िंदगी तो वही अच्छी थी। जब फ़रवरी महीना सरस्वती पूजा के लिए होता था चौदह फ़रवरी भर के लिए नहीं।

सोमवार, 26 जून 2017

ईद मुबारक और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा नमस्कार।




समस्त देशवासियों को ईद मुबारक। ये ईद सभी देशवासियों के लिए ढेरों खुशियाँ लाएँ, बस इतना है। सादर।।

~ अब चलते हैं आज की बुलेटिन की ओर ~ 















आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर  ... अभिनन्दन।।

रविवार, 25 जून 2017

मेरी रूहानी यात्रा ... ब्लॉग से अनुपमा पाठक




"कुछ बातें हैं तर्क से परे...
कुछ बातें अनूठी है!
आज कैसे
अनायास आ गयी
मेरे आँगन में...
अरे! एक युग बीता...
कविता तो मुझसे रूठी है!!"

इन्हीं रूठी कविताओं का अनायास प्रकट हो आना,
"अनुशील...एक अनुपम यात्रा" को शुरुआत दे गया!  ... अनुपमा पाठक

अनुशील


कुछ लोग एहसासों के मामले में समंदर का विस्तार होते हैं, लहरों की तरह हम तक आते हैं, लौट जाते हैं - और हम उसे पकड़ने को दौड़ते हैं  ... घंटों उसके आगे गुजार देते हैं 


ध्येय चाहिए!


बहती रहे कविता 
सरिता की तरह
बने यह 
कई लोगों के लिए 
जुड़ने की वजह
मानव जीवन को 
और क्या 
श्रेय चाहिए!
जीने के लिए बस हमें
पावन एक 
ध्येय चाहिए!!

अकेले 
चले थे हम 
शब्दों की 
मशाल लेकर!
मिले राह में हमें
ऐसे भी लोग 
जो 
इस ठहराव में 
स्वयं 
गति की पहचान हैं;
सजाये शब्द हमने 
उनसे ही 
हौसलों की ताल लेकर!
इस ताल पे देखो अब 
कितने भाव नाच उठते हैं 
आपकी आवाज़ जुड़ी 
तो कितने ही छन्द 
स्वयं 
कविता से आ जुड़ते हैं; 
ऐसे ही चलें हम 
स्वच्छ मन 
और कुछ सवाल लेकर!
साथ 
अनेकानेक कड़ियाँ 
जुड़ती जाए 
और उत्तर की भी 
सम्भावना जन्मे; 
स्वस्थ विचारों का 
आदान प्रदान हो 
समझ की 
वृहद् थाल लेकर!
चलते 
चलें हम 
शब्दों की 
मशाल लेकर!

बहती रहे कविता 
सरिता की तरह
बने यह 
कई लोगों के लिए 
जुड़ने की वजह
मानव जीवन को 
और क्या 
श्रेय चाहिए!
जीने के लिए बस हमें
पावन एक 
ध्येय चाहिए!!


विस्मित हम!


कैसे जुड़ जाते हैं न मन!
कोई रिश्ता नहीं...
न कोई दृष्ट-अदृष्ट बंधन...
फिर भी 
तुम हमारे अपने,
और तुम्हारे अपने हम...

भावों का बादल सघन
बन कर बारिश,
कर जाता है नम...
उमड़ते-घुमड़ते 
कुछ पल के लिए
उलझन जाती है थम...

जुदा राहों पर चलने वाले राहियों का
जुदा जुदा होना,
है मात्र एक भरम...
एक ही तो हैं, 
आखिर एक ही परमात्म तत्व
समाहित किये है तेरा मेरा जीवन... 

भावातिरेक में 
कह जाते हैं...
जाने क्या क्या हम...
सोच सोच विस्मित है,
अपरिचय का तम....
कैसे जुड़ जाते हैं न मन!

कितना लिखना है, 
कितना लिख गयी...
और जाने 
क्या क्या लिखेगी...

ज़िन्दगी! तुम्हारी ही तो है न
ये कलम...!!!

