चुपके से सुन...इस पल की धुन.. ....
RHYTHM OF LIFE...listen it from heart.
मोनिका (मान्या), जिन्होंने 2006 में अपनी ब्लॉग यात्रा शुरू की, जो 2016 तक चली है, 2017 के पन्ने इंतज़ार में हैं, और पन्नों को है पाठकों का इंतज़ार ...
चट मंगनी,पट ब्याह जैसी स्थिति साहित्य की नहीं होनी चाहिए, न कलमकारों की, न उन्हें पढ़नेवालों की।
अब तो राह चलते इतनी सुविधाएँ हैं कि आराम से ब्लॉग पढ़ा जा सकता है, ...
कौन आएगा इधर, किसकी राह देखें हम !!! से बेहतर है, आप अपनी पसंद को रास्ता दीजिये, उठिये और एक क्लिक के साथ पढ़िए
मोनिका (मान्या) की कलम से,
इस मधुर सुन्दर जीवन कि चाक पर खुद को पाती हूँ एक कुम्हार सा..सपनो की गीली मिट्टी से लीपे हैं मेरे हाथ.. उस नम मुलायम मिट्टी को कोशिश कर रही हुंएक शक्ल देने कि,एक चेहरा मेरे एह्सासों का..सच कहुं तो ये कोशिश है तुम्हे एक स्वरुप देने की..तुम जो एक स्वप्न हो मेरे लिये एक रह्स्य..जानती हुं तुम्हारे असीम व्यक्तित्व को स्वरुप देना आसान नहीं मेरे लिये..पर फिर भी चाहती हुं तुम्हे समेटना अपनॅ हाथों में..और छुना चाहती हुं अपनी उंगलियों से तुम्हें.इस स्नेहसिक्त मिट्टी कि सोन्धी महक.. मुझे एह्सास दिलाती हॅ तुम्हारीमहक का.. मानो की तुम कहीं आस-पास हो, और मै बन्ध जाती हुं सम्मोहन से..हर पल ढुंढ़ती हॅं तुम्हे मेरी दृष्टि..,पर तुम तो केवल एक स्वप्न हो, एक रहस्य..ऐसा तिलस्म जिसमे खो चुकी हुं मैं..और कोशिश करती हुं अपने सपनों को मुर्त्त रुप देने की.जैसे जैसे मेरि उन्गलियां उस नम मिट्टी को शक्ल देती जाती है वैसे वैसे भावनायें उद्वेलित करती हॅ मेरे मन को. एक खुशी एक सम्मोहन.. खुद खो रही हुं अपनी ही कृति में..मेरी कृति .. एक कोशिश तुम्हे समझने की.. अब सोचती हुं कुछ रंग भरुं इसमें.. अपनी भावनाओं के..रंग जिनसे एह्सास हो मुझे तुम्हारे रुबरु होने का..तुम्हारे असीम व्यक्तित्व का.. उस अनन्त छवि का. उस निर्मल प्रेम सागर का.. जो स्वयम ही प्यासा हॅ.. और मै उस सरिता समान .. जिसे एह्सास हॅ सागर कि त्तृष्णा का.. और मैं व्य़ाकुल हो चल पड़ी हुं .. तुममे समाहित होने को.. तुम्हारे स्नेह में आकन्ठ डूब जाने को.. और तुम्हे संग ले भीग जाने को.. खो जाने को.. पर तुम तो एक स्वपन हो अब तक , एक रह्स्य और मैं एक नाकाम कोशिश तुम्हे जानने कि.. पर तुम्हारे स्नेह से सिक्त है हृदय मेरा...
सवाल?????? जिंदगी???????जाने क्या????
रूके हैं कुछ खारे से पल....
पलकों की दहलीज़ पर...
देते हैं दस्तक हर पल....
कैसे दूं इज़ाज़त....
ज़मीन नहीं पैरों तले...
साया नहीं आसमां का...
सर पर..
जाने किस ज़मीन पर...
चलते हैं कदम...
दिन कभी ढलता नहीं....
ना कभी होती है सहर...
जाने किस घड़ी की...
सूईयों पर बीतता जाता है वक्त...
मंज़िलों की तलब नहीं....
नामालूम से रास्ते हैं....
चली जाती हूं अकेले ही...
जाने कब खत्म होगा सफ़र...
ना सुनाई देती है कोई सदा...
ना खिलते हैं कभी लब....
क्या करता खुदा भी मेरा...
मैंने कोई दुआ की ही कब...
ना पूछो मेरी उदासी का सबब...
ना सवाल करो मेरी हंसी पर..
बदलते मौसमों को कौन रोक सका है...
किसने की हुकूमत हवा के रूख पर...
हां कुछ अजीब है मेरी दास्तां....
उसने जाने किस स्याही से...
जाने कौन सी इबारत लिखी है...
जिंदगी के पन्नों पर....
जो मैंने ना समझा....
वो तुम क्या समझोगे....
क्यूं उलझते हो...
'मन' की उलझन से....
तुम भी खो ना जाओ कहीं...
इसलिये कहती हूं....
लौट जाओ अपनी दुनिया में...
अपनी राहों पर....
कभी खिली है चांदनी....
अमावस के आसमान पर????
आपकी गहनों की पोटली का दूसरा चमकता हीरा। बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना..... आभार
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई रचना पर आपके विचारों का इन्तजार।
बहुत अच्छी परिचय प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही संवेदनशील रचना और रचनाकार भी!
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