शनिवार, 24 जून 2017

मेरी रूहानी यात्रा ... ब्लॉग से सुधीर त्रिपाठी




सुधीर 

"मैने देवभूमि उत्तराखन्ड के अल्मोडा जनपद के एक छोटे से गांव में जन्म पाया। जीवन के अनमोल बचपन, किशोरावस्था से युवा होने तक नैनीताल के छोटे से नगर हल्द्वानी को जिया। अगले दो साल दिल्ली के 'जिया सराय' में रहने का अवसर मिला, जहां यह देखा कि अवसर के अभाव में भी प्रतिभाएं कैसे पनपती हैं और यह सीखा कि हर ना चमकने वाली चीज भी हीरा हो सकती है। समय के प्रवाह के साथ बहते बहते विलायत आ पहुंचा। " 
........ 
बातें यहीं खत्म नहीं होतीं 
शायद बातें कभी नहीं खत्म होती 
कभी अपने नज़रिये से 
कभी दूसरों के नज़रिये से जन्म लेती रहती हैं  ... 

आज सुधीर त्रिपाठी का नज़रिया 

किस्से कहानी - blogger



डंडा कब बाजेगा?


एक धोबी था, और उसके पास एक कुत्ता और गधा था. धोबी प्रतिदिन गधे की पीठ में कपडे रखकर नदी किनारे ले जाता और धो कर वापस गधे की पीठ में रखकर वापस लाता. कुत्ते का काम धोबी की अनुपस्थिति में घर की रखवाली करना था.

एक शाम जब धोबी घर में आराम कर रहा था, तो बाहर कुत्ता और गधा आपस में बातकर रहे थे. गधा बोला कि यार कुत्ते! मैं तो अपने काम से तंग आ गया हूँ. प्रतिदिन कपडे ढो-ढो कर मेरी कमर टेढ़ी हो गयी है, एक दिन का भी आराम नहीं है. मन तो करता है कि कहीं दूर भाग जाऊं, और वहां जाकर दिन-रात बस सोता रहूँ. भाई! तेरा काम कितना अच्छा है, तू तो रोज घर में ही रहता है, तेरे मजे हैं यार.

यह सुनकर कुत्ता तोड़ा सा अचकचाया, और बोला कि, अबे गधे! दिन भर रस्सी से बंधा रहता हूँ, ना कहीं आ सकता हूँ ना कहीं जा सकता हूँ. ऊपर से हर आने-जाने वाले पर भौंकना पड़ता है. आस-पड़ोस के बच्चे आकर पत्त्थर अलग मारते हैं. अगल-बगल के सारे फालतू कुत्ते मिलकर, यहाँ-वहाँ घूमकर कितने मजे लेते हैं, और मेरी जवानी घर के इस कोने में बीत रही है. मन तो मेरा करता है कि किसी को भी पकड़ के फाड़ डालूँ.

गधा बोला, अरे कुत्ता भाई! क्रोधित क्यों होते हो, बाहर की दुनिया में कुछ नहीं रखा है. एक नदी है जहां सारे धोबी आकर नहाते हैं और कपडे भी धोते हैं. बस यही है दुनिया. मैं तो कहुं भैया घर की आधी रोटी भी भली.

कुत्ता बोला, बेटे! किसको गधा बना रहा है? सुबह शाम, मुझे भी आजादी मिलती है, थोडी देर जंगल जाकर फ्रेश होने की, किसी दिन मेरे साथ चल तो तुझे दुनिया दिखाता हूँ. वो तो मालिक डंडे बरसाता है, नहीं तो मैं तो रातभर घर नहीं आऊँ. क्या करूँ धोबी का कुत्ता हूँ, ना घर का घाट का.
तभी गधा बोला, देख भाई मेरे पास एक आईडिया है, क्यों ना हम अपना काम आपस में बदल लें. तुझे घर में रहना पसंद नहीं है और मुझे रोज काम पर जाना. कल से तू मालिक के कपडे लेकर नदी किनारे चले जाना और मैं यहाँ घर की रखवाली करूंगा. देख ऐसे तू भी खुश और में भी खुश. बोल क्या बोलता है?

कुत्ते को भी विचार उत्तम लगा, और बात पक्की हो गयी. अगले दिन पौ फटते ही धोबी के उठने से पहले कुत्ते ने धोबी के सारे कपडे एक-एक कर नदी किनारे ले जाने शुरू कर दिये. इस काम को करने में कुत्ते को गधे की तुलना में अधिक समय लग रहा था क्योकि वह एक-एक दो-दो कपडे मुंह में दबाकर नदी किनारे पहुंचा रहा था. कुत्ते ने सोचा की यदि मालिक नींद से उठ गया तो मुझे फिर से बाँध देगा और गधे को नदीं किनारे ले जाएगा. अत: जितनी जल्दी हो सके सारे कपडे नदी किनारे पहुंचा दूँ. और यदि धोबी इम्प्रेस हो गया तो फिर प्रतिदिन कपडे मैं ही ले कर जाउंगा और वह गधा दिन भर जंजीर में बंधा रहेगा. इस जल्दबाजी के चक्कर में कुछ कपड़े कुत्ते के दांतों में आकर फट  गये और कुछ ले जाते समय झाड़ियों में फंस कर चीथडे-चीथड़े हो गये.  

उधर जैसे ही गधे ने देखा की कुत्ते ने अपना काम पूरा कर दिया, उसने अपने मालिक को इम्प्रेस करने के लिए जोर–जोर से ‘ढेंचू-ढेंचू’ कर रेंकना आरम्भ कर दिया. मानो गधा यह दिखाना चाहता हो की वह कुत्ते से अच्छा भौंक सकता है और घर की अच्छी रखवाली कर सकता है. गधे को क्या पता कि भौंकने का भी समय और कारण होता है, उसने सोचा की भौंकना मतलब बिना रुके रेंकते रहना. अभी उजाला नहीं हुआ था और गधे ने ढेंचू-ढेंचू कर पूरी कालोनी में हाहाकार मचा दिया था.  
कान ढककर, गधे के चुप होने  का इंतज़ार कर रहा धोबी अंतत: आधी नींद में ही क्रुद्ध होकर उठा और फिर उसने एक मोटे डंडे से गधे की जमकर कुटाई की, जब तक कि गधा निढाल हो कर गिर ना पड़ा. उसके बाद धोबी ने जब इधर-उधर बिखरे कपड़े देखे तो उसी डंडे से कुत्ते की कुकुरगत की जिसने सारे कपडों का सत्यानाश कर दिया था.

तब से यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि, ‘’जिसका काम उसी को साजे, और करे तो डंडा बाजे’’. इसका अर्थ है की जिसको जो कार्य दिया गया है उसको उसी को ईमानदारी से पूरा करना चाहिये. यदि अपना काम को अधूरा छोड़कर दुसरे के काम में हाथ डालोगे तो डंडे ही पड़ेंगे.   

इस कहानी को कहने का उद्देश यह बताना था कि हमारे भारत देश में भी पिछले कुछ समय से यही हो रहा है. महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान व्यक्ति अपना काम छोड़ कर दूसरे काम को करने में अधिक आनंद लेते है. पहला उदाहरण हमारी पुलिस, जिसने सताए हुए लोगों की रक्षा करने के बजाय स्वयं ही असहाय जनता को सताना शुरू कर दिया. यदि यह बात सही नहीं है सोचिये क्यों आज आम आदमी पुलिस के नाम से डरता है?  जबकि पुलिस से चोर उच्चकों को डरना चाहिए, पर वे आज निर्भय हैं. बात बहुत छोटी लगती है लेकिन है बहुत गंभीर.      

दूसरा उदाहरण, नेता जिन्हें जनता की भलाई के लिए नियम क़ानून बनाने थे और देश का विकास करना था वे अपना कार्य छोड़कर अपना और अपना, अपने बेटे, बेटियों, भतीजे और भांजों का विकास करने में लगे हैं. राष्ट्र के नायक (प्रधानमंत्री), जिनको संसद में दहाड़ना था उन्होनें मौन व्रत धारण कर लिया. उत्तर प्रदेश की एक पूर्व मुख्मंत्री जिन्हें अपने राज्य में रोजगार और शिक्षा के नए अवसर खड़े करने थे, उन्होंने माली और मूर्तिकार का काम आरंभ कर दिया, और जनता का धन खड्या दिया (खड्डे में डालना) उपवन बनाने में और उसमें अपनी और हाथी की मूर्तियाँ लगाने में. वर्तमान मुखमंत्री ने जनता के पैसे से जनता को लेपटाप बंटवाने का काम शुरू कर दिया है. अरे भाई! कंप्यूटर कंपनियों के डिस्ट्रीब्यूटर हो या प्रदेश के मुख्यमंत्री. किसी ने सही ही कहा था कि जिन्हें गाय-बकरियां चरानी थी वो आज देश और प्रदेश चलाते हैं, यही मेरे भारत का दुर्भाग्य है.

कर्नाटक के एक मुख्मंत्री ने सारी खानें खोद डाली, तो कोयला मंत्री ने आव देखा ना ताव सारा कोयला, कोयले के दामों में बेच दिया. संचार मंत्री को सूचना लगी तो बोले कि मैं तो पीछे रह गया, उसने सारे स्पेक्ट्रम औने-पौने दामों में बेच दिये, और फिर जब किसी ने मौनी बाबा से प्रश्न पूछे तो बाबा बोले, कि मैं ईमानदार हूँ, इससे अधिक मैं कुछ नहीं जानता हूँ.      

जिन व्यक्तिओं को तिहाड के अन्दर होना था वो बाहर बैठे हैं और जो बाहर रहने लायक हैं, उन्हें अन्दर करने की जुगत निरंतर जारी है. जिन पत्रकारिता समूहों ने जनता को जागरुक करने के लिए समाचार चैनल खोले थे, अब वो अपना कार्य छोडकर अलग-अलग राजनीतिक शक्तियों के सम्मान गान जनता को सुनाते हैं. क्रिकेट खिलाड़ी, क्रिकेट अच्छा खेलें या नहीं परन्तु सामान बेचना खूब जानते हैं.

ना फिल्में अच्छी नहीं बन रही हैं और ना देश सही से चल रहा है, क्योंकि नेता और अभिनेता दोनों क्रिकेट में, और क्रिकेटर सट्टेबाजी में व्यस्त हैं.  दोयम दर्जे की विदेशी अभिनेत्रियाँ भारतीय फिल्मों में प्रथम दर्जे में अभिनय कर रही हैं और प्रथम श्रेणी की भारतीय अभिनेत्रियाँ तृतीय श्रेणी के कार्यों में लगी हैं. देश के युवा आई पी एल  देख रहे हैं, कुछ फेसबुक से खेल रहे हैं, और बांकी बचे हुए ‘बिग-बाँस’ देख रहे हैं.

जिन अपराधियों की विशेषज्ञता दादागिरी, हत्याएं, बलात्कार और चोर-बाजारी में थी, वो आज अपना काम छोड़कर संसद में बैठकर, जनता के लिये योजनाएं और नियम कानून बनाते हैं, और जो लोग देश का भला करना चाहते हैं वो जंतर-मंतर, रामलीला मैदान या फिर इंडिया गेट में देखे जाते हैं.

इसके विपरीत जो व्यक्ति अपना काम ईमानदारी से पूरा करना चाहता है, उसे दूसरा काम दे दिया जाता है, यदि इसे भी ईमानदारी से करे तो तीसरा काम दे दिया जाता है, मतलब ट्रांसफर कर दिया जाता है.   

स्थिति बड़ी विकट है, किसी भी ओर देख लीजिये  हर कोई अपना काम छोड़कर दुसरे का काम, और दूसरा, तीसरे का काम कर रहा है, पर पता नहीं हे भगवान! ये डंडा कब बाजेगा?  



आज़ादी ही कुछ और है (व्यंग्य कविता)


रोज दफ्तरों के चक्कर लगाने की 
चपरासी को भी ‘सर’ कह कर बुलाने की 
अंततः जेब गरम कर के काम करवाने की 
फिर भी ईमानदार भारतीय कहलाने की
आज़ादी ही कुछ और है|१

काला धन कमाने की
खाने में जहर मिलाने की 
बेईमान को सीना तान के चलने की
ईमानदार हो? तो डर के रहने की  
आज़ादी ही कुछ और है|२

कन्या भ्रूण हत्या की
महिला के यौन शोषण की
सामूहिक बलात्कार करने की
और फिर बहन से राखी बंधवाने की 
आज़ादी ही कुछ और है|३

पेट में चाकू भौंकने की
चेहरे को तेज़ाब से छोंकने की
चलते को दिन दहाड़े लूटने की 
और लुटते पिटते को शान्ति से देखने की 
आज़ादी ही कुछ और है|४

पानी मोटर से खींचने की 
बिजली का मीटर रोकने की
घर का कूड़ा सड़क पर फेंकने की
और फिर सरकार को कोसने की 
आज़ादी ही कुछ और है|५

पंचायत बिठाने की 
प्रेमियों को लटकाने की 
बहु से दहेज मंगाने की 
नहीं तो शमशान तक पहुंचाने की
आज़ादी ही कुछ और है|६

भ्रष्टाचार करने की
गलत देख मूक बनने की
बिना टिकट यात्रा करने की
फिर विंडो सीट के लिए झगड़ने की 
आज़ादी ही कुछ और है|७

पैसे से काम करवाने की 
नकली डिग्रियां बंटवाने की
वोट के बदले नोट दिलवाने की 
और फिर भी माननीय कहलाने की 
आज़ादी ही कुछ और है|८

गरीब को भूखे पेट सोने की
बाल-मजदूरी पर रोने की
नदियों में गंदगी मिलाने की 
और फिर गंगा स्नान के लिए जाने की
आज़ादी ही कुछ और है|९

जंगलों को अंधाधुन्ध काटने की 
अपनों को रेवड़ी बांटने की
सच्चे को फंसाने, और झूठे को बचाने की
फिर कलियुग पर दोष लगाने की 
आज़ादी ही कुछ और है|१०

अपनी बीबी को कोसने की 
पडोसन के बारे में सोचने की
घर से निकलते ही घूरने की 
घर में बीबी-बच्चों को पीटने की 
आज़ादी ही कुछ और है|११

महिला सीट पर बैठने की
चलती गाडी से कूदने की 
पान खा के थूकने की
और दीवार पे मूतने की
आज़ादी ही कुछ और है|१२

शुक्रवार, 23 जून 2017

मेरी रूहानी यात्रा ... ब्लॉग से उमेश पंत




Blog - Gullak - पहला पन्ना - Gullak


तस्वीरें बहुत कुछ कहती हैं 
बुलाती हैं अपने पास - बहुत कुछ सुनाने को 
तो चलते हैं न  ... 


खोई हुई एक चीज़


कविता
यहीं कहीं तो रख्खी थी

दिल के पलंग पर
यादों के सिरहाने के नीचे  शायद
या फिर वक्त की
जंग लगी अलमारी के ऊपर

तनहाई की मेज पे या फिर
उदासियों की मुड़ी तुड़ी चादर के नीचे ?
यहीं कहीं तो रख्खी थी

कुछ तो रखकर भूल गया हूं
आंखिर क्या था
ये भी याद नहीं आता

कई दिनों से ढूंढ रहा हूं
वो बेनाम सी ,बेरंग
और बेशक्ल सी कोई चीज़

ऐसी चींजें खोकर वापस मिलती हैं क्या ?

एक-दूजे की ज़िंदगी में
हम दोनों भी ऐसी ही खोई हुई एक चीज़ हैं न ?

मैं फिर भी कोशिश करता हूं
तुम तो अब ढूंढना भी शायद भूल गई हो



ट्रेन के छूटने का वक्त


कुछ रिश्ते
जैसे बहुत जल्दी बहुत पास आ जाते हैं
आते हैं लेकर
जरा सी फिक्र, जरा सा प्यार, जरा जरा अपनापन भी

कुछ रिश्ते जैसे उन एक दिन के मेहमानों के से होते हैं
जिनको छोड़ आते हैं हम स्टेशन
जो चढ चुके होते हैं ट्रेन में
जिनसे कह चुके होते हैं हम अलविदा
ना चाहने के बावजूद हो चुका होता है
जिनकी ट्रेन के छूटने का वक्त
घुल जाता है हथेली की रेखाओं में कहीं
जिनके हाथों का स्पर्श
रह जाती है आंखो में अलविदा कहती मुस्कान
छूट जाती हैं पीछे दो खाली पटरियां
तकती हुई जिनकी वापसी की राह

कुछ रिश्ते
जैसे बहुत जल्दी दूर चले जाते हैं
छोड़ जाते हैं पीछे
जरा सी कसक, जरा सा इंतजार, जरा जरा अधूरापन भी


गुरुवार, 22 जून 2017

मेरी रूहानी यात्रा ... ब्लॉग से वंदना अवस्थी





वन्दना अवस्थी दुबे



कुछ खास नहीं....वक्त के साथ चलने की कोशिश कर रही हूं.........

मैं वक़्त हूँ 
देखता हूँ कोशिशों को 
थाम लेता हूँ उन कहानियों को 
उन एहसासों को 
जो समंदर होने का दम रखती हैं  ... 
जो मेरे साथ चले, वह समंदर है - जो निःसंदेह खारा है तो मीठा भी, चखो तो हर बार 

किस्सा-कहानी


क्या फ़र्क पड़ता है ?
===============

सर्दियों की
गुनगुनी धूप सेंकतीं औरतें,
उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
किसी घोटाले से,
करोड़ों के घोटाले से,
या उससे भी ज़्यादा के.
गर्मियों की दोपहर में
गपियाती ,
फ़ुरसत से एड़ियां रगड़ती औरतें,
वे नहीं जानतीं
ओबामा और ओसामा के बीच का फ़र्क,
जानना भी नहीं चाहतीं.
उन्हें उत्तेजित नहीं करता
अन्ना का अनशन पर बैठना,
या लोगों का रैली निकालना.
किसी घोटाले के पर्दाफ़ाश होने
या किसी मिशन में
एक आतंकी के मारे जाने से
उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है?
या किसी को भी क्या फ़र्क पड़ता है?
ये कि अब आतंकी नहीं होंगे?
कि अब भ्रष्टाचार नहीं होगा?
कि अब घोटाले नहीं होंगे?
इसीलिये क्या फ़र्क पड़ता है,
यदि चंद औरतें
देश-दुनिया की खबरों में
दिलचस्पी न लें तो?
कम स कम इस मुग़ालते में तो हैं,
कि सब कुछ कितना अच्छा है!


प्रिया की डायरी
===========


"प्रिया...रूमाल कहां रख दिये? एक भी नहीं मिल रहा."
" अरे! मेरा चश्मा कहाँ है? कहा रख दिया उठा के?"
" टेबल पर मेरी एक फ़ाइल रखी थी, कहाँ रख दी सहेज के?"
दौड़ के रूमाल दिया प्रिया ने.
गिरते-पड़ते चश्मा पकड़ाया प्रिया ने.
सामने रखी फ़ाइल उठा के दी प्रिया ने.
" ये क्या बना के रख दिया? पता नहीं क्या करती रहती हो तुम? कायदे का नाश्ता तक बना के नहीं दे सकतीं...."
रुआंसी हो आई प्रिया.

अनंत के ऑफ़िस जाते ही धम्म से सोफ़े पर बैठ गई . सुबह पांच बजे से शुरु होने वाली प्रिया की भाग-दौड़, अनन्त के ऑफ़िस जाने के बाद ही थमती थी. सुबह अलार्म बजते ही प्रिया बिस्तर छोड़ देती है. आंखें बाद में खोलती है, चाय पहले चढा देती है. उसके बाद दोनों बच्चों का टिफ़िन बनाने, यूनिफ़ॉर्म पहनाने,बस स्टॉप तक
छोड़ने, फिर अनन्त की तमाम ज़रूरतें पूरी करने उन्हें ऑफ़िस भेजने में नौ कब बज जाते, पता ही नहीं चलता. सुबह से प्रिय को चाय तक पीने का समय नहीं मिलता. नौ बजे प्रिया आराम से बैठ के चाय पीती है.

फिर शुरु होता सफ़ाई का काम. बच्चों का कमरा, अपना कमरा, ड्रॉंइंग रूम सब व्यवस्थित करती. साथ ही कपड़ा धुलाई भी चलती रहती. नहाते और खाना बनाते उसे एक बज जाता. फ़ुर्सत की सांस ले, उससे पहले ही बच्चों के आने का टाइम हो जाता, और स्टॉप की तरफ़ भागती प्रिया. दोनों बच्चों के कपड़े बदलते, खाना खिलाते-खिलाते ही अनन्त के आने का समय हो जाता. अनन्त का लंच दो बजे होता है.उन्हें खाना दे, खुद खाने बैठती. अनन्त के जाने के बाद पूरा किचन समेटती, बर्तन ख़ाली करती,घड़ी तब तक साढ़े तीन बजाने लगती.

थोड़ी देर आराम करने की सोचती है प्रिया. अभी बिस्तर पर लेटी ही थी कि फोन घनघनाने लगा. रोज़ ही ऐसा होता है. कई बार तो बस टेलीफोन कम्पनियों के ही फोन होते हैं, लेकिन उठ के जाना तो पड़ता ही है न! कई बार सोचती है प्रिया, कि लैंड लाइन फोन कटवा दे, लेकिन बस सोचती ही है.

पाँच कब बज जाते हैं, उसे पता ही नहीं चलता. पाँच बजते ही फिर काम शुरु. बच्चों को दूध दिया, अपने लिये चाय बनाई. बच्चों को सामने वाले पार्क में खेलने भेज के खुद रात के खाने की तैयारी शुरु कर देती
है. अभी तैयारी कर के न रक्खे, तो बच्चों को पढाये कब? साढ़े छह बजे बच्चों को पढाने बैठती. उनका होमवर्क या टैस्ट जो भी होता, उसके तैयारी करवाती.साढ़े सात बजे अनन्त आ जाते. आते ही नहाते और पेपर ले के टी.वी. के सामने बैठ जाते. बच्चों का शोर पसंद नहीं उन्हें. बच्चे शोर करते तो झल्लाते प्रिया के ऊपर, जैसे इसके पीछे प्रिया का हाथ हो!

कभी बच्चों का झगड़ा निपटवाती , तो कभी रसोई में सब्जी चलाती , हलकान हो जाती है प्रिया.
रात का खाना होते , बच्चों को सुलाते , किचेन समेटते साढ़े दस बज जाते. मतलब सुबह पाँच बजे से लेकर रात साढ़े दस बजे तक जुटी रहती है प्रिया. अनन्त की ड्यूटी सुबह नौ बजे शुरु होती है,

और सात बजे खत्म, यानी दस घंटे. और प्रिया की? सुबह पांच बजे से रात साढ़े दस बजे तक! साढ़े सत्रह घंटे! उसके बाद भी सुनना यही पड़ता है, कि करती क्या हो??? दिन भर तो घर में रहती हो!!!

मतलब घर का काम, काम नहीं है? बाहर नौकरी करने पर ही कुछकरना कहलायेगा?

बहुत बुरा लगता है प्रिया को, जब अनन्त दूसरी कामकाजी महिलाओं से उसकी तुलना करते हैं, और कमतर आंकते हैं.

चाहे तो प्रिया भी नौकरी करने लगे. अच्छी भली एम.ए. बी.एड.है. किसे भी प्रायवेट स्कूल में नौकरी मिल ही जायेगी. पिछले साल तो डब्बू की प्रिंसिपल ने उससे कहा भी था, हिन्दी टीचर की जगह ख़ाली होने पर. उसने ही मना कर दिया था. अपनी सारी इच्छाएं, सारे शौक घर के काम के नाम कर दिये, और हाथ में
क्या आया? निठल्ले की उपाधि?

"करती क्या हो-करती क्या हो.." सुनते- सुनते प्रिया भी उकता गई है. सो इस बार जब डब्बू का रिज़ल्ट लेने गई तो अपना रिज़्यूम भी थमा आई प्रिंसिपल को. उन्होंने कहा- " मैने तो पहले ही आपसे कहा था. आपके जैसी ट्रेंड टीचर को अपने स्टाफ़ में शामिल कर के बहुत खुशी होगी हमें". एक अप्रैल से ही डैमो के लिये आने को कहा,. एक अप्रैल!! यानी तीन दिन बाद ही!

घर में नयी व्यवस्थाएं शुरु कर दीं उसने. सबसे पहले अनन्त को बताया- कि " लो. अब कुछ न करने की शिक़ायत दूर होगी तुम्हारी" अनन्त अवाक!!
"अरे! कैसे होगा?"
"होगा. जैसे और कामकाजी महिलाओं के घर होता है." प्रिया ने भी लापरवाही से जवाब दिया.
"तुम्हें भी काम में हाथ बंटाना होगा".
क्या कहते अनन्त? खुद ही तो सहकर्मी महिलाओं का उदाहरण देते थे.
घर के नये नियमों का बाक़ायदा लिखित प्रारूप तैयार किया प्रिया ने. अनन्त को पकड़ाया-
नियमावली-
सुबह पांच बजे उठना होगा.
अपने कपड़े खुद तैयार करने होंगे.
अपना सामान खुद व्यवस्थित रखना होगा.
बच्चों को छोड़ने स्टॉप तक जाना होगा.
टिफ़िन साथ में ले जाना होगा.
शाम को बच्चों का होमवर्क कराना होगा, क्योंकि उस वक्त प्रिया को सुबह के खाने की तैयारी करनी होगी.

" ये कौन से मुश्किल काम हैं? तुम्हें क्या लगता है, मैं नहीं कर पाउंगा?"
" न. कोई मुश्किल काम नहीं हैं. तुम कर पाओगे, मुझे पूरा भरोसा है" कहते हुए हंसी आ गई थी प्रिया को. जानती थी, कितना मुश्किल है अनन्त के लिये सुबह पांच बजे उठना. ये भी जानती थी, कि यदि वो शुरु से ही नौकरी कर रही होती, तो पूरा रुटीन उसी तरह बना होता सबका. अब जबकि सबकी निर्भरता प्रिया पर है, तब दिक्कत तो होगी न? लेकिन कोई ये कहां मानता है कि उसके नहीं होने से दिक्कत भी हो सकती है? यही तो साबित करना चाहती है प्रिया.

आज से प्रिया को स्कूल ज्वाइन करना था. तीन बार उठा चुकी अनन्त को, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं. अनन्त के चक्कर में स्कूल बस भी निकल गई. अनन्त अभी भी सो रहे थे. सैकेंड ट्रिप की बस में प्रिया को जाना था. जल्दी-जल्दी उसने नोट लिखा-

" तुम्हारे समय पर न उठने के कारण बच्चे स्कूल नहीं जा सके. अब अब तुम्हें लंच तक की छुट्टी लेनी होगी"

नोट टेबल पर दबा के रखा, और भागी प्रिया. उठने के बाद अनन्त पर क्या बीती, ये तो वही जानता है.
अगले तीन दिनों में सबकी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो गयी.अनन्त बच्चों को ठीक से पढा ही नहीं पा रहे थे. बच्चों ने एलान कर दिया कि वे पापा से नहीं पढ़ेंगे।

रात में अनन्त ने अनुनय भरे स्वर में कहा-
" प्रिया, ये घर तुम्हारे बिना नहीं चलने का. तुम्हारा घर में रहना कितना अहम है, ये मैं पहले भी जानता था, और अब तो बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा हूं. अभी तो तुम्हारा डैमो चल रहा है, तुम अगर सचमुच नौकरी करना चाहती हो, तो करो, लेकिन हम सबको तुम्हारी ज़रूरत है."
अंधेरे में भी अनन्त ने महसूस किया कि प्रिया मुस्कुरा रही है, विजयी मुस्कान, लेकिन अनन्त को प्रिया की यह जीत मंजूर थी। :)